सभी मनुष्यों को यह अधिकार है कि बुद्घि पूर्वक अपने जीवनोद्देश्य का निर्धारण करे। अपनी सामाजिक, शारीरिक व आत्मिक उन्नति करे, साथ ही परोपकारी बने रहकर अन्य जीवों के कल्याण की योजनाओं में भी लगा रहे, विद्या प्राप्ति करे और अज्ञान से युक्त होकर अपनी शारीरिक रक्षा करने व भोजन वस्त्र और आवास की आवश्यकताओं से भी स्वयं को मुक्त करे, संसार के सभी जीवधारी परमपिता परमात्मा के साम्राज्य की प्रजा हैं। अत: ईश्वर के साम्राज्य में सभी जीवात्माएं समान हैं, उनमें कोई छोटा या बड़ा नहीं है। मनुष्य जितनी देर भी संसार में रहे अर्थात जीवन जिये उतनी देर वह जी सकता है। उसके जीने के अधिकार को ईश्वर के अतिरिक्त राजा तभी छीन सकता है, जब उसने अपने शरीर से ऐसा अपराध किया हो-जिसकी सजा मृत्युदण्ड से नीचे कोई हो ही नहीं सकती।
जब राजनीति को मानव के अधिकारों का बोध हो जाता है तो वह अपने राजधर्म का निर्धारण करती है और यह सुनिश्चित करती है कि तुझे मानव और संपूर्ण जगत के प्राणियों की संरक्षिका बनाया जा रहा है। अत: तेरे अधिकार क्षेत्र की सीमाएं अमुक-अमुक होंगी। इन सीमाओं का निर्धारण करते समय राजनीति मानव और प्राणि जगत की अधिनायकवादी शक्ति सत्ता न होकर उनकी ‘सेविका’ बनकर अपना राजधर्म घोषित करती है। कहने का तात्पर्य है कि भारतीय राजधर्म स्वयं को मानव का सेवक घोषित करता है। यह तभी संभव हो पाया होगा जबकि भारत के राजनीतिशास्त्रियों ने मनुष्य की आवश्यकताओं, सीमाओं, अधिकारों और कत्र्तव्यों को पहले भली प्रकार समझा होगा और फिर उनके भली प्रकार पालन के लिए राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव की होगी।
आज के राजनीतिशास्त्र के मनीषी लोग मनुष्य के मौलिक कत्र्तव्यों को बताते-समझाते तो हैं, परंतु उनके बताने-समझाने में उतना ज्ञान गाम्भीर्य नहीं है-जितना कि भारत के ऋषियों के चिंतन में ज्ञान-गाम्भीर्य मिलता है। अकेले महर्षि पतंजलि को ही आप लें। उन्होंने अपने ‘योगदर्शन’ में जिस अष्टांगयोग का प्रतिपादन किया है-उसमें यम और नियम की बात का उल्लेख भी किया गया है। इनमें से ‘यम’ के अंतर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को माना गया है। ये पांचों एक प्रकार से मानव समाज की ‘आचार-संहिता’ है। जिसे पालने के लिए अनिवार्य बाध्यता का पाठ हमारे आचार्य लोग पढ़ाया करते थे। उनका मानना था कि मनुष्य को स्वयं कठोरव्रती होना चाहिए और अपनी मर्यादाएं सुनिश्चित करनी चाहिएं। सारे समाज को नैतिक और उच्च चरित्रवान बनाये रखने के लिए इन पांचों ‘यमों’ का पालन करना अनिवार्य बताया गया।
पश्चिमी जगत का कोई भी चिंतक आज तक अहिंसा सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक संचय न करना) की परिभाषा तक नहीं जान पाया है। भारतीय मनीषा ने ‘यमों’ का पालन करना अनिवार्य माना है और यह स्थापित किया है कि यदि ‘यम’ पालन के प्रति सारे समाज को गम्भीर बना दिया गया तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। सारे संसार को अपराध मुक्त, भयमुक्त, भूखमुक्त और भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की आचार संहिता ये ‘यम’ ही है।
पांच शब्द ही तो हैं-ये ‘यम’। पर संसार की दशा सुधारने के लिए हर शब्द एक फार्मूला है सूत्र है। यह सर्वमान्य सत्य है कि एक सूत्र बड़े-बड़े प्रश्नों के हल प्रस्तुत करा देता है। हमारे वैदिक ऋषियों और चिंतनशील महापुरूषों की यह अनोखी विशेषता है कि उन्होंने भी अपनी गंभीर बात को सूत्रात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। उन सूत्रों पर चिंतन करते-करते एक ही सूत्र पर पूरा एक अध्याय लिखा जा सकता है, और कभी-कभी तो एक पुस्तक भी लिखी जा सकती है।
सारे संसार की बुराईयों के और सारे संसार में व्याप्त भय, भूख और भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए भय, भूख और भ्रष्टाचार के विशाल भवन की छोटी सी कुंजी ‘यम’ की व्यवस्था में है। जबकि शेष विश्व के विद्वानों ने भय, भूख और भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए बड़े-बड़े विशाल ग्रंथ लिख डाले। संसार में इनको मिटाने के लिए अनेकों यत्न किये गये हैं, अनेकों कानूनों का निर्माण किया गया है। संसार के बड़े-बड़े पुस्तकालयों में इनको मिटाने वाले कानूनों की अनेकों पुस्तकें भरी पड़ी हैं। पर उन सबमें से एक में भी भारत के ‘यम’ को समझने की आवश्यकता अनुभव नहीं की गयी।
‘यम’ मृत्यु का देवता है और मृत्यु हम सबके लिए दु:खदायक है। हमें दु:ख तभी मिलते हैं जब हम ‘यम’ के विपरीत व्यवहार करते हैं। इसका अभिप्राय है कि जब हम अहिंसा के स्थान पर हिंसा को, सत्य के स्थान पर स्तेय (चोरी करने को) को, ब्रह्मचर्य के स्थान पर व्यभिचार को तथा अपरिग्रह के स्थान पर धन संचय करने की प्रवृत्ति को अपनाते हैं तो हमें दुख घेरता है। दु:ख घेरता है तो मृत्यु आती है और मृत्यु आती है तो हम ‘यम’ की शरण में जाते हैं-यह वचन देने के लिए कि अबकी बार छोड़ दो, अबकी बार अच्छे काम करूंगा और यम पालन करके जीवन मुक्त होने का हरसंभव प्रयास करूंगा। ‘यम’ उस समय हमारे लिए मुक्ति का साधन बन जाता है जब उसे दिये गये वचन को पालन करके उसके पास हम पुन: जाते हैं।
नियम और योगदर्शन
यम के पश्चात शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान को ‘नियम’ माना गया है। इन्हें पालने न पालने के लिए मनुष्य को स्वतंत्र छोड़ा गया है। इसका कारण ये है कि नियम व्यक्ति के नितांत निजी विषय की वस्तु है। कोई व्यक्ति शुचिता अपनाये या न अपनाये, संतोष, तप, स्वाध्याय आदि को अपनाये या न अपनाये यह उसका निजी विषय है। यदि अपनाता है तो बहुत ही उत्तम है और यदि नहीं अपनाता है तो इससे मानव-समाज पर कोई विशेष दुष्प्रभाव पडऩे की संभावना नहीं रहती है। भारत का राजधर्म ऋषियों के इस चिंतन को समाज में स्थापित कराने में सहयोग करता था। कहने का अभिप्राय है कि भारत का राजधर्म पूर्णत: बुद्घि पूर्वक कार्य करता है।
भारत में कर्मफल व्यवस्था
भारत में कर्मफल व्यवस्था को बहुत ही प्रमुखता दी गयी है। वास्तव में कर्मफल व्यवस्था ईश्वर की न्याय व्यवस्था को ही कहते हैं। जिस जीव ने जैसे-जैसे कर्म किये उसे उन कर्मों का वैसा-वैसा फल निश्चय ही प्राप्त होता है। गीता भी यही कहती है कि किये गये प्रत्येक शुभाशुभ कार्य का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। भारत के वैज्ञानिक ऋषियों ने ईश्वरीय न्याय व्यवस्था अर्थात कर्मफल व्यवस्था का पता लगाकर बहुत बड़ा कार्य कर डाला था। उनके संज्ञान में जैसे ही यह रहस्य आया, वैसे ही आर्यावत्र्त के लोगों को उन्होंने सचेत व जागरूक करना आरंभ किया कि सभी अपने राजा या न्यायाधीश या प्रहरी स्वयं बन जाएं और स्वयं ही स्वयं का समीक्षण, परीक्षण व निरीक्षण करते रहें कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूं वह लोकहित में भी है या नहीं और उससे किसी को कष्ट तो नहीं होने वाला है? इस कसौटी पर स्वयं कसने के लिए मनुष्यों को बताया गया कि यदि कोई ऐसा कार्य आप करते हैं-जिससे किसी का अहित होता है तो वह पाप है। बुरे कार्य को करना हमारे ऋषियों ने ‘पाप’ माना और यदि आप ऐसा कार्य करते हैं जिससे दूसरों का भला होता है तो उसे ‘पुण्य’ कहा गया। ऋषियों ने ‘पाप’ को निषिद्घ कर्म माना और लोगों को यह समझाया कि यदि पापमयी कार्य करोगे तो उसका दु:खद फल भोगना पड़ेगा। उस फल को भोगने से आपको कोई बचा नहीं पाएगा। इस फल को देने के लिए ईश्वर ने कर्मफल व्यवस्था को अपने हाथ में रखा है। उससे अलग यह व्यवस्था किसी के हाथ में नहीं है? संसार का कोई बाबा या धर्मगुरू भी तुम्हें तुम्हारे पापकर्म के फल से बचा नहीं पाएगा।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत