बाना लिया बैराग का, पर भीतरले में मोह
बिखरे मोती-भाग 195
जो लोग इस तन को सजाने संवारने में, उसे हर प्रकार से प्रसन्न रखने में उसके लिए ‘येन केन प्रकारेण’ अर्थोपार्जन करने में अर्थात अनाप-शनाप तरीके से धन कमाने में जीवनपर्यन्त लगे रहते हैं, वे आत्मा का हनन करते हैं, अक्षम्य अपराध करते हैं, वे इस लोक में तो अपयश के भागी बनते ही हैं- अपना परलोक भी बिगाड़ लेते हैं। काश! उनकी जीवन-शक्ति आत्मा को भक्ति-रस (पुण्य प्रार्थना) पिलाने में खर्च होती तो आत्मा रूपी हंस यह चोला (शरीर) छोडऩे से पहले इस संसार से अतृप्त और दु:खी होकर न जाता अर्थात प्यासा न जाता। इसलिए मनुष्य को समय रहते यह समझना चाहिए कि मानव शरीर ज्ञानार्जन से धनार्जन तथा धनार्जन से पुण्यार्जन और भगवद्भक्ति के लिए मिला है, जबकि अन्य योनियों में ऐसा करना संभव नही है। इसलिए हे मनुष्यो! इस अमृत घाट (मानव-शरीर) से प्यासे मत जाओ, प्रभु कृपा का लाभ उठाओ, खूब धर्म कमाओ। अपने हंस (आत्मा) की प्यास पुण्य और प्रार्थना के द्वारा अर्थात भक्ति के द्वारा इसी जन्म में बुझाओ, तभी यह मानव जीवन सार्थक सिद्घ होगा।
बाना लिया बैराग का,
पर भीतरले में मोह।
आत्मप्रवंचना में जिया,
किया स्वयं से द्रोह ।। 1128।।
व्याख्या :-हिन्दी साहित्य में यह कहावत बड़ी प्रचलित है :-
जो हाथ से छूट जाए, वह त्याग।
जो हिये से छूट जाए, वह वैराग।।
किंतु इस संसार में प्राय: देखने में आता है कि कतिपय लोग बाहर से वेश (बाना) तो बैरागी का बना लेते हैं अर्थात अनासक्त व्यक्ति (साधु संन्यासी) का गणवेश धारण कर लेते हैं, किंतु उनका हृदय आसक्ति से भरा होता है। वे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर (ईष्र्या) में आकण्ठ डूबे होते हैं।
यह तो मात्र आत्मप्रवंचना है, अर्थात अपने आपको जानबूझकर धोखा देना मात्र है। ऐसे लोग समाज को भी धोखा देते हैं वे छद्म वेश में मायावी (नकली) जीवन जीते हैं, सुखद भ्रांति में जीते हैं, दम्भ के दरिया में बहते जा रहे हैं, और लोगों से कहते हैं-हम तैरते जा रहे हैं। इसीलिए ऐसे लोग उपहास के पात्र बनते हैं। आत्म-प्रवंचना में जीने वाले लोग केवल अपने आपको ही धोखा नही देते हैं-अपितु धर्म अथवा भक्ति के मार्ग में पाखण्ड और आडंबर करके, लोगों के साथ छल-कपट करके, मिथ्याचरण करके, दुराचार करके अपनी आत्मा का भी हनन करते हैं। इस संदर्भ में बृहदारण्यक उपनिषद का ऋषि मनुष्य को सावधान करता हुआ कहता है-”जो मनुष्य आत्मा का हनन करते हैं वे मरकर गहरे अंधकार से आवृत्त असूर्य लोकों में जाते हैं।” (बृहदा. 4-4-11) अर्थात उन्हें ऐसे लोकों में जन्म मिलता है, जहां सूर्य की एक किरण भी नहीं पहुंच पाती है।
वे घोर अंधकार और घोर नरक में जन्म लेते हैं। अत: मनुष्य को चाहिए कि आत्मा का हनन किसी सूरत में भी न होने दे वह अपने आत्मस्वरूप को पहचाने। वैरागी व्यक्ति को तो बोध ही नहीं-अपितु प्रतिबोध होना चाहिए। भाव यह है जब इंद्रियां विषयों की तरफ जाकर उनका ज्ञान करती हैं, तब बोध होता है, विषयों में उल्टी जब अंदर की तरफ अर्थात आत्मा की तरफ लौटती हैं, तब जो ज्ञान होता है, इस अवस्था को केनोपनिषद के ऋषि ने बड़े सुंंदर शब्दों में प्रतिबोध कहा है।
क्रमश: