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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-23

ऐसे लोग मनुष्य मात्र के शिक्षक व प्रेरक होते हैं, और आलस्य आदि शत्रुओं से रहित होकर धारणा, ध्यान, समाधि का अनुष्ठान करने वाले, परम उत्साही, योग्य, सर्वस्व त्यागी निष्काम विद्वान महान मोक्ष को प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग ईश्वर और मृत्यु को सदा साक्षी रखते हैं और प्रत्येक प्रकार के पापकर्म से अपने आपको बचाने का हरसंभव प्रयास करते हैं। उनका जीवन स्वयं में एक शैक्षणिक संस्था बन जाता है जो विश्व के लोगों को शिक्षा देता रहता है कि साधक बनो तपस्वी और याज्ञिक बनो।

भारत का मनुष्य के प्रति ऐसा दृष्टिकोण या चिंतन इसलिए रहा कि उसके वेदादि शास्त्र मनुष्य को मुमुक्षु बनाकर संसार के आवागमन के चक्र से मुक्त कराने की उत्कृष्ट भावना से भरे पड़े हैं। इसलिए मनुष्य उन्नति प्राप्त करे और उन्नत होते-होते मोक्षधाम तक पहुंचे-ऐसा प्रबंध भारत के महान शिक्षाविद ऋषियों ने किया। हमारी शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य यही था कि मनुष्य को उसके जीवन का वास्तविक उद्देश्य समझा दिया जाए, और उसके जीवन में ऐसी क्रांति उत्पन्न कर दी जाए कि वह स्वाभाविक रूप से अपने जीवनोद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सक्रिय और सचेष्ट हो उठे।
भारतीय शिक्षा प्रणाली मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए समर्पित थी, इसलिए वह सार्वभौम थी और सारे भूमंडल पर ‘वेदमत’ की स्थापना करने के लिए समर्पित थी। उसका लक्ष्य था कि संसार में सर्वत्र ज्ञान का प्रकाश हो अज्ञान कहीं नाम शेष भी न रह जाए। सारे संसार की भाषा एक हो अर्थात वेदवाणी संस्कृत को संपूर्ण भूमंडल के लोग समझें और अपना जीवन व्यवहार उसी के उत्कृष्ट चिंतन से चलाने के अभ्यासी बनें।
शिक्षा का यह उद्देश्य हमारे ऋषियों और शिक्षाविद पूर्वजों ने संपूर्ण संसार को आर्य बनाने और संपूर्ण वसुधा को अपना परिवार मानने और बनाने की भावना के वशीभूत होकर किया था। इसका लाभ यह हुआ कि संपूर्ण संसार में विभिन्न मतमतान्तर उत्पन्न नहीं हो सके। ये मत मतान्तर व्यक्ति की बुद्घि को भ्रमित करते हैं और उसे परस्पर लड़ाते हैं, इनके कारण वर्तमान विश्व में अनेकों शिक्षा प्रणालियां विश्व में कार्य कर रही हैं। जिससे वे मनुष्य को मनुष्य न बनाकर अपना मतानुयायी बना रही हैं।
फलस्वरूप मनुष्य की मनुष्यता चोटिल हो रही है। विभिन्न मतमतान्तर व्यक्ति के वास्तविक जीवनोद्देश्य को प्रकट नहीं करते, अपितु उसकी जीवनी शक्ति का और चिंतनशक्ति का दुरूपयोग कर उसे भटका देते हैं।
डा. सुरेन्द्र कुमार लिखते हैं-”इसी पाठविधि में शिक्षित-दीक्षित होकर आदिकाल में महर्षि ब्रह्मा जैसे अनेक विद्या आविष्कारक, राजर्षि मनु स्वायम्भुव जैसे आदि धर्मशास्त्रकार संविधानदाता और समाज व्यवस्थापक, वैवस्वत मनु, जनक, अश्वपति जैसे राजर्षि, विश्वकर्मा, मय, त्वष्टा जैसे शिल्पज्ञ, इंद्र जैसे विद्वान और त्रिलोकजयी, विष्णु, महेश जैसे शत्रुमर्दक और देवता, नल और नील जैसे सेतु विशेषज्ञ महर्षि भारद्वाज जैसे विमान-विद्या और यंत्र-विद्या विशेषज्ञ, वाल्मीकि, व्यास, कालिदास जैसे महाकवि, भरत जैसे नाट्य शास्त्र प्रणेता, धन्वन्तरि चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट, जीवक जैसे अमोघ पाणि आयुर्वेदज्ञ, राम और कृष्ण जैसे शस्त्र-शास्त्र में समान रूप से पारंगत, अर्जुन जैसे धनुर्धारी, षडदर्शनकारों जैसे नव सिद्घांतदाता, प्रियव्रत, इक्ष्वाकु, मांधाता, नहुष, ययाति, कात्र्तवीर्य, अर्जुन, भरत, हरिश्चंद्र, युधिष्ठिर, अशोक जैसे दिग्विजयी चक्रवर्ती सम्राट, याज्ञवल्क्य जैसे ब्रह्मज्ञाता पाणिनि पतंजलि जैसे अनुपम वैयाकरण, आचार्य यास्क जैसे भाषा विशेषज्ञ, आर्यभट्ट, वराहमिहिर जैसे खगोल-भूगोलज्ञ और महर्षि दयानंद जैसे समाज सुधारक एवं विद्या उद्घारक पैदा हुए हैं।”
सचमुच भारत की शिक्षा प्रणाली के विषय में यह चित्रण पूर्णत: सटीक है। भारत की प्राचीन आर्य शिक्षा-प्रणाली ने जितने आप्त पुरूषों को, राजर्षियों को, वैज्ञानिक और खगोल शास्त्रियों को, चिकित्साशास्त्री और समाज सुधारकों को जन्म दिया-उसका शतांश भी लॉर्ड मैकाले प्रणीत शिक्षा-प्रणाली नहीं कर पायी है। लॉर्ड मैकाले की शिक्षा प्रणाली की असफलता का यह जीता जागता प्रमाण है। इसलिए इस शिक्षा प्रणाली को भारत से यथाशीघ्र समाप्त किया जाना समय की आवश्यकता है। यह शिक्षा उन लोगों ने इस देश में लागू की थी -जिनका उद्देश्य भारत में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर चलने का रहा था। उनका यह घातक कुसंस्कार आज भी इस शिक्षा प्रणाली के माध्यम से भारतीय समाज में फलफूल रहा है। शिक्षा धनी-निर्धन में अंतर करके दी जा रही है। साथ ही यह शिक्षा प्रणाली भारतीयता से वैर करने पर बल देती है।
इन दो बातों का ही घातक प्रभाव समाज पर पड़ रहा है। समाज में समानता की बात करने वाले लॉर्ड मैकाले के मानस पुत्र समानता लाने में इसलिए असफल रहे हैं कि उनकी शिक्षा प्रणाली मूलरूप में विषमता की समर्थक है। वह ‘कृष्ण’ और ‘सुदामा’ को साथ ना तो बैठने देती है और ना ही पढऩे देती है। इसके विपरीत ‘कृष्ण’ को ‘सुदामा’ से घृणा करना सिखाती है। इसके उपरान्त भी यह शिक्षा प्रणाली भारत में चल रही है-तो कहना पड़ेगा कि हम अंधकारमयी भविष्य की ओर जा रहे हैं।
भारत की भारतीयता खोजने के लिए भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली को लागू करना समय की आवश्यकता है। इसके लिए हमें मैक्समूलर का यह कथन ध्यान में रखना होगा, जो उसने 1866 में अपनी पत्नी के लिए लिखा था-”मेरा यह संस्करण और वेद का अनुवाद कालांतर में भारत के भाग्य को दूर तक प्रभावित करेगा। यह भारतीयों के धर्म का मूल है। मेरा यह निश्चित मत है यह दिखाना कि यह मूल कैसा है, गत तीन हजार वर्षों में इससे उत्पन्न होने वाली सब चीजों को जड़ समेत उखाड़ फेंकने का एक मात्र उपाय है।”
लॉर्ड मैकाले की भांति मैक्समूलर की सोच भी भारतीयता को मिटाने की थी। ऐसे अनेकों प्रमाणों के होते हुए भी हम यदि अपनी शिक्षा प्रणाली को खोखला होने दे रहे हैं-तो यह हमारे दुर्भाग्य का ही प्रतीक है।
जब लॉर्ड मैकाले हमारी शिक्षा में घपला कर रहा था-तब महर्षि दयानंद जी महाराज ने लिखा-”इस समय कुछ ऐसा अनुचित शिक्षा प्रबंध का प्रचार हुआ है कि इनमें से (वैदिक शिक्षा प्रणाली के ग्रंथों में से) एक भी विद्या अत्यंत परिश्रम करने पर चौबीस वर्ष में भी नहीं आती है। इसका कारण यह है कि केवल तोता पाठ का घोषा-घोष चलता है। इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली बंद करनी चाहिए।” (उ. मं. 10, 71)
महर्षि दयानंद जी महाराज ने भारत की बिगड़ी दशा को सुधारने का उपाय संस्कृत विद्या को ही बताया था। उन्होंने कहा था-”विशेष करके आर्यावत्र्तवासी मनुष्य जब तक सनातन संस्कृत विद्या न पढ़ेंगे, सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग, एक परमेश्वर की उपासना न करेंगे, परस्पर विद्या ग्रहण और श्रेष्ठ व्यवहारों को न करेंगे, परस्पर हित और उपकार न करेंगे, पाषाणादिक मूत्र्तिपूजन, हठ, दुराग्रह, आलस्य अत्यंत विषय सेवा, खुशामदी, धूत्र्त पुरूषों का संग, मिथ्या विद्या और दुष्ट व्यवहारों को न छोड़ेंगे, मिथ्या धननाश और बाल्यावस्था में विवाह के त्याग, ब्रह्मचर्यश्रम से शरीर और विद्याग्रहण जब तक न करेंगे और शरीर, बुद्घि, विद्या धर्मादिकों की रक्षा और उन्नति न करेंगे तब तक इनको सुखलाभ होना बहुत कठिन है।”
महर्षि की मान्यता थी कि वेद विरूद्घ आचरण करने से आर्यों की यह दशा हुई है। इसे सुधारने के लिए उन्होंने वैदिक ग्रंथों पर आधारित शिक्षा नीति को अपनाने पर बल दिया था। उनकी मान्यता थी कि वैदिक सूर्योदय से संसार का अज्ञानांधकार मिटना संभव है। महर्षि चाहते थे कि हम लोगों को विभिन्न मत मतान्तरों को त्यागकर वेदोक्त मत की शरण में आना चाहिए।
क्रमश:

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