जलप्लावन की सूचना और भारतीय इतिहास
भारत के इतिहास ने ज्योतिष शास्त्र और विज्ञान के क्षेत्र की बहुत सी घटनाओं को अपने में समाविष्ट किया है। इसलिए इसके गहन अध्ययन से अतीत की बहुत सी ऐसी घटनाओं की सूचना हमें सहज ही उपलब्ध हो जाती है जो कि ज्योतिष से या विज्ञान से जुड़ी होने के कारण हमें अपने भविष्य के प्रति भी सचेत और सावधान करती हैं। जैसे ‘इतिहास में भारतीय परम्पराएं’ के लेखक गुरूदत्तजी हमें बताते हैं कि भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रत्येक 4,32,000 वर्ष पर भूमंडल पर जलप्लावन की स्थिति बन जाया करती है। इससे मानव जाति का भारी विनाश होता है और एक प्रकार से इस समय से इतिहास भी अपना नया अध्याय आरंभ कर देता है। इस अपार हानि से इतिहास के भी विलुप्त होने की पूर्ण संभावना रहती है। ऐसी स्थिति के आने के विषय में भारतीय ज्योतिष का मानना है कि यह तभी आती है जब सभी ग्रह एक ही राशि में स्थित होते हैं। हमारे ज्योतिष शास्त्रियों की मान्यता है कि भूमंडल पर ऐसी स्थिति प्रत्येक 4 लाख 32 हजार वर्ष के पश्चात बना करती है।
जब ग्रह एक ही राशि में या एक ही रेखा में होते हैं तो सूर्य का ताप बढ़ता है। जिससे पहले तो अनावृष्टि होती है और उसके पश्चात अतिवृष्टि का काल आता है। यह अतिवृष्टि ही पृथ्वी पर जलप्लावन की स्थिति बनाती है। सृष्टि प्रारंभ से लेकर अभी तक पृथ्वी पर ऐसा अनेकों बार हुआ होगा। इस संबंध में पश्चिम का भौतिक विज्ञान अब कुछ-कुछ देखने लगा है तो उसे भारत की मान्यता में बल प्रतीत हो रहा है। पश्चिमी जगत ने भारत की ज्योतिष और विज्ञान सम्बन्धी मान्यताओं को नकारने के लिए भारी भरकम धनराशि व्यय की है, पर यह हमारे ऋषियों के बौद्घिक पुरूषार्थ का ही चमत्कार है कि जो उनकी मान्यताओं को नकारने के लिए आगे कदम बढ़ाता है-वही ‘ओ३म् ओ३म्’ (भारतीय मान्यताओं के समक्ष शीश झुकाने का प्रतीक) कहता हुआ पीछे हटता है।
वास्तव में जल प्लावन जैसी स्थिति इसलिए बनती है कि इससे प्रकृति को पुन: नई सृष्टि करने अवसर मिल जाता है। प्रकृति का विधान है कि वह अपनी व्यवस्था को स्वयं ही व्यवस्थित रखती है। प्रकृति वर्षादि के जल को समुद्र तक पहुंचाने के लिए नदी का निर्माण करती है। जिसकी सफाई के लिए वह प्रतिवर्ष बाढ़ का प्रबंध करती है और उस नदी को साफ कर डालती है। अपनी बनाई नदी को प्रकृति मनुष्य के भरोसे नहीं छोड़ती कि वह आएगा और इसे साफ करेगा। वैसे भी प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं का मनुष्य उपभोग कर सकता है, उनका उचित रख-रखाव करने में भी अपना सहयोग दे सकता है, परंतु उन्हें वह प्रकृति के अनुसार संरक्षित और सुरक्षित भी रख सकेगा-यह संभव नहीं।
मनुष्य तो नदी को प्रदूषित और करता है। ऐसे में प्रकृति 4 लाख 32 हजार वर्ष के काल (नदी को 12 माह में एक बार साफ करती है) पर अपने भूमंडल का ‘सफाई अभियान’ चलाती है और मानव द्वारा फैलाई गयी अराजकता को समाप्त कर डालती है। पश्चिमी जगत नदी में आयी बाढ़ को या इस प्रकार के जल प्लावन को प्रकृति प्रकोप कहता है और भारतीय चिंतन इसे प्रकृति का ‘सफाई अभियान’ कहता है। जिसे वह अनिवार्य मानता है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि प्रकृति को अपना संतुलन बनाकर चलना है, और मनुष्य इस संतुलन को बिगाडऩे का कार्य करता रहता है। अत: प्रकृति अपने संतुलन को बनाये रखने के लिए अपनी व्यवस्था के अनुसार अपना कार्य करती चलती है। यह बिलकुल वैसे ही है जैसे एक नगरपालिका वर्षा के आगमन से पूर्व मई-जून के माह में ही नाले और नालियों की सफाई करा देती है, जिससे कि बाद में किसी प्रकार की कोई समस्या न आने पाये।
प्रकृति के इस ‘सफाई अभियान’ की सूचना भी विश्व को भारतीय ज्ञान-विज्ञान और ज्योतिष ही देता है। इस जलप्लावन को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोग ‘जल पैलों’ या ‘जग पैैलों’ कहते हैं। ‘जल पैलों’ जलप्लावन का और ‘जग पैैलों’ जग प्रलय का पर्यायवाची है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों का इस प्रकार इन शब्दों का उच्चारण करना यह स्पष्ट करता है कि भारत के लोगों की स्मृति में यह ‘जलप्लावन’ सदा बना रहता है। वे जानते हैं कि जब पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है तो प्रकृति अपना संतुलन बनाने के लिए जलप्लावन या ‘जलपैलों’ का आश्रय लेती है। इसी जलप्लावन को अवांतर या युगांतर प्रलय भी कहा जाता है।
हमारे ऋषियों का मानना है कि महाप्रलय भी होती है जो कि प्रत्येक कल्प के पश्चात अर्थात 4 अरब 32 करोड़ वर्ष बाद होती है। उस समय सूर्य, नक्षत्र, पृथ्वी आदि सभी विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। हमारे भीतर बैठा जीवात्मा इन सभी प्रलयों का कितनी ही बार का साक्षी रहा है। यही कारण है कि जब हम ऐसा वर्णन कर रहे हैं या इस वर्णन में हमारे साथ खोकर इसे आप इसे पढ़ रहे हैं, तो आपको मेरी यह बात अनहोनी सी नहीं लग रही है। इसके विपरीत आप उन दृश्यों में खो रहे हैं-जिनसे यह जलप्लावन भयंकर ताण्डव मचाता है। वास्तव में हमारे भीतर जलप्लावन के ये बनने वाले चित्र हमारा आत्मा बना रहा है, जिसे इस प्रकार की जलप्लावन की स्मृति और अनुभूति दोनों ही हैं। उसके लिए यह ज्ञान नया नहीं है, उसने तो ऐसी कितनी ही प्रलयों और जलप्लावनों को झेला है, और देखा भी है।
मनु के समय 28वीं चतुर्युगी का प्रारंभ हुआ था तो ऐसी ही अतिवृष्टि हुई थी। वह वृष्टि 12 वर्षों तक होती रही। महाभारत वन पर्व (अध्याय 188 श्लोक 65 से 82) में इसका सटीक उल्लेख किया गया है। वर्तमान मानव सभ्यता का इतिहास (जिसे गर्व के साथ भारत का इतिहास कहा जा सकता है, क्योंकि इतनी लंबी और इतनी प्राचीन सूचना की जानकारी केवल भारत के ही पास उपलब्ध है) इसी जलप्लावन से ही प्रारंभ होता है। इस सृष्टि के पहले नायक या राजा मनु हुए।
महाभारत शान्ति पर्व में आया है कि-”पुन: त्रेतायुग के आरंभ में विवस्वान (सूर्य) ने मनु को और मनु ने संपूर्ण जगत के कल्याण के लिए अपने पुत्र इक्ष्वाकु को इसका उपदेश दिया।” यह इक्ष्वाकु वंश ही भारत का और विश्व का सबसे पुराना राजवंश है। विवस्वान (सूर्य) मनु से प्रारंभ होने के कारण इस वंश को सूर्यवंश भी कहा जाता है। इसी में आगे चलकर रघु जैसे प्रतापी शासक का आविर्भाव हुआ। जिससे इस कुल को रघुकुल भी कहा गया। इसी में दशरथ नंदन श्रीराम का जन्म हुआ। जब हम यह गाते हैं कि-
‘रघुकुल रीति सदा चलि आयी।
प्राण जायं पर वचन ना जाई।।’
तब समझिये कि हम संपूर्ण भूमण्डल के सबसे प्राचीन राजवंश का कीत्र्तिगान कर रहे हैं, और यह हम सब भारतवासियों का मौलिक संस्कार रहा है कि प्राण भले ही चले जाएं- पर वचन भंग नहीं होना चाहिए। ऐसी ख्याति हमारी संपूर्ण संसार में थी। इसलिए उपरोक्त चौपाई की पंक्ति समझो सारे भारतवासियों को समर्पित करके ही लिखी गयी। जिस पर हम सभी भारतवासियों को गर्व होना चाहिए।
महाभारत से ही हमें पता चलता है कि भारत के वर्तमान इतिहास का शुभारंभ भी त्रेतायुग से ही होता है। उससे पूर्व का इतिहास हमें क्रमबद्घ रूप से उपलब्ध नहीं होता। विद्वानों का मानना है कि त्रेतायुग का शुभारंभ ई.प. 21,63,102 वर्ष पूर्व हुआ था। क्रमश: