मेवाड़ के शूरमा : जयमल और फत्ता
मेवाड़ की शौर्य गाथा में जयमल और फत्ता का भी विशेष और महत्वपूर्ण स्थान है। जब अकबर ने 1567 ई0 में मेवाड़ पर दूसरी बार आक्रमण किया तो उस समय इन दोनों महावीर योद्धाओं ने अपना विशेष पराक्रम दिखाकर इतिहास में अपना नाम अमर किया। उनके पराक्रम के वर्णन के बिना 1567 ईस्वी के उस युद्ध का कोई महत्व नहीं रह जाता है। महाराणा उदय सिंह को उस समय इन दोनों की वीरता के कारण बहुत अधिक संबल मिला था। इन दोनों के कारण ही उस समय मेवाड़ अपने सम्मान को सुरक्षित रखने में किसी सीमा तक सफल रहा था। इसके अतिरिक्त अकबर जैसे शत्रु को भी इन दोनों वीर योद्धाओं के कारण यह पता चल गया था कि भारत का पराक्रम क्या है ? उस समय जयमल की वीरता और शौर्य की दूर-दूर तक भक्ति। मां भारती का यह सच्चा सपूत उस समय अकबर जैसे शत्रु से जिस वीरता से लड़ा था उसे देखकर अकबर ने भी दांतो तले उंगली दबा ली थी। उसकी वीरता की कहानियां आज भी मेवाड़ में घर-घर में सुनी जा सकती हैं। जिससे यह पता चलता है कि वह अपनी वीरता के कारण समकालीन इतिहास में कितना लोकप्रिय था ?
भारत मां की शान हैं , जयमल – फत्ता वीर।
वीरता की खान थे और धीर- वीर – गंभीर।।
जयमल के साथ युद्ध में उसका 16 वर्षीय भाई फत्ता भी अपना सहयोग दे रहा था। दोनों भाइयों ने उस ऐतिहासिक युद्ध में शत्रु पर कहर की वर्षा की थी। उनकी वीरता पर प्रकाश डालते हुए स्वामी आनंद बोध सरस्वती जी ने अपनी पुस्तक “महाराणा प्रताप” के पृष्ठ 41 पर लिखा है : – “राजपूत सेना खूब जी तोड़कर लड़ी और इस प्रकार घनघोर युद्ध हुआ कि बहुत दिन तक कुछ भी सफलता नहीं मिली। अंत में सुरंग लगाने का विचार हुआ। सुरंग तैयार करने के बाद इसमें बारूद भर दिया गया। इस में आग लगाने के बाद हुए विस्फोट से दोनों पक्षों को बहुत क्षति हुई। 6 महीनों तक किला घिरा हुआ था। राजपूत बड़ी वीरता से प्राणों को हथेली पर रखकर लड़ते थे। इससे किला विजय नहीं हो पाता था।
इस युद्ध में जयमल की पत्नी तारा बाई ने अद्भुत वीरता का काम कर दिखाया। उसने युद्ध में भाग लिया और अपनी बहादुरी से सेना में हड़कंप मचा दिया। इस क्रम में वह दो बार अकबर पर दो वार करने में सफल रही यह उसका दुर्भाग्य था कि दोनों वार खाली चले गए। अंत में जयमल अकबर के तीर से वीरगति को प्राप्त हो गया तो उसका भाई फत्ता आगे बढ़ा और उसने अपनी सेना को जोश से भर दिया किंतु अंत में वह स्वयं आगे बढ़कर लड़ता हुआ मारा गया। हां, जयमल और फत्ता की बहादुरी को अकबर भी मान गया और सम्मान स्वरूप पत्थर की आदमकद मूर्ति बनवाकर उसने किले के द्वार पर खड़ी कर दी। सबसे अंत में वीर जयमल की पत्नी किले के बाहर आई और शत्रुओं को मारती और काटती हुई अपने पति की सहगामिनी हुई।”
जयमल की पारिवारिक पृष्ठभूमि
इस वर्णन से स्पष्ट है कि जयमल और फत्ता का पूरा परिवार ही वीर योद्धाओं का परिवार था। सचमुच वह वीरांगना अभिनंदन की पात्र है जिसने सीधे जौहर न करके अनेक शत्रु सैनिकों को दोजख की आग में झोंक दिया था। उसने अकेला मरना उचित नहीं माना। इसके विपरीत अनेक शत्रुओं का अंत करके आत्म दान देना उचित माना।
ताराबाई धन्य थी, धन्य था उसका कृत्य।
राष्ट्र नमन करता उसे हो करके कृतकृत्य।।
