यदि अस्पृश्यता आदि विकृतियां भारत की संस्कृति होतीं तो अलग-अलग कालखण्डों में आये अनेकों समाज सुधारकों को उनके विरूद्घ आवाज उठाने की ही आवश्यकता नहीं पड़ती, और ना ही उनके सत्कार्यों का इतिहास वन्दन करता।
राष्ट्र सर्वप्रथम
भारत में विद्यार्थियों के भीतर राष्ट्र सेवा का भाव जागृत करने के लिए राजा और रंक के बच्चों को साथ-साथ रखकर उन्हें शिक्षा दी जाती थी। फलस्वरूप हमारे विद्यार्थियों के लिए राष्ट्र प्रथम हो जाता था। वास्तव में यह उनके लिए ‘महत्तम समापवत्र्तक’ था या कहिए कि उनके जीवन का न्यूनतम सांझा कार्यक्रम होता था जिस पर सभी सहमत होते थे। अत: जब ‘इदम् राष्ट्राय इदन्नमम्’ कहकर एक साथ यज्ञाहुति देते थे तो उसका कोई अर्थ होता था। वह आहुति व्यर्थ नहीं जाती थी। उसका फल मिलता था और फल यही आता था कि सब लोग पहले समाज के होते थे, राष्ट्र के होते थे और समाज व राष्ट्र सबके होते थे। भारत के समाजवाद व राष्ट्रवाद की इससे सुंदर और मनोरम झांकी और कोई हो भी नहीं सकती। इस झांकी को शेष संसार अपने यहां उतारना चाहता है तो उसे भारत की शरण में आना ही पड़ेगा।
बच्चों का बौद्घिक परीक्षण
हमारे गुरूकुलों में प्राचीनकाल में बच्चे का ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ कर उसे प्रवेश दिया जाता था। गुरूकुल के आचार्य इस समय बच्चे का बौद्घिक परीक्षण किया करते थे और यह पता लगाते थे कि उसकी रूचि क्या है? वह अपने जीवन में क्या बनना चाहता है? और कैसी उसकी सोच है? इन सब बातों का पता करके आचार्य बच्चे का वर्ण तक निश्चित कर लेते थे। तब उसे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। यज्ञोपवीत संस्कार के समय आचार्य अपने शिष्य को अध्ययन काल में पालन हेतु नियमों का उपदेश करता था। उन नियमों को पालन करने में विद्यार्थी सदा तत्पर रहता था क्योंकि उन्हीं से उसका जीवन निर्माण होता था। बच्चे को विद्यालय में रहते हुए भिक्षाटन कराया जाता था-जिससे कि वह अहंकारशून्य बने और विनम्र बने। साथ ही उसे यह भी पता चले कि तेरे निर्माण में सारे समाज का योगदान है। अत: तुझे आचार्य कुल से बाहर निकलकर सर्वसमाज के कल्याण के लिए कार्य करना है।
बच्चे बनाये जाते थे जनसेवी
बच्चे विद्यालयों में स्वयं झाडू लगाते थे, अपना काम अपने आप करने का संस्कार उनमें पड़ता ाथा। जबकि आजकल यह व्यवस्था पलट गयी है। आज की प्रचलित शिक्षा प्रणाली में बच्चों को भिक्षाटन की बात तो छोडिय़े उसे अपना काम अपने आप कराने का अभ्यास भी नहीं कराया जाता। यदि ऐसा होता है तो उसे अनैतिक और अवैधानिक मानकर अभिभावक लोग ही विद्यालयों और स्कूल प्रबंधन के विरूद्घ न्यायालयों में चले जाते हैं। यह प्रवृत्ति खतरनाक है। इसके कारण बच्चों में हठीलापन, अहंकार और एक दूसरे के काम न आने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जिससे समाज का वातावरण बोझिल बन रहा है। विद्यालयों में कार्यरत अध्यापक व अध्यापिकाएं अपना सम्मान बचाये रखने के लिए बच्चों के साथ वैसा ही व्यवहार करने के लिए विवश हैं जैसा वे अपने लिए चाहते हैं।
आचार्यों का आदर्श आचरण
हमारी गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली की अगली विशेषता थी-हमारे अध्यापकों का या आचार्यों का आदर्श आचरण। आचार्य लोग आचरणशील होते थे। उनका व्यक्तित्व तपस्या की भट्टी में पडक़र निर्मित होता था। बड़ी कठोर साधना के पश्चात वे आचार्य पद पर नियुक्त होते थे। इसके लिए कोई प्रतियोगिता नहीं थी, अपितु एक साधना थी कि मुझे अपने बच्चों से झूठ बोलना छुड़वाना है-तो पहले मैं झूठ नहीं बोलना सीखता हूं। मुझे अपने विद्यार्थियों से मद्य, मांस आदि विकारों से बचकर चलने को कहना है-तो ऐसा पहले मैं स्वयं करता हूं, मुझे अपने बच्चों को चोरी-जारी से बचने के लिए कहना है-तो ऐसा पहले मैं करता हूं। हमारी हर सामाजिक शिष्टाचार (भोजन पानी ग्रहण करते समय) में सदा ‘पहले आप’ कहा जाता रहा है, परंतु जब बात आचरण की आती थी-तो यहां भारत की महानता झलकती थी कि आचार्य लोग कहते थे- ‘पहले मैं।’
आज की हर प्रतियोगिता इस ‘पहले मैं’ से उत्तम नहीं हो सकती। हमारी इस प्रतियोगिता में हम अपनी दृष्टि में अपने आप ही उत्तीर्ण होने अनिवार्य हंै-हमारा कोई प्रतियोगी नहीं है। ‘मैं’ से ‘मैं’ की बात होती है, आत्मा से आत्मा का संवाद चलता है और व्यक्ति अपने आप ही अपने लिए सी.सी. कैमरे लगा लेता है-अपना ही परीक्षण करने के लिए। अपना ही ध्यान रखता है कि-”मैं कहीं भी फिसलूंगा नहीं सदा सावधान रहूंगा, और सदा इस बात के लिए प्रयासरत रहूंगा कि अपने विद्यार्थियों के लिए आदर्श बन सकूं।”
ऐसे आदर्श आचरणशील आचार्य को पाकर हमारे विद्यार्थी अपने आपको धन्यभाग मानते थे। ऐसे आदर्श आचरणशील अध्यापक ही वास्तविक राष्ट्रनिर्माता माने जाते थे। भारत में गुरूओं का सम्मान करने की अनोखी और महान परम्परा का कारण यही है कि भारत में उन्हें राष्ट्र का वास्तविक निर्माता माना जाता है, धर्म का स्रोत माना जाता है और संस्कृति का उन्नायक माना जाता है। ऐसे लोग हर काल में पूजनीय रहे हैं। विदेशों के विषय में यह दावे से कहा जा सकता है कि वहां किसी भी देश में वास्तविक राष्ट्रनिर्माता आचार्यों की उत्कृष्ट परम्परा कभी नहीं रही।
विद्याओं की समन्वयात्मक प्रणाली
भारत की गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली की एक उत्तम विशेषता यह भी थी कि हमारे गुरूकुलों में भौतिक व आध्यात्मिक विद्याओं की समन्वयात्मक प्रणाली को अपनाया जाता था। हमारी शिक्षा प्रणाली में भौतिकवाद और आध्यात्मिकता दोनों को ही मानव जीवन के लिए आवश्यक माना गया है। निरा भौतिकवाद भी उचित नहीं है, और केवल अध्यात्मवाद से भी पेट नहीं भर सकता। यही कारण था कि हमारे गुरूकुलों में बच्चे के बौद्घिक विकास को दो पक्षों में या रूपों में देखकर संवारा जाता था। एक रूप था-कौशल विकास का। इसमें बच्चे को भौतिक रूप से उन्नति करके जीवन को ऐश्वर्यपूर्ण ढंग से जीने के लिए प्रेरित किया जाता था, तो दूसरा पक्ष था-आत्मिक विकास का। आत्मिक विकास में बच्चे का आध्यात्मिक मार्गदर्शन किया जाता था। यदि कौशल विकास बच्चे की बहुर्मुखी प्रतिभा को निखारकर उसे बाह्य जगत की सारी समस्याओं का समाधान खोजने के लिए प्रेरित करता था तो आत्मिक विकास उसे भीतरी जगत के जंजाल को समझने और वहां आत्मा के आलोक में अपना पथ अपने आप खोजने की प्रेरणा देता था।
हमारी शिक्षा धर्म के अनुकूल थी। धर्म स्वयं भी मनुष्य के भीतरी और बाहरी जगत का संगम है, समन्वय है और ऐसा समन्वय है जो हर मनुष्य के भीतरी और बाहरी जगत की हर समस्या का समाधान लिए खड़ा रहता है। धर्म की इस ऊंचाई को पाकर हर साधक आत्मा के आलोक में कार्य करने का अभ्यासी हो जाता है। वह अपना दीपक अपने आप बन जाता है। उसे किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं रहती। आज की प्रचलित शिक्षा प्रणाली में यह भी दोष है कि वह विद्यार्थियों का बौद्घिक करते समय उसके अंतर्जगत में झांकने का प्रयास नहीं करती। इसका कारण यह है कि आज के विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नियुक्त अध्यापक प्रवक्ता और प्राध्यापकों के स्वयं के भीतरी जगत में घुप्प अंधेरा है। अब जो स्वयं आत्म प्रकाश से विहीन है वह किसी अन्य को आत्म प्रकाश से कैसे अवगत करा सकता है?
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत