देवेन्द्रराज सुथार
जालोर, राजस्थान
राजस्थान के सरकारी स्कूलों में बच्चों के बस्ते के बोझ को कम करने के लिए पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत की है. जिसके तहत पाठ्य पुस्तकों का दो-तिहाई वजन कम किया गया है. अब बच्चों को वर्तमान पुस्तकों के एक तिहाई भार के रूप में अलग-अलग पुस्तकों के स्थान पर एक ही पुस्तक स्कूल लेकर जानी होगी. इसी के साथ राजस्थान देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है, जहां बस्ते के बोझ को कम करने के लिए यह पहल की गई है. पूर्व में कक्षा एक के विद्यार्थियों की किताबों का वजन 900 ग्राम था, अब वह 400 ग्राम किया गया है. इस प्रकार कक्षा एक से पांच तक की किताबों के वजन को 5 किलो 900 ग्राम से घटाकर 2 किलो 200 ग्राम तक कर दिया गया है. इसी तरह से पांचवीं कक्षा के लिए भी एक नया सिलेबस बनाया गया है. चार किताबें मिलाकर एक पुस्तक तैयार की गई हैं. अब पांचवीं कक्षा के बच्चे को चार किताबों के बदले सिर्फ़ एक ही किताब लेकर स्कूल जाना पड़ेगा. राज्य सरकार के इस फैसले से जहां बच्चे खुश हैं वहीं माता पिता ने भी राहत की सांस ली है.
जालौर के एक निजी स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले छात्र सेजल के पिता चंपालाल कहते हैं कि उनके बेटे के बस्ते का वजन करीब 5 से 6 किलो है. जब वह भारी बैग लेकर चलता है, तो उसकी पीठ झुक जाती है. हालांकि स्कूल बस उसे लेने आती है लेकिन स्टॉप तक चलकर जाने में वह हांफने लगता है. कई बार बच्चे की दुर्दशा देकर उसका भारी बस्ता मुझे उठाना पड़ता है. वहीं 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली पूनम की मां रेणुका का कहना है कि पूनम के स्कूल बैग का वजन बहुत ज्यादा है. सभी किताबों और नोटबुक को मिलाकर बैग का वजन करीब 7 से 8 किलो हो जाता है. पास में कोई सरकारी स्कूल नहीं होने के कारण पूनम को रोजाना एक किमी पैदल चलना पड़ता है और स्कूल बैग का भारी बोझ भी उठाना पड़ता है. स्कूल से घर आने तक वह पूरी तरह से थक चुकी होती है. पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले कुशाल का कहना है कि स्कूल बैग के बढ़ते वजन के कारण उसे अक्सर पीठ दर्द की शिकायत रहती है. वहीं आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली हेमलता स्कूल बैग का वजन ज्यादा होने के कारण ज्यादातर जरूरी किताबों को घर पर ही रखकर मजबूर होती है. कई बार इसके लिए उसे शिक्षकों की डांट का भी सामना करना पड़ता है. लेकिन अब सरकार के फैसले से वह और उनकी उम्र के सभी बच्चे खुश हैं.
स्कूली बस्ते के बढ़ते बोझ के विरुद्ध कई मंचों से शिक्षाविदों के साथ साथ डॉक्टर भी चिंता जाहिर कर चुके हैं. इस संबंध में जालौर के चिकित्सक डॉ. हेमंत कहते हैं कि बच्चों में शारीरिक बीमारियों के पीछे एक बड़ा कारण उनकी आयु क्षमता से अधिक स्कूल बस्ते का वजन होना है. बचपन में कमर दर्द भविष्य में साइटिका और सर्वाइकल का कारण भी बन सकता है. अधिक वजन के कारण उनके कंधे के जोड़ में भी समस्या हो सकती है. कम उम्र में ही भारी स्कूल बैग का बोझ बच्चों के शारीरिक विकास पर असर डालता है. जो उनके भविष्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है. एसोचैम की स्वास्थ्य देखभाल समिति के तहत कराए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि सात से तेरह वर्ष की आयु वर्ग के 88 प्रतिशत विद्यार्थी ऐसे हैं, जो अपनी पीठ पर अपने वजन का लगभग आधा भार ढोते हैं. इस भार में आर्ट किट, स्केट्स, तैराकी से सम्बंधित सामान, ताइक्वांडो के उपकरण, क्रिकेट एवं अन्य खेलों की किट शामिल होते हैं. इस भारी बोझ से उनकी रीढ़ की हड्डी को गंभीर नुक़सान पहुंचता है. इसके अलावा इन बच्चों को पीठ सम्बंधी कई अन्य गंभीर समस्याओं का सामना भी करना पड़ सकता है. मुंबई सहित देशभर के 10 शहरों में 7 से 13 साल की उम्र के स्कूली बच्चों पर हुए एसोचैम के सर्वे से पता चला है कि भारी भरकम बस्ता ढोने वाले 68 फीसदी बच्चों को पीठ दर्द की शिकायत है और बस्ते का बोझ इसी तरह बना रहा तो आगे चलकर उनका कूबड़ यानी पीठ का ऊपरी हिस्सा बाहर की ओर उभर सकता है. विशेषज्ञ बताते हैं कि बस्ते का बोझ बच्चे के वज़न से दस फीसद से अधिक नहीं होनी चाहिए. मतलब, यदि बच्चे का वजन दस किलो है तो उसके बैग का वजन एक किलो से अधिक नहीं होना चाहिए.
बस्ते के वज़न का लगातार बढ़ते जाना शिक्षा जगत के सामने एक बड़ी समस्या बनी हुई थी और स्थिति यहां तक पहुंच गई थी कि बस्ता ज्ञान की बजाय बोझ का प्रतीक बनकर रह गया. यह मुद्दा काफ़ी लंबे समय से चर्चा में रहा और समय-समय पर इसके लिए आंदोलन और विरोध प्रदर्शन भी होते रहें हैं. संसद में भी इस मुद्दे को लेकर कई बार चर्चा होती रही है और यशपाल समिति की रिपोर्ट पर अमल का सुझाव दिया जाता रहा है. गौरतलब है कि 1992 में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देशभर के आठ शिक्षाविदों को मिला कर एक राष्ट्रीय सलाहकार समिति बनाई थी. जिसके अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल थे. इस समिति ने स्कूल बैग का बोझ कम करने के कई उपाय बताए गए थे. स्कूलों के उस समय के माहौल और मुश्किलों का बड़े पैमाने पर विश्लेषण करते हुए समिति ने महत्त्वपूर्ण सिफारिशें भी दी थीं. इसमें कहा गया था कि पाठ्यपुस्तकों को स्कूल की संपत्ति समझा जाए और बच्चों को स्कूल में ही किताब रखने के लिए लॉकर्स अलॉट किए जाएं. रिपोर्ट में छात्रों के होमवर्क और क्लासवर्क के लिए भी अलग टाइम-टेबल बनाने का सुझाव दिया गया था ताकि बच्चों को रोजाना किताबें घर न ले जानी पड़ें. 2012 में दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष पेश एक रिपोर्ट में माना गया कि भारी स्कूल बैग के कारण छोटे बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है. उस समय भी कुछ गाइडलाइंस भी जारी की गई थीं. कुछ समय पहले मद्रास हाई कोर्ट ने भी पहली तथा दूसरी क्लास के बच्चों को होमवर्क नहीं देने के निर्देश दिए थे.
स्कूली शिक्षा में नवाचारों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय रेवत के शिक्षक संदीप जोशी बताते हैं कि मैं वर्ष 2007 से लगातार इस विषय पर काम कर रहा हूं, तब यह प्रोजेक्ट बनाया था. दो वर्ष पूर्व राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के बैनर तले नई दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में बस्ते के बोझ को लेकर एक राष्ट्रीय स्तर की कार्यशाला का आयोजन हुआ, जिसमें देश के विभिन्न प्रांतों के शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारी और राष्ट्रीय स्तर के अनेक शिक्षाविद मौजूद थे. उसी कार्यशाला में शनिवार को बस्ता मुक्त शिक्षण का सुझाव भी दिया था, जिसे केंद्रीय विद्यालय में देशभर में एवं लगभग 10 से अधिक राज्य सरकारों ने भी लागू किया है. मासिक पाठ्यपुस्तक आधारित यह नवाचार राजस्थान में एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में राज्य के 33 विद्यालयों में प्राथमिक स्तर तक लागू किया गया है. वर्षभर में इसकी लगातार समीक्षा होगी और परिणाम के आधार पर इसे पूर्णतः लागू करने पर विचार किया जाएगा. राज्य स्तर पर पुरस्कृत शिक्षक गोपाल सिंह राजपुरोहित बताते हैं कि बिना पाठ्यक्रम बदले बस्ते के बोझ में दो तिहाई कमी के साथ अन्य उपयोगी जानकारियां जोड़कर पाठ्यपुस्तकों की गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है.
निःसन्देह राजस्थान सरकार की यह पहल प्रशंसनीय है. विदेशों में बच्चों के स्कूल बैग का वजन इतना नहीं होता है जितना हमारे यहां है. अमेरिका में तो बच्चे के वजन के अनुसार स्कूल बैग का वजन होता है. वहां 27 किलो के बच्चे के स्कूल बैग का वजन दो किलो से अधिक नहीं होता है जबकि 56 किलो के बच्चे को आठ किलो से अधिक वजनी स्कूल बैग उठाने की इजाज़त नहीं है. ऐसे हालातों में भारत में बस्ते के बोझ से बाल पीढ़ी को मुक्त करने की नितांत आवश्यकता थी, जिसे राज्य सरकार ने हरी झंडी दिखाकर जमीनी धरातल पर साकार करने की पूरी योजना बना ली है. अब उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही पूरे देश के बच्चों को बस्ते के बोझ से मुक्ति मिलेगी और उनके लिए बस्ता बोझ के बजाय ज्ञान का प्रतीक सिद्ध होगा. (चरखा फीचर)