जयमल फत्ता का संबंध मेड़ता से था। जब मालदेव ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया, तब जयमल का मेवाड़ महाराणा उदयसिंह के पास चला गया था। महाराणा ने उसे सम्मान प्रदान करते हुए बदनौर की जागीर प्रदान की।1562 ई0 में उसने मेड़ता पर पुनः अधिकार स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। उसके पश्चात मुगल सम्राट अकबर ने जयमल के राज्य मेड़ता पर अधिकार करने के लिए अपनी सेना भेजी। इसके पश्चात जयमल एक बार पुनः मेवाड़ में महाराणा उदय सिंह के पास लौट आया। जब 1567ई0 की सीमा अकबर नहीं मेवाड़ पर दूसरी बार हमला किया तो उस समय महाराणा उदय सिंह ने जयमल की वीरता से प्रभावित होकर उसे चित्तौड़ दुर्ग की रक्षा का दायित्व सौंपा था। अपने इस दायित्व को निभाने में जयमल ने पूरी निष्ठा से कार्य किया था। वह मातृभूमि के प्रति पूर्णतया समर्पित था और वह जानता था कि मां का ऋण प्राण देकर भी नहीं चुकाया जा सकता। वीरता उन दोनों भाइयों के भीतर कूट-कूट कर भरी हुई थी।
देश के हित जान देकर नाम रोशन कर गए
वीरता के ओज से , वे देश को थे भर गए ।
कौन कहता जान देकर दोनों बंधु मर गए,
ध्यान से देखो तनिक ! वे तो हो अमर गए।।
यह घटना 26 अक्टूबर 1567 के दिन की है। जब जयमल और फत्ता ने अपने स्वामी महाराणा उदय सिंह को अन्य सरदारों व सामंतों के साथ परामर्श करने के उपरांत किले से बाहर निकाल दिया था। महाराणा को किले से बाहर निकालने का अर्थ था कि अब अपने आपको आत्म बलिदान के लिए तैयार कर लेना। वास्तव में महाराणा को कीले से बाहर निकालने के क्षण उसी समय आए थे जब राजपूतों के बचने की कोई संभावना नहीं रही थी। केसरिया साफा बांधकर अगले दिन केवल मौत का आलिंगन करना था। बस , देखना केवल यह था कि मौत का आलिंगन करते समय भी कितनी वीरता का प्रदर्शन किया जा सकता है? कहना न होगा कि महाराणा को किले से बाहर निकालने का अर्थ अपनी मृत्यु के फरमान पर अपने आप हस्ताक्षर कर लेना था।
हम कितने सौभाग्यशाली हैं ….
सचमुच हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पूर्वजों के लिए अपनी मृत्यु के फरमान पर अपने आप हस्ताक्षर करने का सौदा सदा बड़ा सस्ता रहा। जिसे शेष संसार सबसे महंगा सौदा कहता है उसे हमारे पूर्वजों ने सबसे सस्ता बनाकर रख दिया था। हथेली पर जान रख कर लोग इश्क के लिए चलते हैं, जबकि हमारे पूर्वज हथेली पर जान रखकर वतन की हिफाजत के लिए चलते थे।
जयमल और फत्ता के पास 8 हजार सैनिकों की मेवाड़ी सेना साथ में थी। सेना का उत्साह देखते ही बनता था। वैसे भी अभी कुछ समय पूर्व ही अकबर की मुस्लिम सेना को मेवाड़ की सेना ने मारकर भगाया था। इसके अतिरिक्त शत्रु के प्रति सात्विक उत्साह रखकर उसके विनाश के लिए संकल्पित होना भारत की सेना की प्राचीन परंपरा रही है। अकबर इस बात की प्रतीक्षा में था कि महाराणा उदय सिंह किले के फाटक खोलें और बाहर आकर मैदानी लड़ाई लड़ें। जबकि महाराणा के पास पर्याप्त रसद होने के कारण वह किले के भीतर ही रहना पसंद कर रहे थे।
जब अकबर ने देखा कि महाराणा फाटक नहीं खोल रहे हैं तो उसने किले की दीवारों पर गोले बरसाने आरंभ कर दिये। जयमल एक अच्छे निर्माता भी थे। उन्हें निर्माण कला का अच्छा ज्ञान था। वह रात्रि में किले की उन सारी दीवारों की मरम्मत करवा देते थे जिन्हें अकबर के सैनिक दिन में अपने तोप के गोलों से तोड़ने में सफल होते थे। इससे शत्रु सेना के लिए जयमल ने एक बहुत बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी। अकबर समझ नहीं पा रहा था कि अब उसे क्या करना चाहिए? किले के फाटक को तोड़ने में वह सफल नहीं हो पा रहा था और यदि दीवारों को तोड़कर रास्ता बनाकर भीतर जाने का प्रयास कर रहा था तो उसे जयमल पूर्ण नहीं होने दे रहा था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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