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भारतीय संत परंपरा में सामाजिक समरसता**

भारतीय सनातन संस्कृति में साधु, संत, ऋषि, मुनि, आचार्य परंपरा का वर्णन हजारों साल पहले से मिलता है। सनातन धर्म और संस्कृति में जितने भी अवतार हुए हैं, सभी ने किसी ने किसी ऋषि मुनि के आश्रम में जाकर शिक्षा प्राप्त करने का वर्णन से सनातन धर्म को मानने वाले भली भांति परिचित है। त्रेता युग में भगवान श्री राम ने महाऋषि वाल्मीकि आश्रम और द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने सांदीपनि आश्रम में जाकर शिक्षा प्राप्त की है। राम चरित्र मानस में कहा गया है कि “जब होई धरम की हानी, बाढ़हि असुर अधम अभिमानी । तब-तब धरि प्रभु विविध शरीरा, हरहि दयानिधि सज्जन पीरा ।।” इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत भूमि पर जब भी समाज अथवा धर्म अथवा संस्कृति अथवा सभ्यता पर संकट आया, तब किसी अवतारी पुरुष ने इस धरा पर जन्म लिया और जनता के संताप हरे हैं ।
ज्ञातव्य है कि पंद्रहवीं और मध्य उन्नसवीं वीं शताब्दी तक मध्य एशिया के भू भाग और सनातन धर्म पर परदेशी आक्रांताओं के कारण धर्म, समाज और भूभाग तीनों पर संकट के बादल छाए हुए थे। इन चार सौ साल को हम भारत भू और सनातन का संक्रमण काल कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! भूभाग की रक्षा राजा महाराजाओं के हाथ में थी। धर्म की रक्षा ऋषि , मुनि और संतों के हाथों में थी। गांव- शहर में समाज का हाल देखने वाला कोई नहीं था। समाज में धर्मांतरण का बोलबाला था। हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था कठोर से कठोरतम होती जा रही थी । समाज जातियों, उप जातियों, तथा शंकर वर्ण जातियों में विभाजित होता जा रहा था। इस भ्रम को दूर करना तथा जाति और समाज को अपने पूर्वजों के धर्म से जोड़े रखने की गरज से देश-काल – समय के अनुसार संतों का प्रादुर्भाव, प्रवर्तन एवं विकास हुआ और होता रहेगा।
“संत” शब्द ‘सत॒’ शब्द के कर्ता कारक का बहुवचन है। संस्कृत के ‘शांत’ का अपभ्रंश “संत” शब्द है। हिंदू धर्म तथा अन्य धर्मों में ‘संत’ उस व्यक्ति को कहते हैं जो सत्य आचरण करता है तथा आत्मज्ञानी होता है। उन्हें कई और नामों से भी पुकारा जाता है। जैसे साधु, सन्यासी, विरक्त, त्यागी, योगी, महात्मा आदि आदि। ईश्वर के भक्तों और धार्मिक पुरुष को भी संत की संज्ञा दी जाती है । जो व्यक्ति संसार और आध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है, वही संत है।
संत परंपरा में संतों की पहचान बताई गई है, जो इस प्रकार है : संत पराई संपत्ति और पराई स्त्री से दूर रहते हैं। दूसरों की भलाई करना अपना धर्म मानते हैं।
किसी को कड़वा वचन नहीं बोलते हैं।
किसी का अहित नहीं सोचते हैं। संतों में शालीनता का अक्षय भंडार होता है। संत शांत स्वभाव के होते हैं। संत होना एक तरह का ‘मानवीय मूल्य’ और ‘मानवीय गुण’ है। सच्चे संत हमेशा अपने अनुयायियों को सच्चे मार्ग की ओर ले जाते हैं। संपूर्ण समाज में प्रेम और समरसता प्रदान करने की चेष्टा करते हैं। ईश्वर एक है इस बात की पुष्टि में समाज के सामने अनेकानेक उदाहरण और साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
संतों की इन महान और पवित्र खूबियों के कारण ही यह भू भाग पांच सौ साल के संक्रमण काल से गुजरने के बाद भी आज भारत बना हुआ है ! भारत में धर्म है। सामाजिक समरसता है । आपसी भाईचारा है। सोहार्दता है। सहिष्णुता है और इन सबसे बढ़कर अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है।
