पकड़ी दक्षिण की राह
मेवाड़ के महाराणा की शिथिलता से राष्ट्रीय आंदोलन की गति पर विपरीत प्रभाव पड़ा। मेवाड़ से और वहां के महाराणा से मिलने वाली निराशा की क्षतिपूर्ति के लिए लोगों ने दक्षिण की ओर देखना आरंभ किया। फलस्वरूप शाहजादा अकबर और दुर्गादास राठौर शिवाजी के पुत्र शम्भाजी के राज्य के लिए चल पड़े। ये दोनों शम्भाजी के राज्य में 28 अप्रैल 1681 ई. को पहुंचे। वहां अकबर का स्वागत एक सम्राट के रूप में किया गया।
किया शम्भाजी ने सत्कार
शाहजादा अकबर को लेकर शम्भाजी के दरबारियों में मतैक्य नही था। कुछ लोग औरंगजेब के साथ शाहजादा को लेकर शत्रुता बढ़ाना नही चाहते थे, जबकि दूसरे पक्ष का कहना था कि औरंगजेब से शत्रुता तो पूर्व से ही है अब और अधिक क्या बढ़ेगी? इसके अतिरिक्त महाराजा जसवंत सिंह से हमारे पूर्व में मित्रतापूर्ण संबंध रहे हैं। अत: आये हुए लोगों को शरणागत मानकर शरण दिया जाना ही उचित है। शम्भाजी ने दूसरी राय पर कार्य किया और अकबर से कहलवा दिया कि वे यहां अपना घर समझकर ही निवास करें।
इसके पश्चात जब अकबर ने यहां रहते हुए अपनी सेना तैयार करनी आरंभ की तो उस पर शंका व्यक्त करते हुए शम्भाजी ने अकबर के उस प्रयास को यह कहकर रूकवा दिया कि आप शरणार्थी हैं, अत: अपनी सेना उतनी ही रखें, जितनी साथ लाये थे।
अकबर की समझदारी
इसी समय शम्भाजी के कुछ अपने लोगों ने उन्हें सत्ताच्युत करने का षडय़ंत्र रचा और सिंहासन एक सौतेले भाई राजाराम को राजा बनाकर देना चाहा। इन लोगों ने शाहजादा अकबर को भी अपने प्रभाव में ले लिया, परंतु दुर्गादास राठौड़ ने शाहजादा को समझाया कि हमें यहां निर्लिप्त और निष्पक्ष भाव से रहना चाहिए। इसलिए जो भी जानकारी आपके पास है-उस पूरे षडय़ंत्र से राजा को अवगत करा दो। अकबर ने ऐसा ही किया। जिस पर राजा शम्भाजी को बड़ा अच्छा लगा और उन्होंने अपने मन में व्याप्त शंका आशंकाओं को मिटाकर अकबर को अपना मित्र सचमुच में मान लिया। तब वह 13 नवंबर 1681 को अकबर से जाकर मिले।
मुगल सेना की चढ़ाई और बादशाह की असफलता
उधर बादशाह औरंगजेब की मेवाड़ से संधि हो जाने के कारण अब वह राजस्थान से निश्चिंत हो गया था, इसलिए वह अब दक्षिण को कुचलने की तैयारी करने लगा। अत: शाहजादा मुअज्जम एक शाही सेना के साथ 11 नवंबर 1681 ई. को औरंगाबाद जा पहुंचा। स्वयं बादशाह भी 13 नवंबर को बुरहानपुर जा पहुंचा। उस समय शम्भाजी जंजीरा के युद्घ में व्यस्त थे। बादशाह ने अवसर का लाभ लेते हुए कोंकण पर आक्रमण कर दिया, जिसकी रक्षार्थ शम्भाजी को जंजीरा युद्घ बंद कर लौटना पड़ गया।
औरंगजेब ने अक्टूबर 1682 तक शम्भाजी को संकट में तो डाले रखा पर कोई विशेष सफलता प्राप्त नही कर सका, तब उसे निराश होकर ही दिल्ली लौट जाना पड़ा। औरंगजेब के साथ शम्भाजी ने जो भी रणनीति अपनाई उस सबमें दुर्गादास राठौड़ और शाहजादा अकबर की पूर्ण सहभागिता रही थी।
अकबर से शम्भाजी का मनोमालिन्य
इसी समय (दिसंबर 1682) में अकबर ने एक नाचने वाली से विवाह कर लिया जिसे शम्भाजी ने उचित नही माना और इसी बात को लेकर दोनों में मतभेद गहरा गये। अकबर ने आवेश में आकर अपने शिविर में ही आग लगवा दी और वहां से चल दिया, वह अरब भागना चाहता था। पर शम्भाजी के कवि कलस की मध्यस्थता से शम्भाजी और अकबर के संबंध पुन: मधुरता पूर्ण हो गये।
उस समय पुर्तगालियों से शम्भाजी का युद्घ चल रहा था , जिसमें वह अकबर के मध्यस्थ बनकर उसका उपयोग करना चाहते थे। और यही हुआ भी अकबर ने मध्यस्थ बनकर दोनों पक्षों में संधि करा दी।
अकबर की इच्छा थी कि शम्भाजी उसे दिल्ली पर अधिकार करने में सहायता दें। अक्टूबर 1685 ई. में भड़ौच में विद्रोह हो गया तो वहां के लोगों ने मुगल फौजदार को मारकर अकबर में अपनी आस्था व्यक्त की। मरहठों और मुगलों के युद्घ में अकबर पूर्व में अपनी सहायता (जनवरी 1685) शम्भाजी को दे चुका था।
राठौड़ का अहमदनगर पर आक्रमण
जून 1686 ई. में दुर्गादास राठौड़ अकबर को साथ लेकर दस हजार की सेना के साथ मुगल राज्याधीन अहमदनगर की ओर बढ़ा। वहां बादशाह की ओर से मुरहमत खां नियुक्त था। जिसके साथ नीम गांव में अकबर का युद्घ हुआ। दोनों ओर के अनेकों सैनिक और योद्घा मारे गये। दुर्गादास राठौड़ ने इस युद्घ में विशेष वीरता और पराक्रम का प्रदर्शन किया था। परंतु इसके उपरांत भी अनिर्णीत युद्घ की स्थिति में अकबर को यूं ही लौट जाना पड़ा। अगला युद्घ दिसंबर 1686 ई. में हुआ। परंतु उसमें भी अकबर को कोई सफलता नही मिल सकी। अकबर जिधर भी जाता और जहां से भी निकलकर दिल्ली की ओर बढऩा चाहता था उसी ओर मुगलों के भारी सैन्य प्रबंध के कारण उसे आगे बढऩे का मार्ग नही मिल पाता था।
अकबर रहने लगा उदास
चारों ओर से निराश अकबर अब अपनी असफलताओं के भार से स्वयं ही दुखी रहने लगा। सर यदुनाथ सरकार का कहना है कि जो सुविधाएं और ऐशोराम उसे दिल्ली में उपलब्ध थे वे सब आराम यहां महाराष्ट्र में नही थे। इसलिए उसने अब यहां से जाने का मन बना लिया।
तब अकबर ने ईरान की ओर जाने का निर्णय लिया। उसे लगता था कि ईरान का बादशाह उसे औरंगजेब के विरूद्घ सहायता देगा और उसे अपने लक्ष्य की साधना में सफलता मिलेगी। 26 जनवरी 1687 ई. को उसने बहुत ही दुखी मन के साथ अपने दुख-सुख के साथी दुर्गादास राठौड़ से विदा ली। 24 जनवरी 1688 को वह इराक के सुल्तान के दरबार में पहुंचने में सफल हो गया।
महान स्वतंत्रता सेनानी सोनग
औरंगजेब ने इंद्रसिंह के स्थान पर मार्च 1681 ई. में इनायत खां को जोधपुर का फौजदार बनाया था। उसके काल में भी राठौड़ों के आक्रमण पूर्ववत जारी रहे। परंतु जून 1681 ई. में वह राठौड़ों को युद्घ से पीछे हटाने में एक बार सफल भी हो गया था। पर तीन दिन पश्चात ही राठौड़ों ने एक मुगल चौकी पर आक्रमण कर अपने प्रतिरोध का परिचय दिया। यही स्थिति मेहता जैतारण, डीडवाना, पोकरण, फलोदी में भी बनी रही। यहां के मुगल फौजदारों को राजपूतों ने एक दिन भी निश्चिंतता से शासन नही करने दिया।
जब दुर्गादास दक्षिण में शम्भाजी के पास चला गया तो उसके साथी वीर योद्घा सोनग चाम्पावत ने मारवाह में स्वतंत्रता आंदोलन की लगाम संभाल ली। सोनग उस समय का एक महान स्वतंत्रता सेनानी था। उसने मुगल सेना को अपने आक्रमणों से हिलाकर रख दिया था।
देवीसिंह मंडावा लिखते हैं :-”सोनग के भीषण आक्रमणों से बादशाह भी चिंतित हो उठा था। सोनग के तीव्र हमलों से बादशाह घबरा गया और उसके चित्त में अब शीघ्र दक्षिण में पहुंचने की चिंता थी। क्योंकि अकबर और दुर्गादास शम्भाजी से मिलकर कोई नया उपद्रव उठा सकते हैं, इसी भय से उसने महाराणा से भी अच्छी शर्तें देकर संधि की थी अब सोनग के युद्घ से वह इतना घबरा गया था कि मारवाड़ छोडक़र भी नही जा पा रहा था। परंतु दक्षिण में जाने की बड़ी चाह बनी हुई थी। अंत में उसने सोनग के विषय में वजीर असदखां को आज्ञा भेजी कि किसी भी प्रकार सोनग से संधि की जाए। अंत में भीमसिंह ने संधि की शर्तें तय कर लीं, जिसके अनुसार बालक महाराजा अजीतसिंह को जोधपुर का फरमान असद खां दिलवा देगा और राठौड़ युद्घ बंद कर दें। आसद खां ने यह सारी जानकारी बादशाह को भेजी, जिन्हें उसने स्वीकार कर लिया। इस पर राजा भीमसिंह ने सोनग को अजमेर बुलवाया। सोनग उस समय मेड़ता से उत्तर में था डेगाना के पास पुनलोता में उन पर मुगल सेना ने अचानक हमला कर दिया उस युद्घ में सोनग वीरगति को प्राप्त हुए।”
राठौड़ सरदार अजबसिंह व उदयसिंह
इसके पश्चात अजबसिंह नामक राठौड़ सरदार ने सेनापतित्व स्वीकार किया। परंतु वह भी डीगराना के पास मुगलों से हुए एक युद्घ में वीरगति को प्राप्त हो गया। तब उदयसिंह लखधीरात को राठौड़ सेना का सेनापतित्व मिला। इसके काल में भी मुगलों के विरूद्घ स्वतंत्रता संग्राम की गत पूर्ववत जारी रही, और कहीं पर भी राठौड़ों ने झुकने या रूकने का नाम नही लिया। मुगल सत्ता जितना भी इन सरदारों को झुकाना चाहती थी ये उतनी ही प्रचण्डता के साथ भारतीय स्वातंत्रय समर की अग्नि को प्रज्ज्वलित कर डालते थे।
अजीतसिंह के लिए किये गये अनेकों बलिदान
मारवाड़ में जितने भी उपद्रव हो रहे थे, वे सभी अपने अल्पव्यस्क महाराजा अजीतसिंह की सुरक्षा के दृष्टिगत हो रहे थे। अजीतसिंह अब कुछ बड़ा होता आ रहा था। उस बच्चे की रक्षा के लिए हजारों नाम-अनाम लोगों ने अपने बलिदान दे दिये थे और यह केवल इसलिए किया जा रहा था कि किसी भी मूल्य पर हमारी स्वतंत्रता बनी रहे, हमें विदेशी सत्ता के सामने सिर न झुकाना पड़े। ये लोग अपनी बलिदानों की भाषा में अपने स्वर्गीय महाराजा जसवंतसिंह को अपनी भावपूर्ण श्रद्घांजलि भी अर्पित करते जा रहे थे। सभी को एक ही लगन थी कि चाहे अपने प्राण चले जाएं पर अपना महाराजा सुरक्षित रहे। अल्पव्यस्क महाराजा वास्तव में उस समय हिंदू शक्ति के लिए अपनी प्रतिष्ठा और राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रश्न बन गया था।
हिंदू समाज अपनी प्रतिष्ठा को बचाये रखने के लिए अनवरत संघर्ष कर रहा था और उसे ऐसा लगता था कि यदि महाराजा को औरंगजेब लेने में किसी प्रकार से भी सफल हो गया तो संपूर्ण हिंदू समाज को नीचा देखना पड़ जाएगा। अपनी बात के लिए मर मिटना केवल हिंदू समाज से ही सीखा जा सकता है।
महाराजा अजीतसिंह ने अपना पहला दरबार किया
23 मार्च 1687 ई. को महाराजा अजीतसिंह ने अपना पहला दरबार किया और अपने अब तक के जीवन की सुरक्षा के लिए जिन लोगों ने अपना बलिदान दिया था उन्हें भावपूर्ण शब्दों में स्मरण किया और जिन्होंने विशेष सहयोग दिया था उन्हें विशेष जागीरें प्रदान कीं। बालक महाराजा का राज तिलक बगड़ी के सरदार ने नियमानुसार अपना अंगूठा चीरकर किया। सारे जोधपुर और मारवाड़ में लोगों ने मार्च में दीपावली मनाकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की। चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण था, लोगों को आज अपनी साधना सफल होती जान पड़ रही थी, और लग रहा था कि अब उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करने वाला स्वयं सबल हो गया है।
दुर्गादास की वापसी
26 जनवरी 1687 ई. को दुर्गादास राठौड़ दक्षिण से अपने देश के लिए चल दिया था। वह और उसके साथी मार्ग में पडऩे वाले मुगल क्षेत्रों को लूटते हुए और अपार धन संपदा प्राप्त करते हुए 22 अप्रैल को मालपुरा कस्बे में पहुंचे। 8 अगस्त 1687 को दुर्गादास अपने गांव भीमरलाई में पहुंचा। वहां से वह अकबर के बच्चों से मिलने बाड़मेर गया। भीमरलाई में महाराजा अजीतसिंह दुर्गादास राठौड़ से मिलने गया। जहां दुर्गादास ने अपने महाराजा की अगवानी करते हुए उसका भव्य स्वागत किया। महाराजा ने दुर्गादास को सिरोपाव (सिर से लेकर पैरों तक के वस्त्र) प्रदान कर सम्मानित किया। यहां से महाराजा दुर्गादास के परामर्श के आधार पर पिपलोद के पहाड़ों में ही रूकने के लिए सहमत हो गये।
सोजत और जोधपुर के युद्घ
इसके पश्चात दुर्गादास और उनके साथी सिंध की ओर लूट करने के लिए निकल गये। उधर भी उन्होंने मुगलों के लिए भारी संकट खड़ा किया। अक्टूबर 1687 ई. में दुर्गादास और उनके साथियों ने सोजत पर पुन: आक्रमण किया। सुबह से शाम तक युद्घ होता रहा, परंतु कोई निर्णय न हो सका, अगले दिन पुन: युद्घ की तैयारी होने लगी। परंतु दुर्गादास और उनके साथियों ने जब यह समाचार सुना कि जोधपुर से एक शाही सेना और आ रही है तो वे सभी अपना घेरा उठाकर दूसरी ओर चले गये।
दुर्गादास और उनके साथियों ने इसके पश्चात जोधपुर पर आक्रमण किया। पर यहां भी सफलता नही मिली और पीछे हटना ही उन्होंने उचित समझा। यद्यपि उनके कई साथी इस युद्घ में वीरगति को प्राप्त हो गये थे। दुर्गादास अपनी योजना के अनुसार मुगल क्षेत्रों में लूट करता रहा और जहां उचित समझता वही आक्रमण कर देता।
महाराजा अजीतसिंह को नही ले पाया औरंगजेब
उधर औरंगजेब बालक महाराजा अजीतसिंह के अचानक प्रकट होने से सावधान हो गया था। दुर्गादास लूट के जिस कार्य में लगे थे-वह उस समय की परिस्थितियों में उनकी सफल रणनीति का एक अंग था। इससे औरंगजेब और उसके लोगों की शक्ति भंग होती थी और वह भंग शक्ति महाराजा की सुरक्षा के लिए उस समय सर्वाधिक उपयुक्त थी। हर योद्घा राठौड़ अपने स्तर पर अपने महाराजा की सुरक्षा के लिए चारों ओर उपद्रव कर रहा था, विद्रोह कर रहा था। इससे मुगल सेना संगठित रूप से महाराजा अजीतसिंह को खोजने का अभियान नही चला पायी। मुगल सेनानायक और फौजदार निरंतर अपने लक्ष्य अर्थात शांति व्यवस्था स्थापित कर महाराजा अजीतसिंह को खोजने के अभियान में असफल हो रहे थे , जिनके समाचार जब औरंगजेब को मिलते तो वह अपने अधिकारियों पर अत्यंत क्रोधित होता, पर अधिकारी इसके उपरांत भी कुछ कर पाने की स्थिति में नही थे।
दुर्गादास की बढ़त
विक्रमी सम्वत 1748 में सुराचंद नामक गांव के किले पर दुर्गादास ने अपना नियंत्रण स्थापित किया। कुछ समय के पश्चात मेड़ता पर भी राठौड़ों का नियंत्रण स्थापित हो गया। तब इन लोगों ने सिवाना की ओर प्रस्थान किया और उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। राठौड़ अब मारवाड़ से बाहर भी आक्रमण करने लगे थे और निरंतर चौथ वसूली की कार्यवाही उनकी ओर से जारी थी।
महाराजा की नादानी
इन्हीं दिनों महाराजा अजीतसिंह के पास अजमेर के सूबेदार सफी खां ने एक पत्र भेजकर उन्हें अजमेर आने के लिए आमंत्रित किया। जिसमें लिखा गया था कि वह बादशाह से मिलकर अजीतसिंह को जोधपुर का राज्य दिला देगा। महाराजा अजीतसिंह ने इस पत्र पर किसी से भी कोई परामर्श नही लिया और अजमेर की ओर चल दिया। 19 जनवरी 1693 ई. को महाराजा अजीतसिंह और सफी खां की भेंट हुई, परंतु इस भेंट का कोई परिणाम नही निकला। सफी खां ने केवल आश्वासन दिया कि वह बादशाह से मिलकर जोधपुर राज्य की सनद भेजने का निवेदन करेगा। महाराजा ने मगरा नामक स्थान पर रहकर सनद की प्रतीक्षा की, परंतु कोई सनद उनके नही आयी। तब उनके एक पदाधिकारी मुकुन्ददास दास को सफी खां से बातचीत करके यह स्थिति स्पष्ट हुई कि सफी खां ने महाराजा के साथ छल किया है। तब उसने महाराजा को वहां से लौटने का परामर्श दिया। वैसे महाराजा के इस निर्णय से दुर्गादास राठौड़ अत्यंत अप्रसन्न था। वह नही चाहता था कि महाराजा अजमेर की यात्रा करें। दुर्गादास की अप्रसन्नता की जानकारी होते ही महाराजा अजीतसिंह उनसे मिलने गये और उनके समक्ष अपनी गलती पर प्रायश्चित किया।
महाराजा ने दुर्गादास से राठौड़ों का नेतृत्व संभालने का अनुरोध भी किया। दुर्गादास ने स्पष्ट शब्दों में महाराजा को उनके अजमेर यात्रा के निर्णय पर समझाया कि आप राठौड़ों के अधपति हैं, आपको कोई भी कार्य बिना सोचे-समझे नही उठाना चाहिए। राजनीति में शीघ्रता कष्टकारी भी हो सकती है। महाराजा को दुर्गादास की यह स्पष्टता अच्छी नही लगी और वह सिवाना की ओर चले गये। औरंगजेब ने दुर्गादास को सूचना भिजवाई कि यदि आप अकबर के बच्चों को बादशाह के पास भिजवा देंगे तो आपको उचित पुरस्कार और मनसबदारी दी जाएगी। परंतु दुर्गादास ने पुन: अपनी स्वामीभक्ति का परिचय देते हुए स्पष्ट कर दिया कि वह अपने महाराजा से पूर्व कोई मनसबदारी नही लेगा। महाराजा को जब दुर्गादास के इस प्रकार के कथन की जानकारी मिली तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने मुकुन्ददास और तेजसिंह को दुर्गादास को लाने के लिए भेज दिया। जिस पर दुर्गादास राठौड़ महाराजा अजीतसिंह जाकर मिले।
महाराजा अजीतसिंह का विवाह
1696 ई. में महाराजा अजीतसिंह का विवाह महाराणा जयसिंह ने अपने भाई गजसिंह की पुत्री के साथ करना निश्चित कर दिया। इस विवाह की सूचना पाकर बादशाह को विश्वास हो गया कि अजीतसिंह वास्तव में ही महाराजा जसवंतसिंह का पुत्र है, और तेरे पास जो बच्चा अजीतसिंह के रूप में छोड़ दिया गया था वह तो कोई और ही था। इसी वर्ष देवालिया के शासक महारावत प्रताप सिंह ने भी अपनी कन्या का विवाह महाराजा से कर दिया।
बादशाह अपने पौत्र-पौत्री को पाने के लिए अब और अधिक प्रतीक्षा नही करना चाहता था। वह उन्हें पाने के लिए दुर्गादास को दो बार मनसबदारी देने का वचन दे चुका था, परंतु दुर्गादास हर बार पहले महाराजा को मनसबदार बनाओ-ऐसा कहकर बात टाल देता था। औरंगजेब महाराजा अजीतसिंह को मनसबदार बनाकर उन्हें महाराजा जसवंतसिंह का उत्तराधिकारी मानना नही चाहता था। परंतु अब परिस्थितियां परिवर्तित हो रही थीं, इसलिए वह दुर्गादास की बातों के प्रति अब गंभीर होने लगा था।
दुर्गादास की महानता से बादशाह भी हुआ अभिभूत
दुर्गादास राठौड़ के पास बादशाह औरंगजेब की पौत्री और अकबर की पुत्री रह रही थी। यह दुर्गादास की महानता ही थी कि शाही परिवार के दोनों बच्चों का पालन पोषण उन्होंने मुस्लिम रीति-रिवाजों से किया, और उन्हें तनिक भी कष्ट न होने दिया।
अकबर की सयानी पुत्री को अब दुर्गादास ने उसके परिवार में भेजना ही उचित समझा। उन्होंने शाही परिवार के दोनों बच्चों का पालन-पोषण मुस्लिम परंपराओं के अनुसार ही किया था। कालांतर में अकबर की पुत्री समीयतुनिसा ने जब बादशाह औरंगजेब को इस बात की जानकारी दी कि उसे कुरान पूर्णत: कण्ठस्थ है क्योंकि दुर्गा बाबा ने उसके लिए शिक्षा-दीक्षा की पूर्ण व्यवस्था कर दी थी तो बादशाह भी दुर्गादास की इस सहृदयता से बहुत प्रभावित हुआ था, इन बच्चों को ईश्वरदास के माध्यम से बादशाह तक पहुंचवाया। उसने पहले सफीतुन्निसा को ही बादशाह के पास भेजा।
बादशाह ने माना अजीतसिंह को महाराजा जसवंतसिंह का उत्तराधिकारी
इस पर प्रसन्न होकर बादशाह ने दुर्गादास को अपने दरबार में विशेष प्रयत्नों के पश्चात बुलावा भेजा। बादशाह ने दुर्गादास को बिना हथियार भीतर आने की अनुमति दी, पर जब उस आज्ञा को दुर्गादास ने सहर्ष स्वीकार कर लिया तो उसने दुर्गादास को सशस्त्र भीतर आने के लिए कहा। बादशाह ने दुर्गादास को ढाई हजार का मनसब और खिलअत प्रदान कर ढेर सारे उपहार भी प्रदान किये। इसके अतिरिक्त उसे एक जागीर भी प्रदान की। साथ ही बादशाह ने महाराजा अजीतसिंह को भी मनसबदाई प्रदान की। यह घटना 2 ज़ुलाई 1698 ई. की है।
इस घटना के पीछे राठौड़ों का लंबे काल का संघर्ष था उन्होंने अनेकों बलिदान दिये थे और अनेकों यातनाएं सही थीं तब यह घड़ी आयी थी कि बादशाह ने महाराजा अजीतसिंह को महाराजा जसवंतसिंह का उत्तराधिकारी मान लिया था। राठौड़ों के इन संघर्षों से यद्यपि बादशाह पूर्णत: घायल हुआ पड़ा था, परंतु उसके घायल मन को उस समय सुखानुभूति हुई जब उसकी पौत्री ने दुर्गा बाबा की सहृदयता का वर्णन उसके समक्ष किया था। इस प्रकार यह जीत भारतीय पौरूष की, पराक्रम की, और भारत के सांस्कृतिक मूल्यों की जीत थी। वैसे अभी जो कुछ हुआ था वह पौ फटने के समान था। अभी स्वतंत्रता का सूर्योदय तो नही हुआ था। हां, उसका स्पष्ट संकेत अवश्य मिल गया था। पर पौ फटने से इतना तो स्पष्ट हो ही गया था कि सूर्योदय का होना अब अवश्यम्भावी है।
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मुख्य संपादक, उगता भारत