तुर्किस्तान
कर्नल टॉड का कहना है कि-”जैसलमेर के वृत्तांत में लिखा है कि यहां के यदु विक्रम से काफी समय पूर्व से ही गजनी और समरकन्द में शासन करते थे। वे यहां महाभारत के युद्घ के पश्चात आकर बस गये थे और फिर इस्लाम के उदय होने के पश्चात उन्हें भारत में धकेल दिया गया था।”
कर्नल टॉड का यह भी मत है कि जैसलमेर के यदुवंशियों ने जबुलिस्तान पर शासन किया और गजनी की स्थापना की। टॉड का मत है कि अब्दुलगाजी तूर का पुत्र वमक पुराणों का ‘तुरीश्क’ है। उसके उत्तराधिकारियों ने इस स्थान को अपना नाम तुर्किस्तान दिया। बाद में इस देश के लोग तुर्क और यह देश तुर्किस्तान कहलाया। जब तुर्कों ने भारत पर आक्रमण किये और यहां के कुछ भू-भाग पर अपना शासन स्थापित करने में सफलता प्राप्त की तो उन्होंने अपने आपको भारत और भारतवासियों से कहीं अधिक श्रेष्ठ सिद्घ करने का प्रयास किया।
देशों के नामों के पीछे लगने वाला ‘स्तान’ वास्तव में संस्कृत का ‘स्थान’ शब्द ही है जो कि किसी वंश, जाति, वर्ग या सम्प्रदाय के लोगों के निवास स्थान की ओर संकेत करता है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि समय के अनुसार जिन लोगों ने अपना निवास स्थान छोडक़र दूर देश में जाकर अपना निवास बनाया, वही कालांतर में मजहब परिवर्तन हो जाने पर भारत के शत्रु बनकर भारत पर ही आक्रमण करने लगे।
हमें काउंट बिऑनस्टि अर्ना का यह कथन भी याद रखना चाहिए-”विश्व में हिंदुओं की कोई बराबरी नहीं कर सकता। हिंदुओं की उच्च सभ्यता फैलते-फैलते पश्चिम में इथियोपिया, ईजिप्ट तथा फिनिशिया तक गयी पूर्व में स्याम, चीन और जापान तक पहुंची। दक्षिण में सीलोन और जावा, सुमात्रा तक फैली और उत्तर में ईरान चैल्डी और कॉलफिस होते हुए ग्रीस तथा रोम तक फेेली और अंत में तो सुदूर के हायपरबोरिअन्स के प्रदेश में भी जा धमकी।”
एडवर्ड पोकॉक ‘इण्डिया इन ग्रीस’ में बहुत गहरे इतिहास की ओर संकेत करते हैं। जिसे हमें समझना चाहिए। वह लिखते हैं-”ग्रीस का सारा समाज, सैनिकी या नागरी, प्रमुखत: एशियाई और अधिकतर भारतीय ढांचे का था। इससे पता लगता है कि भारतीयों द्वारा उस प्रदेश को बसाने के कारण वहां उनका धर्म और भाषा दीखती है। भारत से जो राजकुल या सरदार दरबारियों के घराने यकायक लुप्त से हो गये वे ही ग्रीस देश में प्रकट होकर ट्राय के समरांगण में लड़े थे।”
स्केण्डिनेविया
काउण्ट ब्जोर्नस्टजर्ना ने भारतीय वैदिक संस्कृति के विश्व व्यापी प्रभाव पर गहन अध्ययन किया था। उन्होंने विश्व के विभिन्न देशों की सामाजिक व धार्मिक परम्पराओं को बड़ी सूक्ष्मता से देखा और समझा। उसके पश्चात फिर उन्हें वैदिक धर्म की सामाजिक व धार्मिक परम्पराओं के साथ तुलनात्मक रूप से जांचा-परखा। तब अपने निष्कर्ष जो उन्होंने लिखे वे सचमुच हर भारतीय के लिए गौरवप्रद हैं। जिन्हें पढकर हर भारतवासी को लगेगा कि हम जिन पूर्वजों की संतानें हैं वे कितने महान और विद्वान थे? स्केण्डिनेविया के विषय में उक्त लेखक का मानना है कि-” हमें इस बात पर कोई भी संदेह नहीं है। कि प्राचीन स्केण्डिनेविया की धार्मिक पुस्तक ‘एडडा’ वेद से ही ली गयी है।”
अरब
संस्कृत में ‘अर्वन’ का अर्थ घोड़ा है। इसका अभिप्राय है कि जहां घोड़े रहते हैं-उस स्थान को ‘अर्व’ कहा जाता है। यह सभी जानते हैं कि अरब के घोड़े बहुत प्रसिद्घ हैं। अत: अरब का नामकरण अरब क्यों हुआ? यह स्पष्ट हो गया कि अरब को अरब नाम हमने ही दिया है। गायों के बड़े चरागाह को जिस प्रकार ‘ब्रज’ कहा जाता है वैसे ही भेड़, बकरियों के चरागाह को या देश को गान्धार कहा जाता है। वर्तमान गान्धार की यही स्थिति है। महाभारत की गान्धारी इसी देश की थी। अरब में ही रामानुज सम्प्रदाय का प्रचारक यवनाचार्य उत्पन्न हुआ था। विद्वानों की मान्यता है कि वह 9वीं शताब्दी में भारत आया था। यवनाचार्य ने भारत केे वर्तमान तमिलनाडु प्रांत में शूद्रों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्घ संघर्ष कर रहे महात्मा शटकोप की सहायता की थी। यवनाचार्य को ब्राह्मण कुलोत्पन्न माना गया है। ‘एशियाटिक रिसर्चेस’- भाग 10, से यह तथ्य सिद्घ होता है। यहां के मुसलमान इस्लाम स्वीकार करने से पूर्व अपने आपको ब्राह्मण ही कहते थे। इस प्रकार यहां प्राचीनकाल में आर्य वैदिक संस्कृति का ही बोलबाला था और उसी का वर्चस्व था।
फिनिशया और चाल्डिया
संस्कृत में ‘पणि’ ठग, धोखेबाज और धनलोलुप गिरोह को कहा जाता है। आर्यों ने प्राचीनकाल में ऐसे व्यापारियों को जाति बहिष्कृत (पापी लोगों को जाति बहिष्कृत करने की परम्परा भारत में बड़ी प्रसिद्घ रही है और कहीं कहीं तो यह परम्परा आज भी जीवित है।) कर दिया था। ये लोग धनलोलुप होने से ‘पणि’ और चोर होने से ‘चोल’ कहलाये थे। इन्होंने भारत में दक्षिण में जाकर ‘पाण्डय’ और ‘चोल’ प्रदेश बसा लिये थे। कुछ लोगों ने सत्य को दृष्टि से ओझल कर इन्हीं जाति बहिष्कृत लोगों को आर्यों द्वारा उत्तर भारत से खदेडऩे का मिथ्या और भ्रामक तथ्य पुस्तकों में लिख दिया है। ये ‘पाण्डय’ या पणि और चोल लोग विदेशों की ओर भी भगाये गये तो वहां इन लोगों ने ‘फिनिशिया’ और ‘चाल्डिया’ नामक देश बसा लिये। इन्हीं पणि और चोल लोगों ने ही बेबीलोनिया को भी आबाद किया था। बेबीलोनिया के वायु देवता का नाम ‘मर्तु’ है जिसे विद्वानों ने संस्कृत के ‘मरूत’ का अपभ्रंश माना है।
मेसोपोटामिया और असीरिया
असीरिया शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के असुर शब्द से मानी गयी है। वहां पर आर्यों के राजाओं की एक लम्बी श्रंखला हमें मिलती है, यद्यपि अब यह श्रंखला काफी टूट-फूट चुकी है और इतिहास के सच को कूड़े के ढेर में छुपाने में लोगों ने पर्याप्त सफलता भी प्राप्त कर ली है। परंतु इसके उपरांत भी बेरीडेल कीथ ने वहां के स्वरदत्त, जशदत्त और सुबन्धि जैसे राजाओं के नामों से सिद्घ किया है कि ये सभी आर्य थे। यहां के राजा असुर नासिरपाल और असुर वाणीपाल के नाम के पहले असुर शब्द लगा होने से विदित होता है कि ये लोग स्वयं को असुर मानते थे और उसे अपने नाम के साथ भी स्वेच्छा से प्रयोग करते थे। वैसे आर्यों ने यह उपनाम उन लोगों को दिये जो आसुरी प्रवृत्ति के थे। आसुरी प्रवृत्ति के लोगों को अपने आप से दूर बसाने का आर्यों का लक्ष्य यही था कि इनके आसुरी स्वभाव से जनसाधारण को कोई कष्ट ना हो। पर कालांतर में हमारा यह सदगुण भी हमारे लिए घातक बन गया। जाति बहिष्कृत लोग धीरे-धीरे अलग होकर नये-नये देश बनाते चले गये और उसी अनुपात में भारत और भारतीयता से भी अपने आपको दूर करे चले गये।
ए. बेरीडल कीथ का मानना है कि दशरथ नामक मितानी राजा इजिप्ट के राजा का साला था, यह आर्य था। ई. सन के 1300-1400 वर्ष पूर्व यहां राज्य करता था। इसी प्रकार मितानियों के एक दूसरे राजा का नाम हरि था- जो आर्य भाषा का ही नाम है। कुछ समय पूर्व मेसोपोटामिया में पुराने मकानों की खुदाई से मिट्टी की पकी हुई लिखित ईंटें प्राप्त हुई थीं उन पर मितानी और हिट्टाई राजाओं का अनुबंध पत्र लिखा है। जिसमें वरूण, मित्र, इन्द्र, और नासत्य आदि वैदिक देवताओं के नाम लिखे हुए हैं।
क्रमश:

Comment: