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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-37

मनु महाराज के पश्चात प्रियव्रत ने अपने पुत्र आग्नीन्ध्र को जम्बूद्वीप (आज का एशिया महाद्वीप), मेधातिथि को प्लक्षद्वीप (यूरोप), वयुष्मान को शाल्मलिद्वीप (अफ्रीका महाद्वीप), ज्योतिष्मान को कुशद्वीप (दक्षिण अमेरिका), भव्य को शाकद्वीप (आस्टे्रलिया) तथा सवन को पुष्करद्वीप (अण्टार्कटिका महाद्वीप) का स्वामी या अधिपति बनाया। पुराणों की इस साक्षी से पता चलता है कि भारत के ऋषि पूर्वजों ने साम्राज्य विस्तार को लेकर इसलिए भी संघर्ष नहीं किया कि सर्वत्र अपने ही भाइयों का राज था। जो वैदिक विचारधारा के अनुसार ही शासन कर रहे थे और लोगों को बिना किसी पक्षपात के न्याय प्रदान कर रहे थे। ऐसे धर्मशील, न्यायशील और पक्षपातशून्य राजाओं से संघर्ष करना उचित नहीं। भारत का लक्ष्य साम्राज्यविस्तार नहीं था, अपितु सारे विश्व समाज में सुव्यस्थित राजनीतिक व्यवस्था प्रदान करना लक्ष्य था। ऐसे में किन्हीं लोगों को जाकर लूटना या उनपर बलात् अपना शासन थोपना भारत सोच भी नहीं सकता था।

भारत ने सारे संसार को एक परिवार मानकर ही कार्य किया और इसका कारण यह भी था कि संपूर्ण संसार भारत के वेदों की व्यवस्था से ही शासित अनुशासित होता था। महर्षि मनु आदि संविधान के निर्माता कहे जाते हैं। यदि उनकी पीढिय़ों ने संपूर्ण संसार को या भूमंडल को सात भागों में विभाजित कर उन पर अपना-अपना शासन करना आरंभ किया तो यह भी निश्चित ही है कि संपूर्ण संसार पर पहले संविधान निर्माता मनु की ‘मनुस्मृति’ से ही सर्वत्र शासन चलता रहा होगा। ऐसे महर्षि मनु को विशेष सम्मान दिया जाना समय की आवश्यकता रही है। आशा है कि मोदी सरकार इस ओर ध्यान देगी।
भारत की राजवंश परम्परा में सतयुग कालीन भारत में सर्वप्रथम स्वायम्भुव मनु का स्थान है तो उनके पश्चात उनकी कन्याओं का वंश और उनके पश्चात प्रियव्रत वंश, आग्नीन्ध्र वंश, महाराज भरत, उत्तानपाद जैसे वंशों का या राजाओं का स्थान आता है। तत्पश्चात प्रथम चक्रवर्ती सम्राट महाराज पृथु का स्थान है। जिनके शासनकाल में सर्वप्रथम समस्त ऊबड़-खाबड़ पड़ी जमीन समतल कराकर कृषि योग्य करायी गयी और उनके इस महान कार्य केे संपन्न होने पर यह धरती (पृथु से) पृथ्वी कहलायी। अत: जब आज का भूगोलविद या हममें से कोई भी व्यक्ति इस धरती को ‘पृथ्वी’ कहता है तो समझो कि वह हमारे इस प्रथम चक्रवर्ती सम्राट को ही अपनी विनम्र श्रद्घांजलि देकर उनके स्मारक पर अपना शीश झुकाता है। उन्होंने धर्म के द्वारा इस पृथ्वी की ख्याति बढ़ायी, इसे प्रथित किया।
महाभारत शान्ति पर्व में आया है कि भूमि की पुत्री समान रक्षा, सम्वर्धन व प्रतिष्ठा करने के कारण भूमि का नाम पृथु के नाम पर पृथ्वी अर्थात पृथु की पुत्री पड़ गया। महाभारत से ही हमें पता चलता है कि पृथु का राज्य प्रबंध अत्यंत उत्तम कोटि का था। कहा गया है कि-”पृथुु के राज्य में किसी को बुढ़ापा, दुर्भिक्ष तथा आधिव्याधि का कष्ट नहीं था। राजा की ओर से रक्षा की समुचित व्यवस्था होने के कारण वहां कभी किसी को सर्पों, चोरों तथा आपस के लोगों से भय नहीं प्राप्त होता था।”
पृथु के पश्चात के महान राजाओं या राजवंशों में प्राचेतस दक्ष प्रजापति का नाम सतयुगकालीन राजाओं में उल्लेखनीय है। इसके त्रेताकाल में वैवस्वत मनु का नाम सर्वप्रथम आता है। उसके पश्चात सूर्यवंश (अयोध्या) निमिवंश (मिथिला या विदेह राज्य) राजा दण्ड का राज्य, चन्द्रवंश (सोमवंश) अमावसु वंश, आयुवंश, चक्रवर्ती सम्राट ययाति, तुर्वसु तथा द्रहयु वंश, आणववंश, यदुवंश, यदुपुत्र क्रोष्टुवंश विदर्भ वंश, पुरूवंश, (पौरववंश) चक्रवर्ती सम्राट भरत (चंद्रवंश) चक्रवर्ती सम्राट सगर, चक्रवर्ती सम्राट भागीरथ (सूर्यवंश) अज्ञमीढ वंश (चन्द्रवंश), द्विमीढ़ वंश (चन्द्रवंश) वैशाली राज्य, अग्रवंश, दिलीप तृतीय (सभी सूर्यवंशी) आदि का उल्लेख हमें मिलता है।
यह सारा इतिहास आज नामशेष ही रह गया है। इसका कारण केवल यह ही नहीं है कि विदेशियों ने हमारा इतिहास विकृत कर दिया, इससे भी महत्वपूर्ण कारण ये है कि हमने अपनी मानसिक विकृति का परिचय देते हुए स्वयं ही अपने इतिहास से मुंह फेर लिया है। हमने ऊपर केवल कुछ महत्वपूर्ण राजवंशों के नाम दे दिये हैं जो हमारे अतीत के गौरव के भी गौरव हैं। करोड़ों वर्ष के गौरवपूर्ण इतिहास के गौरव के रूप में इन राजवंशों का सम्मान तो अपेक्षित है ही साथ मध्यकाल में गुर्जर प्रतिहार वंश, चौहान वंश, चालुक्यवंश आदि का नाम भी विशेष रूप से सम्मान का पात्र है। केवल ये प्रतीक रूप में यहां उल्लेखित कर दिये गये हैं उनके राजाओं के या सम्राटों के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व का वर्णन यहां संभव नहीं है। उचित यही होगा कि आज की पीढ़ी अपने गौरव के भी गौरव का उचित मूल्यांकन करे और अपने ही देश के विषय में या अपने ही धर्म व संस्कृति के विषय में व्याप्त भ्रान्तियों का निवारण करने के लिए उठ खड़ी हो।
हमें प्रमाद को त्यागकर चेतना के प्रकाश में आना होगा। किसी मजहब या विदेशी आक्रांता को गाली देते रहने से काम नहीं चलेगा, अच्छा यही होगा कि हमारे पास अपना जो कुछ भी है उसे सही रीति से संसार को हम परोस दें। भारत विश्वगुरू स्वयं ही बन जाएगा।
सभी दिशाएं मंगलगीत गाती रहीं भारत के
भारत की वैश्विक संस्कृति ने सबको गले लगाया। उसने गाली और गोली की अपसंस्कृति को न अपनाकर सबको गले लगाने की सर्वमंगलकारी संस्कृति को अपनाकर चलना ही उत्तम माना। भारत में सुरासुर संग्राम का बार-बार उल्लेख होता है। कथा-कहानियों में यह संग्राम बड़ी सहजता से आपको सुनने को मिल जाएगा कि अमुक समय अमुक ऋषि हुए या राजा हुए या यह उस समय की बात है जब देवताओं और राक्षसों का युद्घ चल रहा था। इस युद्घ को हमारे कुछ विद्वानों ने संसार के आतंकवादी किस्म के लोगों और देवता प्रवृत्ति के भद्र पुरूषों के मध्य हुआ संघर्ष माना है तो कुछ ने ऐसे लोगों के मध्य हुआ-इसे प्रथम ‘विश्व युद्घ’ माना है। जिसके अंत में भद्रपुरूषों की जीत हुई और यह धरती पुन: मानव जीवन के योग्य हो सकी। इसके अतिरिक्त कुछ अध्यात्मवादियों ने इसका अर्थ हमारे भीतर की दुष्प्रवृत्तियों और सदप्रवृत्तियों के मध्य चलने वाले शाश्वत संघर्ष का नाम ही देवासुर संग्राम रखा है या माना है। हमें इस संघर्ष की सच्चाई या होने न होने पर प्रकाश नहीं डालना है। हमारा कहना ये है कि भारत विकास और विनाश की नीति और अनीति को भली प्रकार समझने वाला देश है।
नीति का मार्ग विकास का मार्ग है और अनीति का मार्ग विनाश का मार्ग है। यही कारण है कि भारत अपने सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में नीति मार्ग स्थापित कर उस पर चलने वाला देश रहा है। नीति की खोज भारत करे और वह अपने समाज को सुव्यवस्थित न करे भला यह कैसे हो सकता है? इस दृष्टिकोण से विचारने पर भारत में हम सर्वत्र नीति का राज्य, नीति की चर्चा और नीति का व्यवहार होते देखते हैं, अत: यह कहना गलत है कि अर्थनीति, विदेशनीति, उद्योगनीति कृषिनीति, गृहनीति आदि का पाठ हमें विदेशियों ने पढ़ाया-पूर्णत: अतार्किक है। जो लोग ऐसा प्रचार करते हैं उन्हें भारत की सच्चाई की अभी जानकारी नहीं है। वास्तव में भारत का चिंतन यह रहा है कि नीति पर अनीति को, मर्यादा पर अमर्यादा को या या धर्म पर अधर्म को हावी मत होने दो। जैसे ही नीति पर अनीति, मर्यादा पर अमर्यादा और धर्म पर अधर्म हावी होगा वैसे ही व्यवस्था का बना बनाया आपका भवन ढह जाएगा, अर्थात उपद्रव और आतंकवाद की भेंट चढक़र मानवता विनाश के गर्त में चली जाएगी।
क्रमश:

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