1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो उस समय विभाजन की पीड़ा को झेलते हुए 10 लाख लोग मरे या 20 लाख लोग मरे ? यह आंकड़ा कभी स्पष्ट नहीं किया गया। कांग्रेस की इसी गलत सोच का परिणाम था कि मुस्लिम लीग और इस्लाम के मजहबपरस्त उन्मादी लोग अपनी सांप्रदायिकता का नंगा नाच करते रहे और हिंदू क्षति उठाता रहा।
1947 में जब देश को आजाद करना ब्रिटिश सरकार की मजबूरी हो गई थी तो उसके पीछे कारण केवल एक था कि महर्षि दयानंद प्रणीत क्रांतिकारी आंदोलन के उस समय के महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के कारण भारत की सेना भी अंग्रेजों के खिलाफ हो गई थी। भारत क्रांति में पूरी तरह रंग गया था और अब उसे आजादी से नीचे कुछ भी स्वीकार नहीं था। जिस कांग्रेस ने अंग्रेजों से डोमिनियन स्टेटस मांगा था, उसकी चमक-दमक अब फीकी पड़ चुकी थी। ब्रिटिश सरकार के लिए ऐसी परिस्थितियों में भारत को स्वतंत्र करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं था।
ब्रिटिश सरकार के लिए उस समय भारत को ‘विभाजित करके सत्ता सौंपना’ प्राथमिकता हो गई थी, पर उससे भी बड़ी प्राथमिकता थी – भारत से अपने निवेश को बड़ी सावधानी से हटा लेना। अंग्रेज यह भली प्रकार जानते थे कि यदि भारत को ज्यों का त्यों अखंड स्वरूप में अचानक स्वाधीन किया तो भारत के क्रांतिकारियों से पूर्णतया उत्प्रेरित भारत की जनता उन्हें यहां से तुरंत भगाने के लिए उठ खड़ी होगी, तब उन्हें अपने निवेश को भारत में छोड़कर ही भागना होगा।
ज्ञात रहे कि उस समय ब्रिटेन की भारतवर्ष में अरबों – खरबों की पूंजी लगी हुई थी। भारतवर्ष को छोड़ने से पहले अंग्रेज अपनी इस अरबों – खरबों की पूंजी को बड़े आराम से स्वदेश ले जाना चाहते थे। उन्हें डर था कि यदि हिंदुस्तान को यथावत आजाद कर दिया तो ब्रिटिश निवेश का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाएगा। जिसे द्वितीय विश्व युद्ध में बुरी तरह पिटे ब्रिटेन के लिए झेलना कठिन हो जाएगा।
ऐसी परिस्थितियों में ब्रिटेन के लिए यह आवश्यक हो गया था कि कोई ऐसा व्यक्ति भारत से अपने निवेश को समेटने के लिए भेजा जाना चाहिए जो हर प्रकार के व्यक्ति से निभा लेने की असाधारण क्षमता रखता हो। बस, इसी खोज और सोच का परिणाम था कि लॉर्ड माउंटबेटन और उनकी पत्नी एडविना को भारत भेजा गया। लॉर्ड माउंटबेटन उस महारानी विक्टोरिया के पौत्र थे, जिन्होंने 1857 की क्रांति के पश्चात दिल्ली के लाल किले पर यूनियन जैक को चढ़ाया था। लॉर्ड माउंटबेटन नहीं चाहते थे कि जिस काम को उनकी दादी ने बड़ी शान के साथ संपन्न किया था, उसे समेटने का दायित्व उन्हें दिया जाए । पर वे यह नहीं जानते थे कि उनकी पत्नी एडविना माउंटबेटन को ब्रिटिश सरकार उस समय किस प्रकार ‘कैश’ कर लेना चाहती थी ?
एडविना माउंटबेटन किस प्रकार की चरित्रहीनता का शिकार थी और किस प्रकार वह परपुरुषों को काबू में करने में माहिर थी ? इसे ब्रिटेन के तत्कालीन शासक वर्ग के अधिकांश लोग जानते थे। वे यह भी जानते थे कि लेडी माउंटबेटन और जवाहरलाल नेहरू के छात्र जीवन से ही कैसे संबंध रहे थे? और यह भी कि नेहरू किस प्रकार एक व्यभिचारी व्यक्ति थे ? ब्रिटिश सरकार की सोच थी कि लेडी माउंटबेटन को एक ‘विषकन्या’ के रूप में भारत भेजा जाए और नेहरू को उसका शिकार बनाया जाए। इसके लिए यह भी आवश्यकता था कि नेहरू को सत्ता का स्वाद चखाकर अगले प्रधानमंत्री के रूप में उनके भीतर एक महत्वकांक्षी पैदा की जाए। 2 सितंबर 1946 को आजादी से भी पहले नेहरू को इसी योजना के अंतर्गत भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया था। ब्रिटिश लोग भली प्रकार जानते थे कि विषकन्या के प्रभाव में व्यभिचारी नेहरू उन्हें मनपसंद सुविधाएं देने के लिए तैयार हो जाएगा।
भारत के विभाजन के उपरांत अपने निवेश को धीरे-धीरे भारत से समेटने की अपनी गुप्त योजना को सिरे चढ़ाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नेहरू का प्रयोग किया, जिसके लिए विषकन्या लेडी माउंटबेटन ने अपना भरपूर खेल खेला। उस समय के अधिकांश लोग यह जानते थे कि भारत के भविष्य के निर्धारण को लेकर नेहरू माउंटबेटन के साथ-साथ लेडी माउंटबेटन से गंभीर चर्चा किया करते थे । अधिकांश मामलों में लेडी माउंटबेटन के परामर्श को अंतिम मान लिया जाता था। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण था कि जिस महिला ने भारत के बारे में कुछ भी नहीं समझा था उसे सबसे बड़ी समझदार के रूप में मान्यता मिल गई थी। सत्ता से ऊपर एक सत्ता लेडी माउंटबेटन के हाथों में थी। जिसकी कठपुतली के रूप में हमारे देश का भावी प्रधानमंत्री खेल रहा था।
अंग्रेजों ने बड़ी सावधानी से 14 अगस्त को भारत का विभाजन कर पहले भारत से अलग पाकिस्तान को किया। इसके पीछे कारण यह था कि यदि उन्होंने सत्ता हस्तांतरण करते समय दोनों देशों को एक साथ स्वतंत्र कर दिया तो अधिकार की ब्रिटेन से के निर्णय को भारत बदल सकता है।
अपनी पहली योजना में पूर्ण सफल होने के पश्चात अंग्रेजों ने भारत को डोमिनियन स्टेटस देते हुए अर्थात भारत पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित रखने की शर्त पर भारत को आधी अधूरी आजादी देते हुए नेहरू को देश का प्रधानमंत्री बनाया। अंग्रेजों के इस खेल को गांधी भली प्रकार जानते थे। यही कारण था कि उन्होंने भी नेहरू को ही देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया। विषकन्या के खेल के शिकार बने नेहरू पर प्रधानमंत्री बनने का भूत इस प्रकार सवार था कि वह देश का एक और विभाजन तो करा सकते थे पर अपने आपको प्रधानमंत्री पद से पीछे नहीं हटा सकते थे, यही कारण था कि सरदार पटेल गांधी जी के कहने पर प्रधानमंत्री बनने की दौड़ से पीछे हो गए। सचमुच सरदार पटेल का यह निर्णय न केवल सराहनीय था बल्कि उनका यह बहुत बड़ा त्याग भी था।
भारत को आजाद करते समय ब्रिटिश सरकार ने डोमिनियन स्टेटस क्यों दिया? इसका उत्तर यह है कि वह अपने द्वारा भेजी गई विषकन्या लेडी माउंटबेटन के प्रभाव में फंसे नेहरू के शासनकाल में अपनी अरबों खरबों की पूंजी को भारत से बड़े आराम से अपने देश ले जाने के लिए समय चाहते थे। यही कारण था कि भारत के विधुर और व्यभिचारी प्रधानमंत्री नेहरू को विषकन्या के मोहजाल में फंसाए रखने के लिए लॉर्ड माउंटबेटन को लेडी माउंटबेटन सहित अभी भारत में और कुछ समय तक प्रवास करने का परामर्श दिया गया। ब्रिटिश सरकार की नीति के अंतर्गत इस प्रकार का प्रस्ताव स्वयं नेहरू ने ही रखा कि लॉर्ड माउंटबेटन को अभी कुछ समय और भारत में रहना चाहिए। इसके लिए उन्हें स्वतंत्र भारत का पहला गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। इस दौरान भारत की शक्ति सत्ता पर अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश पार्लियामेंट और ब्रिटिश राजा का ही नियन्त्रण चलता रहा। यह नियन्त्रण 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू होने के पश्चात समाप्त हुआ। इस काल में ब्रिटिश लोग अपने आपको पूर्णतया सुरक्षित रखते हुए भारत से ब्रिटेन ले जाकर स्थापित करने में सफल हो गए। भारत से अपनी अरबों खरबों की पूंजी को भी समेटने में सफल रहे।
यदि उस समय देश का प्रधानमंत्री सरदार पटेल को या नेताजी सुभाष चंद्र बोस को बनाया जाता तो क्या यह संभव होता कि ब्रिटिश अंग्रेज लोग भारत से को स्वतंत्र करने के पश्चात भी भारत की अरबों खरबों की पूंजी को यहां से उठाकर ले जाने में सफल हो जाते ? संभवत: कदापि नहीं। बस, यही वह कारण था जिसकी वजह से सरदार पटेल को स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक ‘भारत को समझो’ अभियान के राष्ट्रीय प्रणेता, जाने-माने इतिहासकार और लेखक हैं)