एक मां के गर्भ में आना दूसरे के यहां पैदा होना, देश छोडक़र भेजा जाना, रास्ते में नदी की सूचना, तत्कालीन राजा द्वारा बच्चों का वध गौ और मधु दोनों का प्रेम यह कृष्ण और क्राइस्ट की सब समान गाथाएं हैं। पर वध की कहानी कंस से मिलती है। क्राइस्ट की शिक्षाओं में वैष्णव परम्परा और बुद्घ के पहाड़ी पर के उपदेशों का समन्वय है। जैसा कि जस्टिस जकोलाइट ने अपनी पुस्तक ‘बाइबिल इन इंडिया’ में कहा है।…..यहूदी इतिहासकर फीलो ने लिखा है कि मिश्र देश में सब धर्मों के मानने वाले थे और उनके यहां मठ थे। इनमें पूर्व से आये ब्राह्मण भी थे जो चितपावन ब्राह्मण थे और जो कृष्ण के उपासक थे। यज्ञोपवीत का ही अपभ्रंश बपतिस्मा की प्रथा है। सीरियन ईसाई अब भी श्राद्घनामकरण आदि संस्कार करते हैं तथा विवाह पर ग्रन्थिबंधन भी करते हैं। यहूदी धर्म यज्ञमय था और उसमें पुरीहितों का प्राधान्य था।”
अपनी मां और मार्गदर्शक भारत से जैसे-जैसे शेष विश्व का संपर्क कटता गया वैसे-वैसे ही वहां भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराएं निष्प्राण होती गयीं। उचित मार्गदर्शन न मिलने से लोग प्रचलित परम्पराओं को अतार्किक और अवैज्ञानिक ढंग से अपनाने लगे। पर देखने वाली बात ये है कि इसके उपरांत भी उनका लगाव भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं से बना रहा। वे भारत को ही अपना गुरू मानते रहे और उसके प्रति ‘एकलव्य भक्ति’ में डूबे रहे। अपनी ‘एकलव्य भक्ति’ का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने मानो भारत की मूत्र्ति बनाकर ही अपनी साधना जारी रखी। बस अंतर केवल इतना रहा कि महाभारत का ‘एकलव्य’ अपनी विद्या को प्राप्त करने में सफल रहा था पर भारत को द्रोण मानकर साधना कर रहे शेष विश्व के देश अपने आपको ‘एकलव्य’ की भांति सफल नहीं रख सके। इसका कारण यही था कि कुछ परिस्थितियोंवश और विशेषत: महाभारत के पश्चात इन देशों से भारत का संपर्क कट गया था। दूसरे, विदेशों में कई नये संप्रदाय उत्पन्न हो गये उन्होंने अपने आपको वैदिक मत के विपरीत सिद्घ करने का प्रयास किया। फिर भी उपरोक्त उद्घरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि पूर्ण मनोयोग से पुरूषार्थ किया जाए तो सारे विश्व की धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक सभी परम्पराओं के मूल में भारत की ज्ञान-परम्परा ही खड़ी है।
शेष विश्व के देशों ने मजहब खड़े तो किये पर उन्हें वे धर्म नहीं बना सके। यह उनकी असफलता रही। उन्होंने मजहब को भारतीय वैदिक धर्म का पर्याय बनाकर विश्व में फैलाने का प्रयास किया और सारी वसुधा को अपने पैरों तले लाने की हर युक्ति भिड़ाई। उन्होंने यह कार्य भी भारत के वैदिक धर्म के विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार में भारत को मिली सफलता के दृष्टिगत ही किया, परंतु उसमें भी वे सफल नहीं हो सके। बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित करके भी वे लोग संपूर्ण वसुधा को एक परिवार नहीं बना सके और न एक रख सके। जबकि भारत ने संपूर्ण भूमंडल को एक ही परिवार मानकर देर तक युग-युगों तक शासन किया। शेष विश्व के देश भारत की नकल करने चले थे, कि सारे विश्व को एक बनाएंगे पर उनकी साधना और साधन दोनों में दोष था इसलिए विश्व को एक बनाते-बनाते अनेक टुकड़ों में बांट बैठे यह उनकी असफलता थी।
भारत ने मानव को मानव बनाने के लिए एक पूरा वर्ण=ब्राह्मण वर्ण तैयार किया। विश्व के अन्य देशों के मजहबों ने अपने पंडित=मुल्ला मौलवी पादरी, फादर आदि तैयार किये पर वे व्यक्ति को धार्मिक बनाने के स्थान पर साम्प्रदायिक बनाते गये यह उनकी असफलता रही। उन्होंने अपनी-अपनी साम्प्रदायिक मान्यताएं लोगों में गहराई से बैठाने का प्रयास किया। इसका परिणाम यह हुआ कि सभी संप्रदायों के लोग एक दूसरे के विनाश की योजनाओं में जुट गये। फलस्वरूप एक समय ऐसा भी आया जब विश्व को निरंतर तीन सौ वर्षों तक धार्मिक युद्घों से जूझना पड़ा।
कहने का अभिप्राय है कि जो लोग मनुष्य को मनुष्य बनाने निकले थे वे उसे मनुष्य न बनाकर हैवान बना बैठे। इससे विदेशियों के ‘एकलव्य’ की साधना असफल हो गयी। ऐसी ही असफलता विश्व के देशों को अन्य क्षेत्रों में भी मिली। जैसे आज के पश्चिमी वैज्ञानिकों ने बनाया तो वायुयान पर उसे बनाते-बनाते लड़ाकू विमान तक ले गये। अब ये विमान हमें तो आकाश में उड़ती हुई मृत्यु नजर आते हैं। कब ये मानवता के विनाश के लिए काल वर्षा करने लगें?-कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार आज के भौतिक विज्ञानियों ने कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए रासायनिक खादों व कीटनाशकों की खोज की। उससे एक बार तो लगा कि धरती के हर व्यक्ति के हिस्से में समृद्घि आने वाली है-पर कुछ देर पश्चात पता चला कि समृद्घि नहीं आकर विनाश की भयंकर आंधी आ चुकी है। आज कृषि उत्पादन भी विषयुक्त हो चुके हैं। इस प्रकार पश्चिम के विज्ञानियों की खोज ही उनके गले की हड्डी बन गयी है। जिस खोज से जीवन मिलने की आशा थी-वही जीवन ज्योति को बुझाने का कार्य कर रही है।
भारत का राजनीतिक चिंतन और विश्व
अब राजनीति के क्षेत्र में आइए। भारत की न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को भुलाकर या उसकी उपेक्षा करके विश्व के देशों ने अपने साम्प्रदायिक विचारों को फैलाने के लिए मजहब का दुरूपयोग किया और साम्प्रदायिक राजतंत्र को अपनाया। इस प्रयास में बड़ी-बड़ी सुप्रसिद्घ विश्व सभ्यताओं को मिटा दिया गया, लोगों की आंखों में एक सपना बसाया गया कि ऐसा करके ही संसार स्वर्ग बनेगा, परंतु परिणाम आशातीत नहीं आये। राजनीति लोगों की आकांक्षाओं, आशाओं और अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर सकी। उसने संप्रदाय के साथ गठबंधन करके जनसंहार करने आरंभ कर दिये। इससे लोगों का मन राजनीति से भी ऊब गया है।
आज राजनीति लोककल्याणकारी राज्य देने की बात करती है, परंतु उसके पास इस व्यवस्था को स्थापित करने के लिए कोई चिंतन नहीं है। संसार में राजनीति पर्याप्त हो रही है-पर फिर भी सर्वत्र अराजकता है। राजनीतिज्ञों ने विश्व में समस्या उत्पन्न करने के लिए ठेके पर खेती करनी आरंभ की (संप्रदाय से गठबंधन करके) और आज समस्याओं का उत्पादन इतना बढ़ गया है। हर गोदाम में उनका ढेर लग गया है, और वे सड़ रही हैं। जिन देशों में भुखमरी फैली हुई है-उनमें राजनीति के गोदाम में लगे समस्याओं के ढेर में पड़े सड़ाव का ही परिणाम इस भुखमरी को मानना चाहिए। जहां ऐसी स्थिति है-वहां संप्रदाय या मजहब के ठेकेदार सियासत को गाली देकर जनता को भ्रमित कर रहे हैं कि इसमें हमारा दोष नहीं है। हमने तो सियासत को अपना समर्थन इसलिए दिया था कि धरती पर स्वर्ग (जन्नत) लाएंगे। यदि यह ऐसा नहीं कर पायी है तो इसमें हमारा दोष न होकर इसी का दोष है। इसलिए इसी को गोली मारो और इसी को गाली दो।
उधर राजनीति कहती है किये जो मजहब वाले हैं ना-इन्होंने ही यह स्थिति उत्पन्न की है। क्योंकि ये हमें खुलकर ना तो सोचने देते हैं और ना ही कुछ करने देते हैं, इसलिए इनको ही गोली मारो और इनको ही गाली मारो। गोली और गाली की भाषा बोलने वालों से गले मिलने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? उनका तो संस्कार ही दूषित हो चुका है और मानसिकता दुर्गन्धित हो चुकी है। मजहब और राजनीति की घालमेल के आये घातक परिणामों से संसार को अवगत कराकर संसार में कुछ नास्तिकवादी आये और उन्होंने कहा कि यह जो साम्प्रदायिकता या मजहब परस्ती है ना इसे राजनीति से अलग करो। संसार की दुर्दशा का कारण यह मजहब परस्ती ही है। जनसाधारण को लगा कि संभवत: इन नास्तिकवादियों की बात ही उचित है और उन्होंने इन नास्तिकवादी कम्युनिस्टों को कई बड़े देशों की शासन सत्ता सौंप दी।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत