उमेश चतुर्वेदी
विश्व हिंदी सम्मेलन तो हो गया मगर इससे हिंदी को क्या हासिल हुआ?
विश्व हिंदी सम्मेलन के 48 साल की यात्रा कम नहीं होती। फिजी के नादी में हुए 12वें विश्व हिंदी सम्मेलन के मौके पर देश में यह सवाल जरूर उठा कि जिस उद्देश्य से यह सम्मेलन शुरू हुआ, क्या उसे वह पूरा कर पाया है। साल 1975 आपातकाल रूपी काले धब्बे के लिए ही याद किया जाता है। इसी साल 10 जनवरी को नागपुर में पहली विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ था। गांधी जी द्वारा स्थापित राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा की पहल पर हो रहे इस सम्मेलन में सम्मेलन ने तीन लक्ष्य निर्धारित किए थे, लेकिन उनमें से दो बेहद महत्वपूर्ण रहे। पहला यह कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिलाया जाये और दूसरा वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो।
हमने जिस लोकतंत्र को स्वीकार किया है, उसमें हर नाकामी के लिए राजनीतिक नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराने की ही ज्यादा कोशिश होती है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि अपनी नौकरशाही का जो लौहआवरण है, वह कई बार सकारात्मक लक्ष्यों को पूरा होने की राह में अड़ंगा लगा देता है। हालांकि जब मजबूत इच्छाशक्ति वाली हस्तियों के हाथ राजनीतिक नेतृत्व आता है तो यही नौकरशाही सारे लक्ष्यों को पूरा करने की तरफ दौड़ पड़ती है। बहरहाल यह शोध का विषय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने की कोशिशों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी रही, या फिर नौकरशाही के रवैये की? लेकिन हकीकत यही है कि हिंदी अभी तक संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा नहीं बन पाई है। ले-देकर दूसरा लक्ष्य ही पूरा हो पाया है। वर्धा में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय जीवंत हो चुका है। हालांकि 1997 में स्थापना के बाद कई वर्षों तक यह विश्वविद्यालय पठन-पाठन के केंद्र की बजाय आपदा के समय लगाए जाने वाले कैंप कार्यालय की तरह दिल्ली से काम करता रहा है। दिलचस्प यह है कि उस समय इस विश्वविद्यालय की कमान अशोक वाजपेयी के हाथ थी, जो साहित्यकार तो हैं ही, नौकरशाह भी रहे हैं।
विश्व हिंदी सम्मेलन इतनी बार आयोजित होने के बावजूद संयुक्त राष्ट्र संघ के मोर्चे पर हिंदी इतनी ही आगे बढ़ पाई है कि उसका कार्यालय अब हिंदी में भी ट्वीट करने लगा है। विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्घाटन करते वक्त तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की यह घोषणा उम्मीद जताती है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिंदी में भी समाचारों का प्रसारण करना शुरू कर दिया है, जो साप्ताहिक तौर पर है। 48 साल में अगर हम इतनी ही यात्रा कर पाए हैं तो यह मानने में क्यों गुरेज होना चाहिए कि हिंदी सम्मेलन कुछ लोगों की तफरी का जरिया ज्यादा रहे, ठोस लक्ष्य हासिल करने की दिशा में इन सम्मेलनों में गंभीर भूमिका कम ही निभाई।
विदेशों में हिंदी सम्मेलन का एक मकसद यह है कि इसके जरिए हिंदी का प्रचार और प्रसार तो बढ़े ही, स्थानीय लोगों की भागीदारी भी हो। फिजी में लोगों की भागीदारी तो रही, लेकिन वहां से जो खबरें छनकर आई हैं, उसका लब्बोलुआब है कि हिंदी को लेकर व्यवस्था कुछ खास चाकचौबंद नहीं रही। लोक की भागीदारी तो रही, लेकिन भाषायी चिंतन के समुचित प्रयास नहीं किए गए। एक बात और, विदेश मंत्रालय स्वभाव से ही अंग्रेजी दां है। फिजी गए प्रतिभागियों का कहना है कि विदेश मंत्रालय की ओर से हिंदी सम्मेलन के जो निर्देश दिए गए, वे सब अंग्रेजी में ही थे। कुछ प्रतिभागियों को तो हवाई अड्डे के इमिग्रेशन काउंटर तक से वापस कर दिया गया। ऐसी ही एक सहभागी तमिलनाडु के कोयंबटूर की हिंदी प्राध्यापक अनिता रहीं, जिन्हें इमिग्रेशन काउंटर से वापस लौटा दिया गया। जबकि उनके पास वैध वीजा, अपने खर्च से खरीदा गया वाजिब हवाई टिकट आदि था। बस कमी यह थी कि उनके पासपोर्ट की वैधता पंद्रह अगस्त को खत्म हो रही है, जबकि नियमानुसार फिजी में रहने के दौरान तक उनके पासपोर्ट की वैधता मियाद छह महीने होनी चाहिए थी। यानी उनके पासपोर्ट की वैधता में सिर्फ दो-तीन दिन की कमी थी और उन्हें हवाई जहाज में चढ़ने ही नहीं दिया गया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि उस महिला को अनुमति देने वाली आंखें क्या कर रही थीं?
यह भी सवाल उठता है कि क्या भाषाओं की जनभागिता के बिना किसी हॉल भर में सम्मेलन कर लेने, कुछ किताबों और पत्रिकाओं के विमोचन कर लेने भर से हिंदी का प्रसार हो जाएगा?
आए दिन हिंदी किताबों और पत्रिकाओं को विमोचन भारत में भी होते रहते हैं। इससे हिंदी की पाठकीयता पर कितना असर पड़ता है, इस तथ्य को हिंदी के विद्वान, हिंदी के सेवी और हिंदी की मलाई खाने वाले अच्छी तरह से जानते हैं। इससे हिंदी का विकास कितना होता है, यह भी हिंदी के नाम पर खाने वाले जानते हैं? य़ह बात और है कि हर बार के विश्व हिंदी सम्मेलन में कुछ एक चेहरों को छोड़ दें तो हिंदीबरदार चेहरे नहीं बदलते।
न्यूयार्क की संस्था द वर्ल्ड आल्मेनक एंड बुक ऑफ फैक्ट्स के 1999 के न्यूज पेपर एंटरप्राइजेज एसोसिएशन अंक के मुताबिक दुनियाभर में हिंदी बोलने वालों की संख्या 130 करोड़ हो गई है और इस लिहाज से वह दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े अब भी हिंदी को चीनी और अरबी के बाद तीसरे ही स्थान पर रखते हैं। अगर इतने बड़े समुदाय की भाषा को उसका वैश्विक स्तर पर आधिकारिक महत्व नहीं मिल पा रहा है तो हमें सोचना होगा कि आखिर हमारे प्रयासों में कमी कहां रह गई। चूंकि देश में नई तरह की सरकार है, उसका नवाचार में भरोसा है, इसलिए उसे इस संदर्भ में सोचना होगा। उसे यह भी देखना होगा कि आखिर नौकरशाही के सहारे हिंदी कितना आगे बढ़ सकती है? हिंदी पर सही मायने में तभी चिंतन हो सकेगा और उसके विकास की सही राह तलाशी जा सकेगी। तभी पहले विश्व हिंदी सम्मेलन का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा। अन्यथा हिंदी के नाम पर पार्टियां ही चलती रहेंगी।