भारत में स्वामी अवधेशानंद गिरी जो कि जूना अखाड़ा के महामंडलेश्वर और प्रथम पुरुष माने जाते हैं, को ‘प्रथम संत’ की संज्ञा से पुकारा गया है। श्री गुरु राधवेंद्र स्वामी प्रभावशाली वैष्णव वाद और माधवाचार्य के द्वैत दर्शन की वकालत करने वाले को ‘महान संत’ की उपाधि दी गई है। संत गाडगे बाबा जिन्होंने संपूर्ण महाराष्ट्र में एक अनोखी सामाजिक समरसता की अलख जगाई, को हम ‘राष्ट्रीय संत’ की उपाधि दे सकते हैं। इसी परंपरा में डाकू रत्नाकर से संत बने महर्षि वाल्मीकि को ‘महान अवतारी संत’ कहकर पुकारना चाहिए। संतों की अटूट परंपरा में गुरु रविदास जी जिन्हें “संत शिरोमणि” की उपाधि प्राप्त है, का संपूर्ण हिंदू समाज का महान संत कहकर पुकारना चाहिए। संतों की परंपरा में गुरु रविदास जी का संपूर्ण हिंदू समाज और विशेषकर वर्ण व्यवस्था में चौथे पायदान का समाज उनका सदैव ऋणी रहेगा। इस महान संत ने भगवान की भक्ति में समर्पित होने के साथ-साथ अपने समाज और पारिवारिक कर्तव्यों को बखूबी निभाया है। उन्होंने लोगों को भेदभाव से दूर रहने और प्रेम, सद्भाव फैलाने की शिक्षा दी। उस समय ब्राह्म्णवादी से पंगा लेते हुए कह डाला :”ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुण हीन, पूजिए चरण चांडाल के जो होते गुण परवीन।” सामाजिक समरसता को प्रगाढ़ करते हुए रविदास जी कहते हैं :”मन ही पूजा मन ही धूप, मन ही सेऊं सहज स्वरूप।”
संत कबीर के बारे में कौन नहीं जानता। उन्होंने तो ताल ठोक कर एक तारा के बल पर पंद्रहवीं वीं शताब्दी के सामाजिक ढकोसले वाली व्यवस्था को ललकारा। उन्होंने हिंदू धर्म की बुराइयों को उजागर किया और कुठाराघात करते हुए कह दिया कि “पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पुजू पहाड़”। उस समय इस्लाम को मानने वाले राजा – नवाबों से भी नहीं डरे और दमंगता के साथ कह दिया कि ‘कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।”
बाबा गुरु घासीदास जी उस समय के महान संत है जब जनता शोषित और पीड़ित थी। दलित समाज में विचित्र छटपटाहट थी। गरीबों को रोटी, कपड़ा और मकान के लिए भयंकर संघर्ष करना पड़ रहा था । शोषित पीड़ित और उपेक्षित समाज जातियों और उपजातियों में बटा हुआ था और छुआछूत तथा धर्म परंपराओं के बाहरी आडंबर में फंसा हुआ था। इन सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करते हुए संत घासीराम का कहना था कि “ईश्वर सत्य है, निर्गुण और निराकार है। सत्य को आचरण में उतारो। सतनाम पर विश्वास करके हम मानव जीवन को सार्थक कर सकते हैं। बाह्य आडंबरों से बच सकते हैं। जब ईश्वर सत्य है और प्रकृति का रूप है, तब मुर्ति पूजा क्यों ? मुर्ति पूजा आस्था का आडंबर है। ईश्वर प्रकृति है और प्रकृति ही ईश्वर।” यही कारण है की सतनाम के अनुयायी गाते हैं-‘‘मंदिरवा मा का करेबर जइबोन, घर के देवे ला मनइबोन।”
राम चरित्र मानस के रचयिता संत तुलसीदास जी एक महान समरसता अंकुरण, प्रस्फुटन और प्रगाढ़ता के धनी और महारथी माने जाते हैं। उनके द्वारा लिखी गई चौपाइयों में राम के माध्यम से एक भाई, एक राजा, एक पति और एक प्रजा पालक कैसा होना चाहिए? इसका बखूबी वर्णन किया है। लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न और सीता जी का त्याग ऐसा संदेशा है जो युगो युगो तक :इंसान को इंसान’ बनाए रखने में मददगार होगा। हनुमान जी द्वारा भगवान श्री राम की भक्ति, भक्ति काल की सेवा और भक्ति भाव की पराकाष्ठा है ।
आशा की जाती है कि काल प्रवाह में ऊहापोह भरी जिंदगी जीते हुए हम भारतीय समरसता को संभालने में कामयाब रहेंगे। हिंदू धर्म में काल प्रवाह के दौरान जो गलतियां हुई । हमने अपने भाई को अपने से दूर किया। उन्हें कुछ ऐसे कार्य करने के लिए विवश किया जो अमानवीय था । जिसके कारण हमारी राम, कृष्ण, गोतम, महावीर गांधी और अम्बेडकर की समरस धारा सिकुड़ती गई।अब 21वीं सदी के तीसरे दशक में समय आ गया है कि हम सब भारतीय समरसता की धारा को पुनः गंगा जमुना के निर्मल नीर की तरह अविरल बहाएं।

डॉ बालाराम परमार’हंसमुख

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