पन्ना की पारिवारिक पृष्ठभूमि
कहने का अभिप्राय है कि बलिदानों की पृष्ठभूमि से जुड़ी पन्ना गूजरी ने एक धाय माता के रूप में जब अपना कर्तव्य निर्वाह करना आरंभ किया और उसने देखा कि अब उसके लिए भी बलिदान के क्षण आ गए हैं तो उसने भी बलिदान करने में तनिक सी देर नहीं की। उसका बलिदान भी ऐसा था जो विश्व इतिहास में बेजोड़ है। यदि पन्ना को उदय सिंह के पालन – पोषण का दायित्व नहीं मिलता तो बहुत संभव है कि वह भी रानी कर्मावती के साथ जौहर कर लेती या उस समय सती हो जाती। जब उसके पति ने देश के लिए बलिदान किया था।
इस प्रकार के परिवेश को समझ कर पता चलता है कि पन्ना के जीवन में अब किसी प्रकार का विलासिता पूर्ण हास- परिहास शेष नहीं रह गया था। उसके पास राष्ट्र चिंतन, राष्ट्र धर्म और स्वधर्म के निर्वाह के अतिरिक्त सोचने, विचारने और समझने के लिए और कुछ नहीं था। हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जब कोई व्यक्ति ऐसे परिवेश में जी रहा होता है तो वह बलिदान के लिए ही जी रहा होता है। पन्ना चित्तौड़गढ़ के कुम्भा महल में रहती थी।
हम पूर्व में ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि बनवीर एक दासी पुत्र था परंतु महत्वकांक्षी बहुत अधिक था। वह राणा संग्राम सिंह के समय से ही अपने आपको कुछ अधिक ही महत्व देता था और यह मानकर चलता था कि महाराणा संग्राम सिंह के पश्चात वह भी उनके उत्तराधिकारियों में सम्मिलित होगा। उसने अपने आप को सत्ता की दौड़ से कभी बाहर नहीं समझा था और यही कारण रहा कि जब उसके अनुकूल समय आया तो बनवीर ने अपने आप को मेवाड़ का महाराणा घोषित कर दिया।
विक्रमाजीत और रानी का पुत्रमोह
रानी कर्णावती ने किसी भी प्रकार तिकड़म के आधार पर अपने पुत्र विक्रमाजीत को मेवाड़ का शासक तो घोषित करा दिया पर उसमें शासक की योग्यता का अभाव था। वास्तव में जब किसी भी राजवंश में सत्ता संघर्ष के तुच्छ हथकंडे अपनाए जाने लगते हैं तो वहां शासन के लिए उत्तराधिकारियों में संघर्ष हुआ ही करता है। मुगल वंश में सत्ता संघर्ष के निकृष्ट हथकंडों को अपनाया जाता था । कुछ वैसी ही स्थिति इस समय मेवाड़ के राजघराने में रानी कर्णावती के पुत्र मोह के चलते उत्पन्न हो गई थी। उसमें बनवीर की महत्वकांक्षा ने आग में घी का काम किया था। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मेवाड़ के राजघराने में जो कुछ भी हो रहा था वह केवल मेवाड़ तक सीमित था। सच यह है कि मेवाड़ में जो कुछ भी हो रहा था उससे पूरा राष्ट्र प्रभावित हो रहा था। हमारे ऐसा कहने का एक ही कारण है कि उस समय मेवाड़ भारत के राजाओं का शिरोमणि था। उसकी प्रत्येक गतिविधि का राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव पड़ता था। कहने का अभिप्राय है कि यदि उस समय मेवाड़ में सत्ता संघर्ष के लिए घटिया चीजों को अपनाया जा रहा था तो इसका प्रभाव राष्ट्रव्यापी था।
ऐसी परिस्थितियों में पन्ना गूजरी अपने पुत्र चंदन और राणा उदय सिंह का पालन पोषण कर रही थी। दामोदर लाल गर्ग जी ने लिखा है कि :- "पन्ना अपने पुत्र चंदन को कभी-कभी डांट दिया करती थी और उसे कहती बेटा ! मनुष्यत्व को धारण करो। तुम धायभाई कहलाते हो ...मुंह को धोकर भोजन करो... कुल्ला करो...। कभी-कभी कहती अरे मूर्ख ! तेरा पिता देश हित में चल बसा और मेरी स्वामिनी जौहर ज्वाला को अर्पित हो गई ,तुझे नाना का अभाव है और नानी संसार से विदा हो गई। अब तू अपनी मां को तो मत खा... कभी-कभी उसे समझाती कहती अरे कुर्ते के बटन तो ठीक से लगाया कर और धोती को सुगमता से बांधना कब सीखेगा। या यूं ही मेरी छाती को जलाता रहेगा। पन्ना कभी अपने लाडले को गाली देने लगती तो कहने लगती तू अभी तक पशुओं से गया बीता ही रहा , जबकि कुंवर उदय को गोदी में लिए रहती । ( लेखक की इस बात से हम सहमत नहीं हैं। क्योंकि उस समय उदय सिंह 2- 4 साल का बालक नहीं था बल्कि वह 15 - 16 साल का किशोर था। जिसे गोदी में नहीं लिया जा सकता। ) इसे देख देख कर कभी-कभी तो अपने पुत्र को भूल जाती और यह सोचकर फूली नहीं समाती कि मैं चित्तौड़गढ़ के स्वामी की धाय मां हूं। हे भगवान मेरे लाल को उम्र पूरी दे। जिससे मैं भी कुछ देख सकूं। अपने इस कुंवर को मेवाड़वासियों के त्याग, तपस्या और बलिदान की कहानियां सुनाया करती थी। और कुंवर के मन में वीरोचित भाव उत्पन्न किया करती थी। वह भावी स्वरूप की कल्पना पर मन ही मन प्रसन्न होती रहती थी। कहती थी कब मेरा कुंवर बड़ा होकर चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठे और मैं उस समय अपना मस्तक गर्व से ऊंचा कर सकूंगी।"
बनवीर की राक्षस वृत्ति
ऐसे ही भावों और विचारों से प्रेरित होकर पन्नाधाय अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए चित्तौड़ के भविष्य को संवार रही थी। उसे नहीं पता था कि नियती उससे क्या करवाना चाहती है? वह तो भविष्य के सपनों को संजो रही थी और मान रही थी कि वह जिस भाव के साथ अपना कर्तव्य निर्वाह कर रही है उसी की बेल पर एक दिन मीठे मीठे फल लगेंगे । जिनका लाभ संपूर्ण मेवाड़ को ही नहीं सारे भारतवर्ष को मिलेगा। जब पन्ना इतने पवित्र विचारों में खो कर अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए कुंवर उदय सिंह का पालन पोषण कर रही थी, उसी समय दुष्ट बनवीर राज्य सिंहासन पर विराजमान हो चुका था। उसने विक्रमादित्य का अंत कर दिया था और अब सोच रहा था कि वह किस प्रकार कुंवर उदयसिंह को भी अपने मार्ग से सदा सदा के लिए हटा दे ? मेवाड़ के महल में उस समय बनवीर की राक्षस वृत्ति एक नया इतिहास लिखने की तैयारी कर रही थी। जिसके लिए वह खूनी क्रांति करने को भी उद्यत था। कुंवर उदयसिंह की धाय माता पन्ना को महल के इन षड़यंत्रों के विषय में तनिक भी जानकारी नहीं थी।
अपने मार्ग के एक अवरोध अर्थात विक्रमादित्य को हटाने के पश्चात बनवीर के लिए अब उदय सिंह ही शेष रह गया था। और अब उसे उदय सिंह को भी अपने मार्ग से हटा देना था। बनवीर इस किशोर उदय सिंह को अपने मार्ग से हटाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर रात्रि के अंधकार को चीरता हुआ पन्नाधाय के निवास की ओर बढ़ता आ रहा था। तभी किसी विश्वसनीय व्यक्ति ने पन्ना धाय को पहले यह सूचित कर दिया कि महल में महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी गई है और अब कुछ ही क्षणों में उदयसिंह का जीवन समाप्त करने के लिए भी बनवीर आपके कक्ष में उपस्थित होने वाला है।
पन्ना ने लिया महत्वपूर्ण निर्णय
पन्ना ने अपने पहरेदार पन्ना खींची के माध्यम से इस समाचार को सुनते ही निर्णय ले लिया कि उसे अब क्या करना है? समय कुछ भी विचारने का नहीं था। जो कुछ भी सोचा है उसे कर देने का था। पन्ना अपने राज धर्म और राष्ट्र धर्म के प्रति पूर्णतया सजग थी। उसने उदय सिंह को एक टोकरी में सुलाकर उसे जूठी पत्तलों से ढक कर अपने विश्वासपात्र सेवक के साथ महल से बाहर भेज दिया। अब उसने अपने प्राण प्रिय पुत्र चंदन का चांद सा प्यारा मुखड़ा एक बार बड़ी गंभीरता से देखा और देखते ही अपनी ममता को पीछे धकेल कर चित्तौड़ की रक्षिका के अपने दिव्य संकल्प और स्वरूप को पहचानते हुए अपने पुत्र के मुंह पर चादर ओढा दी। उसे पता था कि इस समय कर्तव्य बड़ा है और भावनाएं पीछे छोड़ना ही उचित है।
पन्ना यह भी जानती थी कि यदि इस समय पल भर की भी देरी की गई तो परिणाम कुछ भी हो सकता है। कुछ ही क्षणों में बनवीर अपने हाथों में रक्त रंजित तलवार लिए उदय सिंह के कक्ष में प्रवेश करता है। उसने कक्ष में प्रवेश करते ही पन्ना माता से पूछा कि ‘उदय सिंह कहां है?’ धाय मां ने उंगली से संकेत किया कि पलंग पर सोने वाला बच्चा ही उदय सिंह है। राक्षस बने बनवीर ने अपनी तलवार के एक ही वार से पन्ना के पुत्र चंदन को उदय सिंह समझकर समाप्त कर दिया। पन्ना शांत बैठी देखती रही कि इतिहास कितनी क्रूरता के साथ आज उसकी परीक्षा ले रहा है? अपने कलेजे के टुकड़े चंदन के बलिदान पर भी वह शांत बैठी रही। उसने एक भी आंसू नहीं बहाया। क्योंकि वह जानती थी कि आज आंसू बहाने का अर्थ यही होगा कि बनवीर यह समझ लेगा कि उसने जो बच्चा मारा है वह हो न हो पन्ना का चंदन हो सकता है।
बनवीर के जाने के बाद पन्ना ने अपने आप को संभाला और बड़े गोपनीय ढंग से अपने पुत्र की अंत्येष्टि का प्रबंध किया। वह इस कार्य को अपने हाथों से ही रात्रि के अंधकार में ही पूर्ण कर लेना चाहती थी। तनिक कल्पना कीजिए कि एक मां के लिए वे क्षण कितने भावुक रहे होंगे ? साथ ही साथ यह भी सोचिए कि जिस मां ने इन भावुक क्षणों में भी अपने कर्तव्य विवेक के दीपक को बुझने नहीं दिया वह मां कितनी महान होगी ?
रात्रि में ही किए सब कर्तव्य पूर्ण
पन्ना यह भली प्रकार जानती थी कि यदि दिन में उसने अपने पुत्र का अंतिम संस्कार किया तो लोग पहचान जाएंगे कि यह उदय सिंह नहीं चंदन है और यदि इस बात की जानकारी बनवीर को हो गई तो वह फिर उदय सिंह को भी मार डालेगा। इस प्रकार वह अपने कर्तव्य धर्म को रात्रि के गहन अंधकार में ही पूर्ण विवेक के साथ संपन्न कर लेना चाहती थी। उसे भीतर ही भीतर रोना भी था और भीतर ही भीतर इस समय मेवाड़ और राष्ट्र के हित में मजबूत निर्णय भी लेना था। उसने अपने हाथों से अपने पुत्र का अंतिम संस्कार किया। पुत्र का अंतिम संस्कार करने के पश्चात वह यह कहकर वहां से चली गई कि अब वह यहां न रहकर अपने पीहर में जाकर रहेगी। ऐसा उसने इसलिए कहा था कि लोग बनवीर से जाकर ऐसा कुछ भी ना कहें जिससे उसकी अपनी गोपनीय योजना भंग हो जाए।
असीम वेदना के साथ पन्ना चित्तौड़ के राजभवन से बाहर निकल चुकी थी। यह एक बहुत ही रोमांचकारी घड़ी थी जब एक मां के भीतर वेदना होते हुए भी वह अपने पथ पर अविचलित थी, और किसी भी प्रकार की घबराहट ने उसे छुआ तक नहीं था।
पन्ना ने आज विकल्प को न चुनकर संकल्प को चुना था। वह विकल्पविहीन संकल्प की साक्षात मूर्ति बन चुकी थी। राष्ट्र आज उसका वंदन कर रहा था। यद्यपि जन सामान्य को उसके इस महान कार्य की बहुत बाद में जाकर पता चली थी। परंतु राष्ट्र की चेतना शक्ति अथवा उसकी आत्मा ने तो उसी दिन पन्ना के बलिदान को इतिहास के सुपुर्द कर उसका कीर्तिगान आरंभ कर दिया था। पन्ना ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर सूर्यवंशी महाराणा राजवंश का सूर्यास्त नहीं होने दिया। उसने मां भारती को भी मौन रहकर संकेतों में सब कुछ बता दिया कि आप निश्चिंत रहें मैं देश की स्वाधीनता के लिए बलिदानों की शाम नहीं होने दूंगी।
पन्ना जा मिली उदय सिंह से
मेवाड़ के राजभवन से बाहर निकल कर पन्ना उदय सिंह से जाकर मिली। उदय सिंह को देखते ही पन्ना के धैर्य का बांध टूट गया। वह रोती जा रही थी, पर बताती कुछ नहीं थी। उदय सिंह ने अंत में पूछ ही लिया कि मेरा भाई चंदन कहां है ? मां की चीत्कार निकल गई पर सच अब भी नहीं बताया। उदय सिंह को इधर-उधर की बातें बता कर शांत कर दिया। इसके बाद पन्ना अपने पुत्र उदय सिंह को ईडर के राजा के यहां लेकर पहुंची। यह वही राज्य था जहां से कभी राणा परिवार के मूल पूर्वज गोहिल से लेकर शिलादित्य तक ने शासन किया था। उन लोगों ने पन्ना को निराश किया और उसे वहां शरण नहीं दी। अंत में वह कोमलमीर पहुंची। जहां का शासक एक जैन मतावलंबी राजा आशाशाह था। राजा आशाशाह ने अपनी मां के आग्रह पर उदय सिंह को अपने यहां रख लिया। राजमाता के निर्देश पर राजा ने पन्ना से कह दिया कि आज से इस बच्चे की सुरक्षा का भार मेरे ऊपर है, तुम निश्चिंत रहो। ऐसा कथन सुनकर धाय माता पन्ना राजमाता के पैरों पर गिर पड़ी ,बोली – “हे राजमाता !.आप धन्य हैं। जो आपने मेरी सहायता करने का वचन मुझे दे दिया।”
इसके बाद पन्ना ने वहां से विदा ली। राजा आशाशाह के यहां पर उदय सिंह का वैसा ही पालन पोषण होना आरंभ हुआ जैसा एक क्षत्रिय राजकुमार के लिए अपेक्षित है। इसलिए यह नहीं समझना चाहिए कि कुंवर उदयसिंह का पालन पोषण वहां पर एक सामान्य बालक की भांति हुआ था। राजा आशाशाह ने उदय सिंह को अपना भतीजा बता कर उसकी शिक्षा-दीक्षा का वैसा ही प्रबंध किया जैसा एक राजकुमार के लिए होना चाहिए। जिसके कारण उसके भीतर वीरता के भाव उत्पन्न हुए और वह अस्त्र शस्त्र चलाने में पारंगत हो गया।
बनवीर और उसके मंत्री गण
बनवीर के सरदार और मंत्रीगण उसे अभी भी राजा नहीं मान रहे थे। एक दिन की बात है कि बनवीर ने अपने सभी सरदारों और मंत्रियों के लिए सहभोज का आयोजन किया। उस समय की परंपरा के अनुसार राणा बनवीर ने अपने थाल।में से कुछ सामग्री उठाकर चुंडावत सरदार के थाल में रख दी। इसे उस समय राजा के विशेष स्नेह का प्रतीक माना जाया करता था। चूंडावत बनवीर को उस समय राजा तो मानने लगा था पर अभी भी वह उसे कुलीन नहीं मानता था। यही कारण था कि उसे बनवीर का यह कृत्य अच्छा नहीं लगा और वह मारे क्रोध के जल उठा। चूंडावत थाली को वहीं छोड़ कर उठ गया।
इसके बाद वह अन्य सरदारों से कहने लगा कि आप लोगों को भले ही राणा बनवीर का यह आचरण मेरे प्रति उसका सम्मान लगा हो, पर वस्तुतः यह मेरा अपमान है और मैं मानता हूं कि बनवीर ने मेरा ही नहीं आपका भी अपमान किया है। यह कह कर चूंडावत तो वहां से चला ही गया पर शेष सरदार भी भोजन कोई यथावत छोड़कर उठ गए। इससे बनवीर और सरदारों के मध्य शत्रुता और भी अधिक बढ़ गई।
इन्हीं दिनों धीरे-धीरे यह समाचार चित्तौड़ के सरदारों के पास पहुंच गया कि उदय सिंह अभी जीवित है। ऐसा समाचार उनके लिए प्रसन्नता दायक था, परंतु इसके उपरांत भी इस बात की पुष्टि होना आवश्यक था कि जीवित रहा बच्चा उदय सिंह ही था या फिर कोई और है ,? अपनी प्रसन्नता को सहज रूप में हृदय में लिए चित्तौड़ के सरदार कुंभलगढ़ गए और राजा आशाशाह से उदय सिंह के बारे में पूछताछ की। राजा आशा शाह ने उन्हें स्पष्ट रूप से बताया कि मेरे यहां उदय सिंह को पन्नाधाय ने भेजा है। सारे सरदार पन्ना के त्याग से अभिभूत हो उठे और उन्होंने बूंदी के हाडा सरदार तथा पन्ना को गुप्त रूप से कुंभलगढ़ बुलवा लिया।
पन्ना आशाशाह के दरबार में पहुंची। उदय सिंह एक बार तो उसे पहचान नहीं पाया। पर जब उसने मां की आंखों में आंसू देखे तो उसे उसका चेहरा स्मरण हो आया और वह दौड़ कर उसकी छाती से चिपट गया। 15 40 ई0 में सभी सामंतों ने माता पन्नाधाय की उपस्थिति में कुंभलगढ़ के राज्य सिंहासन पर बिठाकर राणा उदय सिंह का राजतिलक किया।
उदय का इस प्रकार हुआ चित्तौड़ में दोबारा आना
जब बनवीर को यह सूचना मिली कि उदय सिंह जीवित है और सरदारों ने उसका राजतिलक भी कर दिया है तो वह अपनी सैन्य तैयारियां करने लगा। उसे यह स्पष्ट हो गया था कि अब उदय सिंह के साथ उसका संघर्ष होना तय है। चित्तौड़ के निकट महोली नामक स्थान पर उदय सिंह और बनवीर की सेनाओं का घमासान युद्ध हुआ। बनवीर को इस युद्ध में भागना पड़ा और वह चित्तौड़ के दुर्ग में ही आकर छिप गया। राणा उदय सिंह ने उसका पीछा करते हुए चित्तौड़गढ़ में प्रवेश किया। चित्तौड़गढ़ का पहरेदार राणा सांगा का निष्ठावान भील मेहता था। जिसने राणा उदय सिंह का सहयोग करने का मन बनाया और कुछ रसद भीतर आने की बात कहकर बनवीर से दुर्ग का द्वार रात में खोलने की अनुमति प्राप्त कर रात्रि में द्वार खोल दिया।
द्वार खुलते ही राणा उदय सिंह की सेना किले के भीतर प्रविष्ट हो गई। किले के भीतर भयंकर युद्ध हुआ और उस युद्ध में बनवीर का अंत हो गया। प्रातः काल होते-होते चित्तौड़गढ़ पर राणा उदय सिंह का ध्वज लहरा उठा। यह घटना जुलाई 1540 ईस्वी के प्रारंभ की है। उस समय राणा उदय सिंह की आयु 18 वर्ष की थी।
इस प्रकार राणा उदय सिंह ने बनवीर का अंत करके इतिहास की एक नई धारा के लिए रास्ता बनाने में सफलता प्राप्त की। परंतु इस सारी कहानी की नायिका केवल और केवल पन्नाधाय है। जिसके बलिदान ने चित्तौड़ को अंधेरे से निकालकर प्रकाश में प्रवेश कराया। यदि पन्ना उस समय अपने पुत्र का बलिदान नहीं करती तो निश्चित रूप से भारतवर्ष का इतिहास उतना गौरवपूर्ण नहीं होता, जितना आज हम देखते हैं। पन्ना के बलिदान ने इतिहास को कुछ और गौरवपूर्ण घटित होते देखने के लिए प्रेरित किया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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