महाराणा प्रताप और उनका राज्यारोहण
महाराणा प्रताप भारत के इतिहास के एक ऐसा महान नक्षत्र हैं जिनके नाम लेने मात्र से रगों में खून दौड़ने लगता है। उन्हें भारत के वीरों का शिरोमणि कहा जाता है। अकबर जैसे मुगल बादशाह से उन्होंने जमकर टक्कर ली थी और उसे एक नहीं अनेक युद्धों में परास्त किया था। महाराणा प्रताप का नाम केवल इसलिए नहीं है कि उनके और अकबर के बीच हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था या उन्होंने जंगलों में रहकर कथित रूप से घास की रोटियां खाई थीं या उन्होंने अन्य प्रकार के कई कष्ट झेले थे? उनका नाम इसलिए है कि उन्होंने अकबर जैसे मुगल शासक को अनेक युद्धों में बार-बार धूल चटाई थी। जिसका सामना करने के लिए उस समय कोई तैयार नहीं होता था या जिसके तूफान को देखकर लोग पीठ फेर कर खड़े हो जाते थे या जिसे चुनौती देना उस समय सबसे बड़ी बात मानी जाती थी , उस अकबर के सामने सीना तानकर खड़ा होना और उसकी चुनौती को स्वीकार करना महाराणा प्रताप की महानता, वीरता और देशभक्ति का प्रमाण है। अपने महान कार्यों से महाराणा प्रताप ने अपने वंश का नाम उज्ज्वल किया। इसके साथ – साथ राष्ट्र की अपेक्षाओं पर खरे उतरकर उन्होंने राष्ट्र सेवा का अनुपम कीर्तिमान भी स्थापित किया। उनकी अमर कीर्ति आज भी पूरे देश के लिए और समस्त राष्ट्रवासियों के लिए नमन और अभिनंदन के योग्य है। जिन लोगों ने उन्हें किसी जाति विशेष तक देखने का प्रयास किया है या उनकी छवि को एक जाति विशेष तक बांधने का प्रयास किया है, उन्होंने भी राष्ट्र के साथ न्याय नहीं किया है, क्योंकि महापुरुषों पर सब का समान अधिकार होता है। वे किसी जाति, क्षेत्र या समाज के नहीं होते हैं। उनका चिंतन समस्त मानव जाति के कल्याणकारी भावों से भरा होता है। अतः वह जीवन में जो भी कार्य करते हैं वे सारे के सारे मानवता के लिए समर्पित होते हैं। मानवता के कल्याण हेतु होते हैं। अतः मानवता के ऐसे महानायकों को सबका सम्मान प्राप्त होना ही चाहिए । हमारा मानना है कि महाराणा प्रताप इस सम्मान के सबसे अधिक पात्र हैं।
मानवता के मसीहा बनकर महाराणा यहां आए थे,
कर दिया समर्पित जीवन को पैगाम सुनाने आए थे।
देश की सुंदर बगिया में एक फूल खिला था पौरुष का,
अपने उत्कृष्ट कृत्यों से , वे इसको महकाने आए थे।।
महाराणा प्रताप सिंह अपने पितामह राणा संग्राम सिंह के प्रति अत्यधिक समर्पित थे। वह उन्हीं की भांति वीरता और देशभक्ति के कीर्तिमान स्थापित करना चाहते थे। उनका संकल्प यही था कि जैसे उनके पितामह महाराणा संग्राम सिंह ने मुगलों और मुसलमानों को देश से बाहर निकालने के लिए कार्य किया था वैसे ही जीवन भर वह भी मुगलों और मुसलमानों को देश से बाहर निकालने के लिए कार्य करते रहेंगे। अपने इस महान संकल्प की पूर्ति के लिए महाराणा प्रताप ने राजभवन के सुख ऐश्वर्य को लात मार दी थी। उन्होंने जंगलों में रहना पसंद किया पर किसी विदेशी मुगल शासक के सामने सर झुकाना उचित नहीं माना।
जन्म और बचपन
महाराणा प्रताप सिंह का जन्म 9 मई, 1540 ई0 को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। वह राणा उदय सिंह के सबसे बड़े पुत्र थे। उनका जन्म उसी समय हुआ था जिस समय महाराणा उदय सिंह मेवाड़ के शासक बने थे। उनकी जयंती विक्रमी संवत कैलेंडर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है। कहा जाता है कि जिस समय महाराणा उदय सिंह के राज्याभिषेक का विशेष कार्यक्रम संपन्न हो रहा था उसी समय धायमाता पन्ना ने दो ढाई महीने ( कहीं-कहीं यह एक माह भी लिखा है ) के शिशु महाराणा प्रताप को लाकर महाराणा उदय सिंह की गोद में दिया था। उस समय राज्याभिषेक के समारोह में उपस्थित हुए सभी गणमान्य लोगों ने महाराणा उदय सिंह के इस शिशु का करतल ध्वनि के साथ स्वागत किया था।
उस समय महाराणा उदय सिंह का भी अपने इस नवजात बालक से विशेष अनुराग था। कालांतर में राणा उदय सिंह अपनी सबसे छोटी रानी के पुत्र जगमाल के प्रति अधिक स्नेह भाव रखने लगे थे। इसका कारण केवल एक था कि वे अपनी छोटी रानी पर अधिक आसक्त रहते थे। महाराणा प्रताप को उनके पिता कुछ उपेक्षित से करने लगे थे। जिससे दोनों पिता पुत्रों में कुछ दूरी भी बन गई थी। राणा उदय सिंह को अपनी कई रानियों से कुल 22 पुत्र उत्पन्न हुए थे। महाराणा प्रताप उनमें सबसे बड़े थे। उन्हें बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। मुस्लिम इतिहासकारों ने तो उन्हें अक्सर इसी नाम से संबोधित किया है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मुस्लिम इतिहासकारों को महाराणा प्रताप के चरित्र से घृणा थी। उन्होंने हमारे अधिकतर वीरों को उनके उपनाम या बिगड़े हुए नाम से ही लिखने या पुकारने का काम किया है।
पन्ना धाय का आशीर्वाद
महाराणा प्रताप उस समय अपने वंश की पहली किरण के रूप में आए थे। बनवीर के अत्याचारों से अभी मेवाड़ निकला ही था। मेवाड़ के सरदार, सामंत, मंत्री व सैन्याधिकारी सभी महाराणा प्रताप में भविष्य का एक महान योद्धा और महान शासक देख रहे थे। यही कारण था कि उन सबके स्नेह का भाजन महाराणा बने। सभी उन्हें असीम प्यार करते थे। महाराणा वंश में उनके आने से मानो गई हुई खुशियां फिर से लौट आई थीं। पन्ना गूजरी ने राज्यसिंहासन पर विराजमान हुए राणा उदय सिंह को जब उनके पुत्र कीका को गोद में दिया तो समय उस वीरमाता ने कहा था कि “हे मेवाड़ कुल के गौरव ! क्षत्रिय कुल पालक, धर्म रक्षक !! आज मैं तुम्हें पूर्वजों के राज्य सिंहासन पर विराजमान देखकर अत्यधिक भाव विभोर हो गई हूं, लो अपनी धायमाता का एक और नजराना ( प्रताप को महाराणा उदयसिंह की गोद में रखते हुए ) स्वीकार करें। इस मां ने तुम्हारे लिए अपने पुत्र चंदन का बलिदान दिया था , परंतु आज मैं उससे भी अधिक प्राणप्रिय के रूप में कीका प्रताप को तुम्हें सौंप रही हूं। यह मेरा आशीर्वाद है कि तुम्हारा यह पुत्र कभी पराजित नहीं होगा और धर्म व धरती की सदा रक्षा करता रहेगा।”
वास्तव में यह किसी मां के शब्द नहीं थे। यह शब्द एक ऐसी तपस्विनी के थे, जिसने राष्ट्र की आराधना की थी। राष्ट्र निर्माण के लिए जिसने अपने पुत्र की बलि दे दी थी। यह उस मां के बोल थे जो उस समय तप, त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति बन चुकी थी। यही कारण था कि समय आने पर उस राष्ट्रसाधिका के ये शब्द अक्षरश: सत्य साबित हुए।
