विश्वगुरू के रूप में भारत-35
भारत के इतिहास में रूचि रखने वाले किसी भी विद्यार्थी को चाहिए कि वह भारत को यहीं से समझना आरंभ करे।
उसके पश्चात अमैथुनी सृष्टि संबंधी भारत की वैज्ञानिक धारणा को समझकर मानव के मैथुनी सृष्टि में प्रवेश को समझे, तो हमें मानव इतिहास की श्रंखला का प्रथम सूत्र हाथ लग जाएगा जो इस चराचर जगत के रहस्यों को खोलकर हमारे सामने प्रकट करने में समर्थ होगा। इन सारे रहस्यों को समझने के लिए भारत के वेद, उपनिषद और पुराणादि (इतिहास संबंधी ज्ञान पुराणों से ही मिलना संभव है) हमारी अच्छी सहायता कर सकते हैं। यही कारण है कि हमारे यहां इतिहास की जानकारी रखने के लिए इन ग्रंथों का अध्ययन करना आवश्यक है।
सुंदरलाल गुप्त जी ने भारतवर्ष के प्राचीन साहित्य में उपलब्ध नाम जम्बूद्वीप की स्थिति एशिया से, प्लक्षद्वीप की स्थिति यूरोप महाद्वीप से, शाल्मलि द्वीप की स्थिति अफ्रीका महाद्वीप से, कुश्द्वीप की स्थिति दक्षिणी अमेरिका से, क्रौंच द्वीप की स्थिति उत्तरी अमेरिका से, शाकद्वीप की स्थिति ऑस्टे्रलिया से और पुष्कर द्वीप की स्थिति अंटार्कटिका महाद्वीप से लगायी है। आज के जम्बूद्वीप को पं. माधवाचार्य जी ने यूरेशिया के नाम से संबोधित किया है।
बात यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन से द्वीप की स्थिति आज के कौन से द्वीप या महाद्वीप से हमारे विद्वानों ने की है, बात ये महत्वपूर्ण है कि हमारे ऋषि-पूर्वजों को अत्यंत प्राचीनकाल से धरती के सात महाद्वीपों की, सात समुद्रों की, सबसे प्रमुख सात पर्वतों की, सात नदियों की और सप्तर्षिमण्डल की जानकारी थी। उन्होंने सात के अंक को पवित्र माना और पूजा आदि के समय सात बार किसी धार्मिक क्रिया के करने आदि की प्रक्रिया को एक प्रकार से इन्हीं सात द्वीपों, सात नदियों आदि के लिए पूर्ण हुआ मान लिया। शेष संसार आज भी सारी पृथ्वी के सारे भूगोल खगोल को नही जान पाया है, परंतु भारत ने इसके चप्पे-चप्पे का ज्ञान युगों पूर्व कर लिया था।
जब युधिष्ठिर को महाभारत के युद्घ के उपरांत युद्घ में मारे गये लोगों की आत्मा की शांति के लिए ‘अश्वमेध यज्ञ’ करने का परामर्श कृष्ण जी ने दिया तो युधिष्ठिर ने उस परामर्श को यह कहकर अमान्य कर दिया कि इतना बड़ा यज्ञ करने के लिए उसके पास धन नहीं है और वह नहीं चाहता कि उसे धन के संचय के लिए अपनी प्रजा पर अनचाहा कर लगाना पड़े। तब वेदव्यास जी ने बीच का रास्ता खोज निकाला। उन्होंने हिमालय पर्वत का एक स्थान बताया और कहा कि वहां पर अकूत धन छिपा पड़ा है। आप चाहें तो वहां से उस धन को प्राप्त कर सकते हैं। उस पर युधिष्ठिर सहमत हो गये और उन्होंने उस धन को लाने का दायित्व भी वेदव्यास जी को ही सौंप दिया। कहने का अभिप्राय है कि हमारे ऋषि पूर्वजों को इस भूमण्डल के हर क्षेत्र का गंभीर ज्ञान था।
यह केवल भारत में ही संभव है कि वेदव्यास जी को इतने विशाल धन की जानकारी हो और यह भी कि वे उस धन को निकालकर स्वयं के प्रयोग में भी ला सकते थे, परंतु ‘अपरिग्रहवादी’ भारतीय ऋषियों को उस मिट्टी तुल्य धन से कोई प्रयोजन नहीं था। हां, जब लोकहित में उसका प्रयोग करने का समय आया तो उसके विषय में उन्होंने उचित लोगों को उचित सूचना दे दी। इस सूचना को वह दुर्योधन को भी दे सकते थे-पर उसे ना देकर युधिष्ठिर को ही दी तो उसका कारण यही था कि उनकी दृष्टि में दुर्योधन की अपेक्षा युधिष्ठिर से लोककल्याण किये जाने की संभावना अधिक थी।
हमने ऊपर भारतीय सृष्टि संवत का संकेत किया था। अब विचार करते हैं कि संसार में प्रचलित प्रमुख सम्वत कौन-कौन से हैं? ‘वैदिक संपत्ति’ में इनका उल्लेख किया गया है। यह पुस्तक 1929 में लिखी गयी थी। जिसे बीते हुए (अब 2017 में) 88 वर्ष हो चुके हैं। इसलिए उस संख्या में 88 जोड़ देने से 2017 में प्रचलित विभिन्न सम्वतों की कालगणना इस प्रकार आती है :-
आदि सृष्टि से संकल्प सम्वत 1,97,29,40,118
वैवस्वत मनु से आर्य संवत = 12,05,33,118
चीन के प्रथम राजा से चीनी संवत = 9,60,02,517
खता के प्रथम पुरूष से खताई संवत = 8,88,40,389
पृथ्वी उत्पत्ति का चाल्डियन संवत = 2,15,00,088
ज्योतिष विषयक चाल्डियन संवत = 4,70,088
ईरान के प्रथम राजा से इरानियन संवत = 1,89,997
आर्यों के फिनिशिया जाने के समय से फिनिशियन सम्वत= 30,088
आर्यों के इजिप्ट जाने के समय से इजिप्शियन संवत = 28,670
इबरानियन (किसी घटना विशेष से) 6010 कलि के प्रारम्भ से कलिसंवत=5118, युधिष्ठिर के प्रथम राज्यारोहण से युधिष्ठिर संवत -4173 मूसा के धर्म प्रचार से मूसाई संवत=3584, ईसा के जन्मदिन से ईसाई संवत=2017।
इस विवरण से स्पष्ट है कि भारत का सृष्टि संवत और वैवस्वत मनु से प्रारंभ आर्य संवत विश्व के प्रचलित सभी संवतों में सर्वाधिक पुराने हैं। दूसरी बात यह भी कि सारे संसार के देशों में आर्य भारत से गये और वहां जब-जब वह पहुंचे तभी से अपना सम्वत (अपनी पहुंचने की घटना को स्मरणीय बनाने के लिए) प्रारंभ कर दिया। अत: यह भ्रान्ति दूर होनी चाहिए कि आर्य भारत में बाहर से आये। इसके स्थान पर यह तथ्य और सत्य स्थापित होना चाहिए कि आर्य लोग भारत से बाहर गये।
आर्यों का वैवस्वत मनु से आर्य सम्वत प्रारंभ होता है, जो कि 12 करोड़ वर्ष से अधिक प्राचीन है। उनके इस प्राचीन संवत को केवल भारत ने ही सुरक्षित रखा है। इससे भी सिद्घ होता है कि आर्यों का मूल स्थान भारत है। यदि वेे भारत में बाहर से आते तो अपनी स्मृतियां अपने पुराने देश में भी छोड़ते, और अपने पुराने देश की स्मृतियों को इस देश में आकर सुरक्षित रखते। आर्य सम्वत का भारत में इतने समय से हो रहा प्रचलन-यह सिद्घ करता है कि आर्य भारत के थे और भारत आर्यों का था।
तीसरी बात यह भी स्पष्ट होती है कि विश्व के देशों में सम्वत की प्रचलित परम्परा भारत की देन है। भारत की देखा-देखी ही विश्व के अन्य देशों ने अपने यहां सम्वत परम्परा का प्रचलन किया। इसके उपरांत भी चीन के प्रथम राजा का सम्वत लगभग साढ़े नौ लाख वर्ष प्राचीन है, जो कि भारत के सृष्टि सम्वत और आर्य सम्वत की तुलना में बालक ही है। कहा जा सकता है कि जो चीन आज भारत को आंख दिखा रहा है -उसके पास अब से साठे नौ लाख वर्ष पूर्व अपना सम्वत भी नहीं था और ना ही कोई राज व्यवस्था थी। वह पूर्णत: भारत पर निर्भर था और भारत का सिक्का वहां चलता था। यह स्थिति तो बहुत देर बाद तक भी वहां रही है। मध्यकाल में हमारे कश्मीर के राजा और राजस्थान के राजपूत राजाओं के आधीन भी चीन का बहुत बड़ा भूभाग रहा है। यदि हम अपने इतिहास में अपने उन महान राजाओं के गौरवपूर्ण कृत्यों को स्थान देते, जिन्होंने चीन पर या उसके बड़े भूभाग पर देर तक शासन किया तो पता चलता है कि चीन के साथ भारत का कोई सीमा विवाद है ही नहीं, सारा चीन हमारा है। हमें भी ‘मैकमहोन रेखा’ स्वीकार नहीं है। ऐसे में चीन भूल जाता कि भारत के साथ उसका कोई सीमा विवाद भी है? आने वाली पीढ़ी को सही इतिहास पढ़ाना इसीलिए आवश्यक है कि वह सत्य के साथ जुड़ी रहनी चाहिए।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत