आज की शिक्षा बच्चे को बड़ा होकर धनी बनाने के लिए दिलायी जाती है, जबकि भारत में इसके विपरीत था। यहां तो वेद (यजु. 2/33) की व्यवस्था है :-

”(विद्यार्थी के माता-पिता उसके गुरू से निवेदन कर रहे हैं) हे गुरूजनो! कमल पुष्प की माला पहने इस बालक को अपने गुरूकुल में स्वीकार करें, जिसमें यह मानवीय गुणों को धारण कर वास्तव में मानव बन जाए।” 
अब से कुछ समय पूर्व तक भी बच्चे के विद्यालय प्रवेश के समय अभिभावकजन अध्यापकों से ऐसा ही निवेदन करते रहे हैं कि आप मुझे इस बच्चे को मनुष्य बनाकर दे देना। इसका अभिप्राय था कि भारत की शिक्षा प्रणाली मानव निर्माण करने वाली रही है। यजुर्वेद (40,11) में आया है कि अविद्या से संसार सागर को पार कर विद्या से अमृत तत्व प्राप्त किया जाता है। सांसारिक जीवन के दायित्वों को पूर्ण करने के लिए शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द ज्योतिष, निरूक्त एवं अन्य विषयों का ज्ञान प्राप्त किया जाए, तथा (वेद उपनिषद आदि के द्वारा) अक्षर ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त किया जाए तो मोक्ष की प्राप्ति कराये।
चोटी में गांठ लगाने का अर्थ
हमारे विद्यालयों में या गुरूकुलों में विद्यार्थी अपनी चोटी में गांठ लगाकर अध्ययन करता था और आचार्यादि चोटी को और सिर के बालों को खुला रखते थे। बच्चों या विद्यार्थियों के द्वारा चोटी में गांठ इसीलिए लगायी जाती थी कि वे अपने संकल्प को और जीवनव्रत की अपनी कठोर साधना को सदा स्मरण रखें। जबकि हमारे आचार्य लोग विद्याग्रहण कर सभी बंधनों से मुक्ति का मार्ग खोज लेते थे, इसलिए वे ‘बंधन मुक्त’ रहते थे। उन्हें उनके खुले बाल यह बताते थे कि अब उनके लिए सीखने के लिए शेष कुछ नहीं बचा। अत: अब उन्हें ऐसे कर्म करते रहना है जो उन्हें कर्मबंधन से मुक्त किये रखे। शिक्षा का ऐसा पवित्र उद्देश्य और उसका ऐसा पवित्र व्रत सचमुच प्रशंसनीय और अनुकरणीय माना जाना चाहिए।
भारत का अनुकरणीय राजधर्म
अब्बे डूबस नामक विदेशी विद्वान का मत है कि-”भारत विश्व का झूला है। यह आदि माता है, जो कि अपने पुत्रों को सभी देशों में भेजती रही है, चाहे वे पश्चिम की अनंत सीमा पर स्थित हों। इसी बात से अविकल सिद्घ है कि हमारा पश्चिम वालों का निकास कहां से है? भारत के चिंतन से ही हिब्रू, ग्रीक तथा रोमन कानून और अर्थतंत्र का विकास हुआ है।”
कोलब्रुक जैसे विद्वान का भी कहना है-”ईसाई चिंतन में ऐसा कोई भी तो विचार नहीं है- जिसका मूलस्रोत एक न एक हिंदू दर्शन न कहा जा सके। चाहे पाईथागोरस और प्लेटो की हिंदू प्रभावित हीलिनिज्म हो, चाहे गुरटोक का यज्दा दर्शन हो, चाहे कविलिस्ट का यहूदी दर्शन हो, चाहे मूरों का हिंदुत्व से भरा इस्लामी चिंतन और चाहे इंग्लैंड का हिंदुत्व से पूर्ण सोसनियन चिंतन या आत्मनिष्ठता-सभी के सभी आदि के हिंदू चिंतन से प्रभावित हैं।”
ये दोनों उद्घरण भारत के गौरवपूर्ण अतीत का हमें दिग्दर्शन कराते हैं और बताते हैं कि किस प्रकार हमने ‘विश्वगुरू’ रहते हुए विश्व का मार्गदर्शन किया है। उस मार्गदर्शन का ही परिणाम है कि आज के विश्व की प्रत्येक सदपरम्परा में भारत की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है।
सभी देशों के अधिकतर नामचीन विद्वानों ने भारत के दर्शन और शिक्षानीति की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है, इतना ही नहीं उन्होंने भारत को विश्व का झूला कहकर यह भी बताने का प्रयास किया है कि भारत ही आज के विश्व का मार्गदर्शक हो सकता है।
यह एक सर्वसम्मत सिद्घांत है कि बच्चे सदा अपने बड़ों का ही अनुकरण किया करते हैं। हर बच्चा अपने से बड़ों को देखकर चलना, बोलना सीख जाता है और बड़ा होकर वैसे ही कार्य करने की चेष्टा करता है जैसा उसके परिवार के बड़े लोग माता-पिता आदि करते आये हैं, या उसके सामने सामान्यतया करते हैं। भारत नेे ज्ञान-विज्ञान को लेकर अपने पुत्रों को संसार में इधर-उधर भेजा और सारे संसार को ज्ञान मार्ग बताया तो इस दृष्टि से भारत सारे संसार की मां है। भारत ने ही शेष संसार को उंगली पकडक़र चलना सिखाया-इसलिए भारत ही शेष विश्व का पिता है और भारत ने शेष संसार को ज्ञान देने का कार्य किया इसलिए सारे संसार का गुरू भी भारत ही है। कालांतर में भारत के पराभव के काल में जब भारत का सम्पर्क अन्य देशों से कटा तो भौतिक रूप से भारत चाहे उनसे दूर हो गया पर भारत के ज्ञान-विज्ञान की परम्पराएं उन देशों का देर तक मार्गदर्शन करती रहीं और भारत से कटे हुए देश अपने ‘बड़े’ अर्थात भारत का अनुकरण करने का प्रयास करते रहे। यह अलग बात है कि शेष विश्व भारत के ज्ञान-विज्ञान की परम्पराओं को उनके मौलिक स्वरूप में संजोकर रख नहीं पाया। काल के प्रवाह में वे परम्पराएं विद्रूपित हो गयीं, और सारे संसार की व्यवस्था कुव्यवस्था में परिवर्तित हो गयी। पर फिर भी ऐसे अनेकों स्पष्ट प्रमाण हैं जिन्हें यदि जोडक़र देखा जाए तो स्पष्ट पता चल जाएगा कि भारत ने विश्व को सब कुछ दिया है और भारत का अनुकरण करने में विश्व के अपने आपको धन्य भाग माना है।
वेद की अपौरूषेयता और विश्व के अन्य धर्मग्रंथ
अब आप देखें कि भारत ने अपने वेद ज्ञान को अपौरूषेय माना है, उसकी भाषा भी अपौरूषेय है और विज्ञान भी अपौरूषेय है। इसी बात का अनुकरण करते हुए संसार के जितने भर भी धर्मग्रंथ आये हैं, उन सबको भी उनके अनुयायियों ने अपौरूषेय सिद्घ करने का प्रयास किया है। जिससे कि उनके प्रति भी सम्मान लोगों में वेद के समान ही रहे।
डा. रामेश्वर दयाल गुप्त अपनी पुस्तक ‘वैदिक राजदर्शन’ में लिखते हैं-”महाराज कृष्ण के जीवन में ही यादवों में गृहयुद्घ हुआ था और उसमें कृष्णजी स्वयं बहेलिया के बाण से मारे गये थे। तदनंतर द्वारिका तट से यादवों की टुकडिय़ां 3000 वर्ष तक समुद्र मार्ग से मध्येशिया और मिश्र में जाकर बसती रहीं।
राजा अजापति ने इजिप्ट को बसाया था। कर्नल अलकाट का भी यही मत था कि 5000 वर्ष पूर्व भारतीयों ने आकर मिश्र में राज्य स्थापित किया था। अफ्रीका प्रभूति देशों का नामकरण भारत के प्रांत अंग (अंगोलिया) बंग (बेनेजुएला) कलिंग (कांगो) के नाम पर हम देखते हैं। यादवों का अपभ्रंश ही ज्यू शब्द है तथा ग्वाल से (शब्द) (Gaul) और अहीर से इब्रानी पुरूवंशी से पारीशी, सरसेनी से सरेसेन अर्थात सीरियन जातियां बनी हैं। स्वयं विष्णु पुराण के अंतर्गत श्रीमद्भागवत में आया है कि कृष्ण ने लोहित झील जाकर वरूण को जीता था। यही लाल सागर था। वे यूरोप में भी शनै: शनै: फैले और अपने साथ कृष्ण की कथाएं लेते गये। पाली भाषा में कृष्ण को क्रीष्ट कहा गया है। अत: मिश्र प्रभृति देशों में बसने वाले यादवों ने यत्र-तत्र कृष्ण की गाथा अंकित की थी। 1700 ई. पूर्व में बने मेशविन के मंदिर में यह जीवन गाथा अंकित है पर उसमें जन्मगाथा कृष्ण की तथा मृत्युगाथाएं कंस की हैं, इन्हीं से क्रीष्टु जन्म गाथा परिकल्पित की गयी, अन्यथा 1700 ईसा पूर्व के मंदिर में ईसा की जीवनगाथा कैसे पहुंची? जिसका उल्लेख जिनाल्ड मसी ने ‘एन्शिएण्ट ईजिप्ट’ के इतिहास में भी किया है। बाद में प्रगटित ओल्ड टेस्टामेण्ट सीरियन भाषा में न होकर ग्रीक भाषा में है जो कि संस्कृत परिवार की है। मिश्र में क्रीष्ट पंथ (Essenee of egypt) द्वारा स्थापित हुआ था और (Scrphis) के मानने वालों को ही क्रिश्चियन कहते थे। क्रास का चिन्ह क्रास तीर द्वारा कृष्ण के वध पर हुई कृष्ण की आकृति है? यादवों के परिवार को (Juda) कहते थे?
क्रमश:

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