महाराणा प्रताप के आदर्श
महाराणा प्रताप की माता जीवत कंवर या जयवंत कंवर थीं। प्रताप ने बचपन में ही अपने पितामह राणा संग्राम सिंह के बारे में बहुत कुछ सुना था। यही कारण था कि वह उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखते थे। इसके अतिरिक्त वह मेवाड़ के इतिहास के ही नहीं बल्कि भारतवर्ष के इतिहास के गौरव बप्पा रावल, खुमाण प्रथम, महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भा से भी प्रभावित थे, जिन्होंने समय-समय पर इतिहास रचा था और अपनी वीरता एवं पराक्रम से समकालीन इतिहास को प्रभावित किया था।
गौरवशाली बप्पा रावल के गौरव प्रताप बने,
औषधि बने दीन भारत की शत्रु के संताप बने,
खुमाण और हमीर से उनको जीवन का वरदान मिला
कुम्भा से मिली अनुपम शक्ति भारत मां के भाल बने।।
महाराणा प्रताप भली प्रकार जानते थे कि मुगल वंश के शासन के स्थापित होने के समय से ही किस प्रकार उससे शत्रुता चली आ रही है? इसके अतिरिक्त मुगल काल से पूर्व सल्तनत काल में अलाउद्दीन खिलजी के समय से भी किस प्रकार देश की रक्षा करने में उनके वंश ने कैसी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ?
जब महाराणा प्रताप का जन्म हुआ तो लगभग उसी समय अकबर का जन्म हुआ था। यह अलग बात है कि महाराणा प्रताप जहां 1572 ई0 में राजा बने वहीं अकबर अपने पिता के देहांत के पश्चात 1556 ई0 में ही शासक बन गया था। संस्कृतिनाशक अकबर का उद्देश्य संपूर्ण भारतवर्ष को अपने झंडे तले लाकर वैदिक संस्कृति का सर्वनाश करके इस्लामिक संस्कृति को भारत में स्थापित करने का था। भारतीय पराक्रम और पौरुष को मिटाकर वह संपूर्ण भारत को इस्लाम के रंग में रंगने की तैयारी कर रहा था। इसके लिए अकबर ने भारत में हिंदुओं पर वैसे ही अत्याचार किए थे जैसे उसके पूर्ववर्ती तुर्क शासक करते आए थे। उसका भी अपने पूर्ववर्ती इस्लामिक शासकों वाला ही लक्ष्य था अर्थात हिंदुओं का विनाश और इस्लाम का विकास।
अकबर की इस प्रकार की नीति और सोच को महाराणा प्रताप भली प्रकार जानते थे। यही कारण था कि अकबर से उनका युद्ध अवश्यंभावी था। अपने दादा महाराणा संग्राम सिंह की भांति वह इस्लाम के शासन को उखाड़ कर भारत में भारतीयों का शासन स्थापित करने के पक्षधर थे। अतः अकबर को उनके द्वारा सहन करना कदापि संभव नहीं था। महाराणा प्रताप अत्यंत स्वाभिमानी और राष्ट्रभक्त थे । यही कारण था कि उन्होंने कभी भी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। अकबर के लिए सदा सिरदर्द बने रहने वाले महाराणा प्रताप अपने निर्णय पर अडिग रहे।
अकबर के प्रति महाराणा की प्रतिज्ञा
कहा जाता है कि महाराणा प्रताप सिंह ने अपने कुलदेवता भगवान एकलिंग जी की सौगंध उठाकर यह प्रतिज्ञा ली थी कि वह आजीवन अकबर के लिए केवल तुर्क का ही संबोधन करेंगे। महाराणा प्रताप की इस प्रतिज्ञा से पता चलता है कि वह अकबर को विदेशी आक्रमणकारी ही मानते थे , जिसे भारत भूमि पर रहने और यहां पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं था। उनकी दृष्टि में अकबर केवल एक आक्रमणकारी तुर्क था। छद्म इतिहासकार यदि महाराणा प्रताप की इस प्रतिज्ञा से कुछ शिक्षा ले सकें तो वह अकबर को भारत का बादशाह और यहीं जन्म लेने के कारण एक भारतीय के रूप में लिखना और प्रचार करना छोड़ सकते हैं।
जब महाराणा प्रताप एक बालक ही थे तो उनकी विमाता धीर कुंवर उनसे बहुत अधिक डाह करती थी। धीर कुंवर महाराणा उदय सिंह की छोटी पत्नी थी और वह नहीं चाहती थी कि महाराणा उदय सिंह के पश्चात महाराणा प्रताप उनके उत्तराधिकारी बनें। रानी ने महाराणा उदय सिंह को अपने प्रेमजाल में इस प्रकार फंसा रखा था कि वह भी महाराणा प्रताप से घृणा करने लगे थे। धीरे-धीरे दोनों पिता पुत्रों में इस रानी ने दूरी पैदा की। जिससे महाराणा उदय सिंह अपने सबसे छोटे पुत्र जगमल उपनाम जगमाल के प्रति अत्यधिक आकर्षित हुए। यह जगमल रानी धीर कुंवर का ही पुत्र था।
महाराणा प्रताप मेवाड़ के राजभवन में चल रहे रानी के इस कुचक्र से भली प्रकार परिचित हो चुके थे। वह नहीं चाहते थे कि पिता से किसी प्रकार का टकराव हो और इतिहास में वह अनावश्यक अपयश के भागी बनें। यही कारण था कि उन्होंने किसी भी प्रकार की अपकीर्ति से बचने के लिए संन्यास लेने का निर्णय ले लिया।
उदय सिंह का व्यवहार और प्रताप सिंह
राणा उदय सिंह का अपने पुत्र के प्रति दृष्टिकोण इतना कठोर हो चुका था कि उन्होंने प्रताप को दुर्ग में प्रवेश करने तक से निषिद्ध कर दिया था। राणा उदय सिंह ने प्रताप को दुर्ग की तलहटी में बसे एक गांव में ही रहने के लिए विवश कर दिया था। यहां तक कि उनके लिए भोजन आदि भी वहीं भेज दिया जाता था। ऐसी परिस्थितियों में इतना तो अवश्य हुआ कि राणा प्रताप अपने पिता के प्रति शांत भाव से आजीवन विद्रोही रहे। यही कारण था कि उन्होंने कथित रूप से कभी ऐसा भी कह दिया था कि राणा संग्राम सिंह और मेरे मध्य में यदि उदयसिंह ना होते तो मेवाड़ का इतिहास ही कुछ और होता।
महाराणा प्रताप ने अपने विषमताओं से भरे इस काल को भील साथियों के साथ मिलकर प्रसन्नता से काटने का प्रयत्न किया। उन्होंने अपने भील साथियों के साथ मिलकर एक सेना का गठन किया। कुंवर राणा प्रताप की अगुवाई में उस समय कई युद्ध किए गए। राणा ने बागड़छप्पन और गोंडवाड़ा पर विजय प्राप्त की। जिससे एक वीर योद्धा के रूप में उनका सम्मान बढ़ा। भील साथियों ने उनके व्यवहार और आचरण से प्रसन्न होकर सदा उनका साथ देने का संकल्प लिया। भीलों की महाराणा प्रताप के प्रति श्रद्धा भावना आज तक भी स्पष्ट दिखाई देती है।
28 फरवरी 1572 को राणा उदय सिंह का देहांत हुआ। उन्होंने अपनी इच्छा पूर्व में ही व्यक्त कर दी थी कि उनकी मृत्यु के पश्चात मेवाड़ का राज्य सिंहासन जगमल उपनाम जगमाल को दिया जाए। राणा परिवार की परंपरा के अनुसार जिस राजकुमार को राज्य सिंहासन मिलने वाला होता था वह मरने वाले राणा के अंतिम संस्कार में सम्मिलित नहीं होता था। अतः जगमाल अपने पिता के अंतिम संस्कार की क्रियाओं से पूर्णतया अलग रहा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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