वैदिक सम्पत्ति: इतिहास पशु हिंसा और अश्लीलता
गतांक से आगे….
सभी भाषाशास्त्री चाहते हैं कि यदि थोड़े से शब्दों के ही द्वारा संसार का काम चल जाय तो अच्छा । किन्तु पदार्थसाम्य से भिन्न – भिन्न पदार्थों का नाम एक ही शब्द के द्वारा रखने में बहुत ही ऊँचे ज्ञान की आवश्यकता है । अभी थोड़ी देर पहले हम लिख आये हैं कि अन्तरिक्ष और समुद्र के नाम एक ही शब्द के द्वारा रक्खे गये हैं । इसी तरह पहाड़ों और बादलों के नाम भी एक ही शब्द के द्वारा रक्खे गये हैं। ये दोनों उदाहरण पदार्थसाम्य के उत्कृष्ट नमूने हैं। जिन्होंने समुद्र देखा है, वे जानते हैं कि वह किस प्रकार हूबहू आकाश की नीलिमा के साथ मिल जाता है। इसी तरह जिन्होंने पहाड़ देखे हैं, वे जानते हैं कि बादलों की बनावट भी पहाड़ों के ही सहश होती है । वेदों ने इस प्रकार का समतामूलक नामकरण करके भाषाविज्ञान को बहुत ही ऊँचा कर दिया है। जो खूबी इन समताओं में पाई जाती है, वही समता मनुष्यों, प्राणियों और वनस्पतियों में भी पाई जाती है। ये तीनों थोक रूप बदले हुए एक ही थोक के परिणाम हैं। तीनों के शरीर में जो श्रवयव हैं, वे भी सब एक ही प्रकार का काम दे रहे हैं । इसीलिए पशुओं और उनके श्रङ्गों के ही नामों से वनस्पतियों और उनके अङ्गों के भी नाम रक्खे गये हैं। इसमें भाषाशास्त्र की महान् खूबी प्रतीत होती है । यद्यपि इसमें भाषाशास्त्र की खूबी है-विज्ञान है सब कुछ है, परन्तु सत्य बात के निर्णय करने में जो दिक्कत होती है, उसका क्या इलाज है ?
हम कहते हैं कि सत्य अर्थ के निर्णय करने में कुछ भी दिक्कत नहीं है। वेदों में जहाँ कहीं इस प्रकार के दुव्यर्थक शब्दों के कारण गड़बड़ होने की संभावना हुई है, परमात्मा ने तुरन्त ही उसका स्पष्टीकरण कर दिया है। क्योंकि संदिग्ध बात के स्पष्टीकरण करने के लिए जब साधारण मनुष्य के भी हृदय में प्रेरणा होती है, तब वह जगन्नियन्ता जिसने मनुष्यों के कल्याण के लिए वेदवाणी दी है, क्या सन्देहों का स्पष्टीकरण नहीं कर सकता ? अवश्य कर सकता है । हम यहां एक साधारण विद्वान् की एक उक्ति का नमूना दिखलाकर बतायेंगे कि किस प्रकार प्रमात्मा ने वेदों में यज्ञविषयक संदिग्ध शब्दों का स्पष्टीकरण किया है। हठयोगप्रदीपिका में लिखा है कि-
गोमांस भक्षयेन्नित्यं पिबेदमरवारुणीम् ।
कुलीनं तमहं मन्ये इतरे कुलघातकाः ।।
अर्थात् जो नित्य गोमांस खाता है और मदिरा पीता है, वही कुलीन है, अन्य मनुष्य कुलघाती हैं। कैसा भयङ्कर प्रयोग है ! सुनने में कितना पाप प्रतीत होता है । परन्तु वास्तव में पाप की कोई बात नहीं है । अगले ही श्लोक में लेखक ने इसका मतलब स्पष्ट कर दिया है। वह लिखता है कि–
गौराब्देनोदिता जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि ।
गोमांसभक्षणं ततु महापातकनाशनम् ॥
अर्थात् योगी पुरुष जिल्ह्वा को लौटाकर तालू में प्रवेश करता है, उसी को गोमांसभक्षण कहा गया है। गो जिह्वा को कहते ही हैं और जिह्वा मांस की होती ही है। इसलिए जिह्वा को गोमांस के नाम से कहा गया है । यदि दूसरे श्लोक में यह बात स्पष्ट न करदी जाती तो गोमांसभक्षण की विधि स्पष्ट रूप से पाई जाती । किन्तु लेखक ने यह समझकर कि लोगों को भ्रम न हो जाय, तुरन्त ही बात को स्पष्ट कर दिया है। इसी तरह वेदों में भी ऐसे सन्दिग्ध दुव्यर्थक शब्दों का समाधान और स्पष्टीकरण परमात्मा ने भी कर दिया है। अथर्ववेद में स्पष्ट लिखा है कि-
धाना घेतुरभवद्वत्सो अस्यास्तिलोऽभवत् । (अथर्व० 18/4/32)
अर्थात् घान ही धेनु हैं और तिल ही उनके बछड़े हैं। धान अनेक प्रकार के होते हैं इसलिए अनेक धानों के नाम भी बता दिए गये हैं। अथर्ववेद में ही लिखा है कि-
एनीर्धाना हरिणी श्येनी रस्या * कृष्णा धाना, रोहिणीर्धेनवस्ते ।
तिलवत्सा ऊर्जमस्मै….|| (अथर्व० 18/4/34)
अर्थात् हरिणी, श्येनी, रस्या, कृष्णा और रोहिणी श्रादि धान ही धेनु हैं । इनके तिलरूपी बछड़े हमें बल दें । यहाँ बतला दिया गया कि हवन के प्रकरण में हरिणी, श्येनी और धेनु तथा वत्स आदि शब्द धान और तिल के वाचक हैं। इसी तरह मांस आदि शब्दों के विषय में भी अथर्ववेद में लिखा है कि-
अश्वाः कणा गावस्तण्डुला मशकास्तुषाः । (अथर्व० 11/3/5) श्याममयोऽस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम् ।। (अथर्व० 11/3/7 ) अर्थात् चावल के करण ही अश्व हैं, चावल ही गो हैं, भूसी ही मशक है, चावलों का जो श्याम भाग है, वही मांस है और जो लाल अंश है, वही रुधिर है। इन प्रमाणों से स्पष्ट हो गया कि हवनप्रकरण में जहाँ जहाँ अश्व, गो, अजा मांस, अस्थि और मजा आदि शब्द आते हैं, उनमें अन्न का ही ग्रहण है, पशुओं और पशुओं के अवयवों का नहीं । इस प्रकार से वेदों ने अपने आप अपने सन्दिग्ध दुव्यर्थक शब्दों का स्पष्टीकरण कर दिया है। इसी आज्ञा के अनुसार ब्राह्मणग्रन्थों ने भी उक्त शब्दों का निर्वाचन किया है ।
क्रमशः
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।