वीरता को अपने आधीन करके उसे अपनी चेरी बनाकर रखना हर शासक के लिए आवश्यक माना जाता है, विशेषत: तब जबकि वीरता या साहस किसी विपरीत पक्ष वाले व्यक्ति के पास हों। तब हर शासक यह मानता है कि यदि इस व्यक्ति का पूर्णत: दमन करके नही रखा गया तो यह भविष्य में तेरे लिए अवश्य ही कष्टकर हो सकता है।
औरंगजेब और झुका
औरंगजेब ने महाराजा अजीतसिंह से समझौता तो कर लिया था परंतु महाराजा अजीत सिंह को अपने नियंत्रण में रखने के लिए अभी औरंगजेब को कुछ और करना उचित जान पड़ रहा था। इसलिए बादशाह ने 9 नवंबर सन 1700 ई. को एक शाही आदेश महाराजा के पास भेजा। जिसमें महाराजा को अपनी सेवा में आने का आदेश दिया गया था। महाराजा ने इस शाही आदेश को मानने के लिए अपनी ओर से शर्त रखी कि यदि उसके साथियों को वेतन में जागीर और कुछ नकद रूपया दिया जाए तो वह चार हजार सवारों के साथ दरबार में आ सकता है। बादशाह ने महाराजा की ये शर्त मान ली और उसके लिए अजमेर के कोषागार से 3000 रूपया देने का आदेश दिया।
महाराजा अजीतसिंह की समझ बढ़ी
महाराजा को अब यह बात समझ आने लगी थी कि मुगलों की किसी भी बात पर शीघ्रता से विश्वास करना आत्मघाती सिद्घ हो सकता है। अत: उसे बादशाह के द्वारा उसकी बात को इतनी शीघ्रता से मान लेने में कुछ षडय़ंत्र सा लगा। फलस्वरूप उसने अपनी बात मनवाकर भी शाही दरबार में आना उचित नही समझा। उसे डर था कि बादशाह उसे दरबार में बुलाकर भी अपना ‘वचन भंग’ कर सकता है। इसके अतिरिक्त उसके साथी भी उससे शाही दरबार में न जाने का दबाव बना रहे थे। बादशाह ने ऐसी परिस्थितियों में नई चाल चली और दुर्गादास राठौड़ को उसने महाराजा से दूर रखने के उद्देश्य से 1702 ई. में पाटन का फौजदार नियुक्त कर महाराजा से दूर भेज दिया। उधर सुजातखां की मृत्यु (जून 1701) हो जाने के उपरांत बादशाह ने अहमदाबाद का सूबेदार अपने पुत्र आजम को बना दिया था। इससे दुर्गादास राठौड़ की निभ नही सकी, इसलिए वह पुन: बादशाह के विरूद्घ विद्रोही हो उठा। दुर्गादास ने अपने मार्ग पर चलने के लिए महाराजा अजीतसिंह को भी तैयार कर लिया। तब बादशाह ने आजम को स्पष्ट संदेश दिया कि वह दुर्गादास को या तो मार डाले, या फिर उसे किसी प्रकार बादशाह के पास भेज दे।
दुर्गादास राठौड़ और आजम की भेंट न हो सकी
अपनी योजना के अनुसार आजम ने दुर्गादास से भेंट करनी चाही और भेंट का समय व स्थान भी दोनों में निश्चित हो गया। दुर्गादास उससे मिलने के लिए चल दिया। साबरमती के निकट बरेज नामक स्थान पर दोनों को मिलना था, परंतु मिलने से पहले दुर्गादास को किसी षडय़ंत्र की आशंका ने आ घेरा। उसके कुछ विश्वसनीय लोगों ने भी उसे सचेत कर दिया। इसलिए वह बिना मिले ही लौट लिया। तब आजम को बड़ा कष्ट हुआ। उसकी शाही सेना लौटते हुए दुर्गादास का पीछा करने लगी। आजम की सेना ने दुर्गादास को कुछ दूरी पर ही घेर लिया। दोनों पक्षों में युद्घ होने लगा। युद्घ में दुर्गादास का 18 वर्षीय वीर पौत्र भी लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया। बहुत से योद्घा दुर्गादास को खोने पड़ गये पर शाही सेना को भी निराश होकर लौटना पड़ गया। दुर्गादास राठौड़ ने एक बार पुन: शाही सेना को अपनी वीरता का लोहा मानने के लिए बाध्य कर दिया था।
जोधपुर-मारवाड़ में भडक़ उठा स्वतंत्रता का आंदोलन
तब दुर्गादास राठौड़ सीधे महाराजा अजीतसिंह से जाकर मिला। इतिहास के समकालीन खण्ड के इन दोनों नायकों की यह भेंट बड़ी महत्वपूर्ण थी। दोनों ने ही यह भली प्रकार समझ लिया था, कि मुगलों से की गयी मित्रता किसी भी स्थिति में विश्वसनीय नही मानी जा सकती। फलस्वरूप दोनों ने दुगुणे उत्साह से सुसज्जित होकर मुगलों के विरूद्घ निरंतर लड़ते रहने का निर्णय लिया। जिससे दुर्गादास राठौड़ के महाराजा के पास पहुंचते ही जोधपुर-मारवाड़ में स्वतंत्रता आंदोलन गतिशील हो उठा।
प्रसन्नता अस्थायी रही
महाराजा अजीतसिंह और दुर्गादास राठौड़ के बीच हुई वार्ता से यद्यपि हमारा स्वतंत्रता आंदोलन जोधपुर मारवाड़ में गति पकड़ गया, जिससे देशभक्तों को बड़ी प्रसन्नता हुई। पर प्रसन्नता का यह शुभ दिन अधिक देर तक अपना प्रभाव न डाल सका।
1705 ई. में महाराजा और दुर्गादास के मध्य मतभेद बढ़ गये तो दुर्गादास अप्रसन्न होकर पुन: बादशाही की सेना में चला गया। तब मोहकमसिंह इंद्रसिंहोत अपनी सेना के साथ जालौर पर अधिकार करने के लिए चल दिया। महाराजा ने उसके आक्रमण की ओर विशेष ध्यान नही दिया। इसलिए मोहकमसिंह ने बड़ी सहजता से जालौर पर अपना अधिकार कर लिया। महाराजा को कुछ विशिष्ट सरदारों और शवों ने मोहकमसिंह के विरूद्घ अपना सहयोग प्रदान किया और एक बड़ी सेना के साथ उन लोगों ने मोहकमसिंह का विरोध करना आरंभ किया। मोहकमसिंह उनके विशाल सैन्य दल को देखकर भाग गया।
दुर्गादास का मुगलों के विरूद्घ विद्रोह
उधर दुर्गादास ने भी गुजरात में बादशाह के विरूद्घ पुन: विद्रोह कर दिया। उसने पाटन के नायब फौजदार शाहकुली को परास्त कर उसका अंत कर दिया और उसके पश्चात बीरम गांव के अधिकारी मासूकुली को भी हरा दिया। इधर महाराजा अजीतसिंह अपने राज्य में बादशाह के विरूद्घ विद्रोह पर उतारू हो गया। इसी समय 3 मार्च 1707 ई. को बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हो गयी।
बादशाह की मृत्यु के समाचार ने जहां उसके विरोधियों को विद्रोह करने का अवसर प्रदान कर दिया वहीं उसके अपने परिवार में उत्तराधिकार का परंपरागत युद्घ आरंभ हो गया। जिससे मुगलों में पारिवारिक कलह सतह पर आ गया। यहां से मुगल साम्राज्य के बिखरने का शुभारंभ हो गया। वैसे यदि बादशाह औरंगजेब के शासन काल पर सूक्ष्मता से चिंतन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि उसके शासनकाल में चारों ओर विद्रोह हो रहे थे सर्वत्र अशांति व्याप्त थी हमारा मानना है कि ये विद्रोह और अशांति का वातावरण ही उसके विशाल साम्राज्य को उसकी मृत्यु के उपरांत छिन्न-भिन्न कराने का एकमेव प्रमुख कारण था।
साढ़े तीन माह दिल्ली बिना बादशाह के रही
3 मार्च से लेकर 19 जून 1707 ई. तक दिल्ली बिना बादशाह के रही। लगभग साढ़े तीन माह तक मुगल साम्राज्य में अराजकता व्याप्त रही। यह ऐसी अराजकता थी जिसमें बादशाह के विरोधी अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर रहे थे और मुगल साम्राज्य दिन-प्रतिदिन बड़ी तीव्र गति से सिमटता जा रहा था।
19 जून 1707 को यह स्पष्ट हो गया कि मुगल बादशाह औरंगजेब का उत्तराधिकारी मौअज्जम होगा। अब तक मौअज्जम ने अपने भाईयों को या तो परास्त कर दिया या समाप्त कर दिया। तब वह बहादुरशाह के नाम से राज्यसिंहासन पर बैठा। वह बहादुर इसीलिए था कि उसने अपने सभी पारिवारिक प्रतिद्वंद्वियों को उत्तराधिकारी के युद्घ में परास्त कर दिया था।
बादशाह की मृत्यु का समाचार दुर्गादास राठौड़ और महाराजा अजीतसिंह के लिए भी प्रसन्नता का विषय था। लगभग आधी शताब्दी के क्रूर शासन काल (1658 से 1707 ई.) से लोगों को मुक्ति मिली थी। जिसका लाभ उठाया जाना उचित ही था। अत: महाराजा देवलनाही सूराचंद से 9 मार्च को ही जोधपुर की ओर चल दिया। महाराजा 120 कोस की यात्रा पूर्ण कर 12 मार्च को जोधपुर पहुंच गये। वहां बहुत से सरदारों ने महाराजा की अगुवानी की। इनमें जाफर बेग भी सम्मिलित था। जोधपुर के नायब फौजदार जाफरअली ने महाराजा का असफल प्रतिरोध किया। वह भाग खड़ा हुआ, महाराजा की सेना ने भागती हुई शाही सेना का पीछा किया। जितनों को मारा जा सकता था उतनों को तो मारा गया, और जितनों को बंदी बनाया जा सकता था उतनों को बंदी भी बनाया गया।
विजयी महाराजा का अपने शहर में प्रवेश
महाराजा ने बड़े हर्षोल्लास के साथ अपने शहर में प्रवेश किया। सारे शहर में उत्सव मनाया जाने लगा। राजा ने एक सप्ताह तक दुर्ग की तलहटी के महलों में निवास किया। महाराजा के आगमन से मंदिरों में पुन: पूजा-पाठ प्रारंभ हो गया। सर्वत्र स्वतंत्रता के मंगल गीत गाये जाने लगे। उगते हुए सूर्य के समान सभी लोगों ने अपने महाराजा को प्रणाम किया। मारवाड़ की जनता के लिए यह शुभ दिन बड़े संघर्षों के पश्चात आया था। बड़ी तपस्या करनी पड़ी थी, जोधपुर को आज का सूर्य देखने के लिए। इसलिए लोागें को असीम प्रसन्नता तो हो ही रही थी साथ ही कई लोगों की आंखों में तो प्रसन्नता की गंगा-जमुना के ही साक्षात दर्शन हो रहे थे। सचमुच स्वतंत्रता जब खोती है-तो भी रूलाती है और जब मिलती है तो भी रूलाती है। आज लोगों के लिए अपने बलिदानियों को भी स्मरण करने का पावन दिवस था। जिनकी स्मृतियां अनायास ही उनके मानस पर उभरती थीं और लोग अपने-अपने परिजनों और प्रियजनों के बलिदानों को स्मरण कर अनायास ही कह उठते थे-‘काश! आज वह भी होते।’
मां भारती का आंगन होली के रंगों से रंग गया था। वैसे भी मार्च होली का ही माह होता है। जोधपुर के लिए इस बार की होली हर बार की होली से सर्वथा भिन्न थी। बहुत लंबे समय के पश्चात आज भगवा होली खेलने का अवसर लोगों को मिला था। आज उन्हें लग रहा था कि-‘हमारी ही जमीं है और हमारा ही आसमां है।’
अप्रैल में दुर्गादास राठौड़ जोधपुर पहुंचे। उनके हृदय में जोधपुर के प्रति असीम सम्मान रहा था। आज पूरे जीवन की साधना सफल हुई थी, इसलिए दुर्गादास के लिए जोधपुर की प्रसन्नता में सम्मिलित होना अनिवार्य था।
महाराजा व दुर्गादास की पुन: भेंट
जब अप्रैल में दुर्गादास राठौड़ के जोधपुर के निकट पहुंचने का समाचार महाराजा को मिला तो वह भी सारे मतभेदों को भुलाकर कृतज्ञ भाव से किले से बाहर निकलकर आये और भांडेसर नामक तालाब के पास आकर अपने महान संरक्षक और योद्घा का स्वागत किया। सारे मतभेद यूं विलीन हो गये मानो थे ही नही। जीवन की संध्या की ओर बढ़ते दुर्गादास के लिए भी यह घड़ी बहुत ही प्रसन्नता दायिनी थी। महाराजा को अपने स्वागत के लिए खड़ा देखकर उनका हृदय भी श्रद्घा से भर गया। सारी चीजों को एक ओर छोडक़र यह महान योद्घा अपने महाराजा को सामने खड़ा देखकर अपने घोड़े से उतरा और उतरकर सीधे महाराजा के पैरों में नतमस्तक हो गया।
आज उसे महाराजा अजीतसिंह में अपने दिवंगत महाराजा जसवंतसिंह का चित्र स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था। पूरे जीवन की संघर्षमयी गाथा ने दोनों महायोद्घाओं को एक दूसरे के गले मिलने के लिए प्रेरित किया और पलक झपकते ही नम आंखों से महाराजा ने दुर्गादास को अपनी भुजाओं में ले लिया।
दिखाई दिये राजनीति के स्वरूप
राजनीति कितनी निश्छल होती है? राजनीति कितनी भावुक होती है? राजनीति कितनी निर्मल होती है? राजनीति कितनी भाव प्रधान होती है? राजनीति कितनी षडय़ंत्र विहीन होती है? जिन्हें इन प्रश्नों का उत्तर खोजना हो वे महाराजा और दुर्गादास के इस पवित्र मिलन को देख सकते हैं, जिन्हें देखकर उपस्थित लोगों ने ही नही सभी दिशाओं ने भी उस समय पुष्पवर्षा की और लोग प्रसन्नता व हर्ष के साथ किले की ओर बढऩे लगे।
महाराजा ने कुछ कालोपरांत दुर्गादास को अपना प्रधानमंत्री बनाना चाहा। परंतु दुर्गादास ने अपनी वृद्घावस्था को देखते हुए इस महत्वपूर्ण पद को स्वीकार करने में असमर्थता प्रकट की तो उसी के परामर्श से महाराजा ने यह पद चाम्पावत मुकुंददास पाली को दे दिया। इसके पश्चात महाराज ने मेड़ता के शाही फौजदार मोहकमसिंह को भागकर उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
शाहजादा मुअज्जम ने उत्तराधिकार के युद्घ में महाराजा की सहायता मांगी थी। उसने महाराजा को लिखित पत्र में उनका राज्य उन्हें लौटाने और सात हजारी मनसबदार बनाने का वचन भी दिया था। इसलिए मार्च अंत में महाराजा को एक बड़ी सेना के साथ दिल्ली आने का आदेश दिया था। महाराजा के पास ऐसे कई संदेश दिल्ली से गये परंतु वह किसी भी प्रकार से इन संदेशों से प्रभावित ही हुए वह तटस्थ रहे और उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि हम इस उत्तराधिकार के युद्घ में किसी का भी पक्ष नही लेंगे, वैसे भी महाराज को मुअज्जम ही नही दूसरा पक्ष भी अपनी ओर लाने के लिए बुला रहा था।
मुअज्जम का आक्रमण
अब जब मुअज्जम (बहादुर शाह) बादशाह बन गया तो उसने महाराजा की तटस्थता का उचित पुरस्कार देने के उद्देश्य से राजस्थान पर नवंबर 1707 ई. में चढ़ाई कर दी। महाराजा ने यह जानकारी प्राप्त करते ही कि मुगल बादशाह मुअज्जम ने राजस्थान पर आक्रमण कर दिया है, अपने विश्वसनीय लोगों की देखरेख में अपने परिजनों को सिवाना भेज दिया, और किले को सुदृढ़ करते हुए सेना एकत्र करनी आरंभ कर दी। इस अभियान में दुर्गादास राठौड़ भी महाराजा अजीतसिंह के साथ रहे।
महाराजा और मुअज्जम की भेंट
24 जनवरी 1708 ई. को बादशाह ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। परंतु साथ ही उसने महाराजा और दुर्गादास राठौड़ से मिलने के लिए पत्राचार भी जारी रखा। अंत में 11 फरवरी 1708 को महाराजा अजीतसिंह बादशाह से मिले। महाराजा ने बादशाह को एक सौ स्वर्ण मुद्राएं प्रदान कीं और बादशाह ने उसे महाराजा मान लेना स्वीकार किया। बहादुरशाह ने जोधपुर का नाम परिवर्तित कर मुहम्मदाबाद कर दिया। तीन दिन पश्चात दुर्गादास भी बादशाह से मिला तो उसने दुर्गादास का भी अच्छा सम्मान किया और उसने दुर्गादास को एक खिलअत व एक जड़ाऊ खंजर देकर सम्मानित किया। बादशाह ने महाराजा को 3500 सवार का मनसब बनाया और उसके चार पुत्रों को भी मनसब बनाने की घोषणा की।
जोधपुर को इस प्रकार अपने आधीन लाकर बादशाह अपने भाई कामबख्श के विद्रोह को दबाने के लिए दक्षिण की ओर चल दिया। उसने इस अभियान में महाराजा को भी अपने साथ चलने को कहा। महाराजा कुछ दूर तक बादशाह के पीछे चले पर कुछ पर चलकर लौट आये।
हिंदू शक्ति ने लिया महत्वपूर्ण निर्णय
इसके उपरांत महाराजा अजीतसिंह ने उदयपुर की ओर चलने का निर्णय लिया। वहां महाराजा अजीतसिंह ने महाराणा अमरसिंह, और सवाई जयसिंह, के साथ बैठक कर देश की और हिंदू जाति की दयनीय दशा पर विशेष चिंतन मनन किया। इन तीनों शक्तियों के मध्य देर तक चले विचार विनिमय के उपरांत निर्णय हुआ कि आमेर, जोधपुर और उदयपुर के तीनों राज्य मिलकर मुगलों का सामना करेंगे और जोधपुर व आमेर पर अपना अधिकार करेंगे। यह घटना 20 अप्रैल 1708 की है।
बादशाह ने इस घटना की सूचना पाते ही जयसिंह को उसका राज्य आमेर लौटा दिया और महाराणा के लिए अपने पुत्र से पत्र लिखवाया कि वह किसी भी प्रकार की विद्रोही गतिविधियों में ना तो सम्मिलित हो और ना ही उन्हें अपना संरक्षण प्रदान करे। स्पष्ट है कि बादशाह ने ऐसा पत्र इन राजाओं में फूट डालने के लिए ही उठाया था।
हिंदू राज्य होने लगे स्वतंत्र
29 जून को महाराणा ने अपनी सात हजार की सेना का सहयोग देकर जोधपुर पर पुन: महाराजा का अधिकार स्थापित करा दिया। सवाई जयसिंह ने महाराणा का किले में पुन: राजतिलक किया। महाराणा ने भी इसी समय अपने पुर माडल और बबनौर परगनों पर अधिकार कर लिया। बादशाह अपनी चालें चलता रहा पर इन लोगों ने उसकी लुभावनी बातों पर कोई ध्यान न देकर अपने-अपने राज्यों की स्वतंत्रता पर ध्यान देना जारी रखा। राज्यों में इन तीनों शक्तियों का संगठन उस समय की एक असाधारण घटना थी, जिसके अच्छे परिणाम भी आने लगे थे। इसका एक सुखद परिणाम यह भी था कि आमेर पर भी सवाई जयसिंह का अधिकार हो गया। फलस्वरूप मुगल साम्राज्य से ये तीनों राज्य ही स्वतंत्र हो गये।
हिन्दू सेना ने सांभर पर किया आक्रमण
इन तीनों राज्यों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के पश्चात 1708 ई. में पुष्कर में बैठकर सवाई जयसिंह, महाराजा अजीतसिंह और दुर्गादास राठौड़ ने मिलकर बादशाही राज्यक्षेत्र में स्थित सांभर पर आक्रमण करने का निर्णय किया। इन दोनों की संयुक्त सेना ने शीघ्रता से सांभर पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया, परंतु 3 अक्टूबर 1708 को शाही सेना ने सांभर पर आक्रमण कर दिया। देवयानी के मंदिर के निकट दोनों सेनाओं में घमासान युद्घ हुआ। इसमें अनेकों राजपूत हिंदू मारे गये। परंतु उसके पश्चात भी युद्घ में राजाओं की सेनाओं को पराजय का ही मुंह देखना पड़ा।
नरूका सरदारों का स्मरणीय सहयोग
इस पराजय के पश्चात जब शाही सेना विजयोत्सव मना रही थी तो सबायी जयसिंह की ओर से लडऩे के लिए कुछ विलम्ब से पहुंची नरूका राव उमराव सिंह उनियारा और उनके साथी वीर सरदारों की सेना ने उस पर अचानक हमला बोल दिया।
इस हमले में सारा हिसाब चुकता कर दिया गया। अंतिम विजय नरूका सरदारों की हुई। भागती हुई मुगल सेना को पीछा करके दूर तक मारा गया। मुगलों का तोपखाना और अन्य युद्घ सामग्री लूट ली गयी। सवाई राजा जयसिंह ने राव उनियारा को इस कार्य के लिए विशेष सम्मान दिया। उसके पश्चात राज महल में आने पर राव उनियारा को पांच तोपों की सलामी दी जानी आरंभ कर दी गयी और उसके अधिकार क्षेत्र में भी वृद्घि कर दी गयी। उसे राव राजा की उपाधि दी गयी।
छत्रसाल को भी ले लिया अपने साथ
हिंदुस्तान के सम्मान को बचाने की भावना अब इन दोनों राजाओं पर सवार हो गयी। उत्साहित राजाओं ने महाराणा अमरसिंह और छत्रसाल को भी अपने अभियान में सम्मिलित करने में सफलता प्राप्त कर ली। उन्होंने छत्रसाल के लिए लिखा था-
”यदि आप जैसे सरदार कटिबद्घ हो जाएं तो संपूर्ण हिंदुस्तान की शर्म (सम्मान) रह जाएं। राजपूतों ने समस्त जमींदार, मनसबदार तथा राजाओं के बादशाही थाने अपने-अपने क्षेत्रों से हटा दिये हैं, महाराणा उदयपुर ने भी आपको इस विषय में लिखा होगा। अब यह किसी एक की बात नही है बल्कि समस्त हिंदुस्तान की बात है। (इससे स्पष्ट है कि यह पत्र संपूर्ण हिंदुस्तान में क्रांति कर सारे देश के सम्मान को बचाकर स्वतंत्रता की भावना से प्रेरित होकर लिखा गया। जिसमें दोनों राजाओं के भीतर की राष्ट्रीय भावना स्पष्ट होती है। इसलिए इन सबको राष्ट्रवाद का ध्वजवाहक माना जाना चाहिए और यह भी मानना चाहिए कि भारत में राष्ट्रवाद की भावना किसी विदेशी सत्ताधीश की देन नही है-लेखक) आप शीघ्र इधर आयें, पूर्व के क्षेत्रों के बड़े-बड़े जमींदारों के नाम भेजें, जिससे मैं और महाराणा विश्स्त व्यक्तियों के हाथ उनको पत्र भेजें।”
राजा जयसिंह ने राजा साहू को भी लिखा पत्र
राजा जयसिंह ने छत्रपति शिवाजी के पौत्र राजा साहू को भी लिखा कि बादशाह हिंदुओं के सम्मान से खिलवाड़ कर रहा है अब हिंदुओं के सम्मान का और उनके धर्म की रक्षा का प्रश्न है। अत: आपको चाहिए कि बादशाह बहादुर को दक्षिण से सुरक्षित न लौटने दें। बादशाह को दक्षिण में ऐसा उलझाकर रखें जैसा कि आपके पिता शिवाजी महाराज ने बादशाह औरंगजेब को उलझाकर हिंदुस्तान के सम्मान की रक्षा की थी। राजा जयसिंह ने इस समय जिस प्रकार अपनी भूमिका का निर्वाह किया उससे उन्होंने बहुत बड़ी देश सेव कर डाली थी। उन्होंने उस समय कूटनीति की रक्षा की थी और राजनीति का एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया। जिसमें देश की स्वतंत्रता के लिए हमारे तत्कालीन नायकों द्वारा बनायी गयी एक गोपनीय रणनीति की योजना की अति सुंदर झांकी स्पष्ट दिखाई देती है।
इस प्रकार के मनोभावों ने देश के राजाओं के पारस्परिक मतभेदों की धूल को मिटाकर देश में राष्ट्रीयता का परिवेश सृजित करने में सहायता की जिसके अच्छे परिणाम आये और हिंदूशक्ति का संगठनीकरण होने की भावना को बल मिला। इस संगठनीकरण ने देश में स्वराज्य चिंतन को लोगों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
क्रमश: