विश्वगुरू के रूप में भारत-43
इस प्रकार मूर साहब को भी अपने परिश्रम में हार का मुंह देखना पड़ गया था। इसके उपरान्त भी भारत में यह बहस बार-बार उछाली जाती है कि आर्य विदेशी थे-इसका अभिप्राय केवल ये है कि भारत को विश्वगुरू के पद पर बैठने से रोकने वाली शक्तियां षडय़ंत्र पूर्वक भारत को अपने ही विवादों में घेरे रखना चाहती है। यदि भारत अपने विषय में अपने आप ही भ्रमित और सशंकित रहेगा तो वह अपने अतीत के गौरवपूर्ण इतिहास को न तो लिख पाएगा और न समझ पाएगा। जिससे उस देश को मूर्ख बनाने में सफलता मिलती रहेगी।
हमने बृहत्तर भारत का यहां संक्षिप्त सा विवरण दिया है। वस्तुत: यह विषय इतना विस्तृत है कि इस पर प्रथमत: तो व्यापक अनुसंधान की आवश्यकता है। दूसरे-जितने भर भी तथ्य इस समय विद्वानों के पास उपलब्ध हैं, उन पर अपनी ओर से कोई टिप्पणी न करते हुए उनके संकलन मात्र से भी एक बड़ा ग्रंथ तैयार हो सकता है। पं. रघुनन्दन जी शर्मा की ‘वैदिक सम्पत्ति’, श्री वीरसेन वेदश्रमी जी की पुस्तक ‘वैदिक सम्पदा’ और पी.एन. ओक महोदय का तत्संबंधी पुरूषार्थ कितने ही विद्वानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकता है। हमने भी इन विद्वानों के साथ ‘हिंदू श्रेष्ठता’ के विद्वान लेखक हरविलास सारदाजी के तत्संबंधी पुरूषार्थ का लाभ उठाया है। यहां पर केवल सार और संकेत रूप में कुछ उल्लेख किया गया है। जिससे केवल यह तथ्य स्पष्ट हो सके कि एक समय ऐसा था जब सारी दिशाएं भारत का मंगलगान कर रही थीं। सर्वत्र भारतीय ज्ञान-विज्ञान की जय-जयकार हो रही थी। भारत के धर्म सैनिक देश-देश में जाकर भारतीयता का पाठ लोगों को पढ़ा रहे थे और भारतीय संस्कृति के समक्ष सारा संसार स्वयं नतमस्तक होकर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। वास्तव में वह काल भारतीयता का स्वर्णकाल था।
यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भारत के इस स्वर्णकाल को छोडक़र भारत के विषय में इतिहासकारों ने उस काल पर अधिक लिखा है जिसे भारत की तथाकथित गुलामी के काल के नाम से जाना जाता है। इतना बड़ा अन्याय केवल भारत में ही संभव है , क्योंकि यहां हम सहिष्णुता के नाम पर सब कुछ सहने को तैयार रहते हैं। यह हमारा राष्ट्रीय दुर्गुण है। आज के परिप्रेक्ष्य में भारत को विश्वगुरू बनने की दिशा में यह सबसे बड़ी बाधा है कि हम अपने आपको ही खोजने से भी सकुुचाते हैं। यह संकोची भाव हमें मार रहा है। आवश्यकता ‘प्रतिगामी पराक्रम’ का भाव दिखाने की है। यदि हमने ऐसा नहीं किया तो अनर्थ हो जाएगा। भारत को पुन: भारत ही बनाना होगा।
वैदिक सन्ध्या रहस्य
वैदिक धर्म में सन्ध्या की खोज हमारे ऋषियों की अद्भुत खोज है। इसमें साधक प्रतिदिन नियम से दोनों समय अपने इष्ट देव परमात्मा से सन्धि करता है-मिलता है। मानो प्रात:काल उससे अपनी सद्बुद्घि की प्रार्थना करता है कि हर स्थिति परिस्थिति में ये सन्मार्ग गामिनी हो और मुझे विपरीत मार्ग से बचाती रहे, तो सायंकाल को साधक दिन में जाने अनजाने हो गयी किसी भूल चूक के लिए अपने इष्टदेव से इसी प्रकार की प्रार्थना करता है। हमने इस वैदिक सन्ध्या को यहां इसलिए इस अध्याय में ले लिया है कि यह हमारी जीवनचर्या और दिन चर्या का एक आवश्यक अंग है और जीवनचर्या व दिनचर्या के किसी आवश्यक अंग से ही किसी देश की संस्कृति का निर्माण हुआ करता है। उस अंग की उत्कृष्टता या निकृष्टता से किसी देश का उत्थान या पतन का क्रम निश्चित होता है, उसकी उन्नति या अवन्नति के क्रम का पता चलता है। वैदिक सन्ध्या पर यदि हम विचार करते हैं तो इस योग ने भारत के लोगों के भीतर आध्यात्मिकता का पुट भरने और यहां के लोगों को अपने जीवन व्यवहार में निष्कपट व निश्छल रहने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह की है। ब्रह्मचारी जगन्नाथ पथिक लिखते हैं :-
”सृष्टि के आदि में सर्वज्ञ करूणानिधान भगवान ने मानव मात्र को इस अनागत आपत्ति से सचेत करते हुए वेदों में उन दिव्य साधनों का उपदेश दे दिया जिन्हें निज जीवन में चरितार्थ कर लेने पर मनुष्य अपने क्लेशकर्मों को समूल नष्ट करके परमानंदमय अक्षय शान्तिपद ‘मोक्ष’ को हस्तगत कर सकता है। पुराकाल में तप:पूत ऋषिजनों ने उनमें से कतिपय साधनों का चयन करके मानव मात्र के लिए उन्हें सुकर बनाते हुए ‘ब्रह्मयज्ञ’ अथवा ‘वैदिक साधना’ के नाम से प्रसिद्घ करके प्रात: सायं उसके अनुष्ठान का विधान भी किया। वह साधन समुच्चय ‘अष्टांग योग’ की वैज्ञानिक साधना द्वारा शीघ्र सिद्घ हो जाता है और साधक को समात ताप त्रय से विमुक्त कर देता है। तदनन्तर ‘भूतजयी’ बना यह उपासक जड़ प्रकृति पर विजय पा लेता है, फलत: उसके क्लेशकर्म मूलत: नष्ट हो जाते हैं और ‘अध्यात्म आलोक’ द्वारा शाश्वत ‘सत्यं-शिवं-सुंदरम्’ को पाकर वह प्राकृतिक कारा से मुक्त हुआ उस ‘जीवन्मुक्ति’ का निवासी बन जाता है, जहां शोक, मोह, भय, क्लेश मात्र का स्पर्श भी नहीं है।”
मनुष्य जन्मना शूद्र उत्पन्न होता है। इस अवस्था में वह एक पशु ही होता है और तब एकपशु (विदेशी विद्वानों ने मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी अर्थात ऐनीमल कहा है) ही रहता है जब तक अपने पशुत्व को समाप्त नहीं कर लेता है। भारतीय संस्कृति की अनोखी विशेषता ये है कि वह मनुष्य को पशुत्व छोडक़र मनुष्यत्व धारण करने की दिशा में अपना प्रेरक मार्गदर्शन प्रदान करती है। शेष संसार के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं है जो इस संसार के लोगों का पशुत्व समाप्त कराकर उसे मनुष्य बना दे। इसके विपरीत देखा यह जा रहा है कि संसार के लोग जिसे पढ़ाई-लिखाई कहकर सभ्यता सिखाने वाली सीढ़ी मानते हैं-वही शिक्षा उन्हें अपराधी चालाक, चतुर, स्वार्थी और कामी बना रही है। जिससे संसार में सामाजिक परिवेश बिगड़ रहा है और बहुत सी विसंगतियों को समाज में फैलाने में सहायक हो रहा है। भौतिक शिक्षा ने व्यक्ति को मनुष्य के स्थान पर और भी अधिक पशु बनाकर रख दिया है। इसलिए उसे दिन में चैन नहीं है तो रात में नीद नहीं आ रही है।
हमारे ऋषियों ने सन्ध्या का दीपक हमें दिया कि इसके आलोक में रहकर अपना निरीक्षण स्वयं करते रहना और ये देखते रहना कि मैं कितने पानी में हूं? मैंने कितना सफर तय कर लिया है और कितना करना शेष है? वैदिक सन्ध्या में पहला मंत्र आचमन मंत्र कहलाता है। यह मंत्र है-
ओ३म् शन्नो देवीरभिष्टय
आपोभवन्तु पीतये।
शयोरभि: स्रवन्तु न:।।
इस मंत्र में साधक परमपिता परमात्मा की गोद में बैठते ही अपने मन की बात कह देता है कि-”मां! तू मेरे सारे मनोवांछित फलों को देने वाली है, मैं जो भी चाहता हूं-मुझे तू वही देती है, आज मैं तेरे पास सुख-शान्ति और पूर्ण आनंद व मुक्ति की प्राप्ति की इच्छा लेकर आया हूं। इसके लिए तू मुझ पर कल्याणकारी हो और मेरे चारों ओर से मुझ पर सुख की वृष्टि कर।”
इस मंत्र में साधक ने अपने इहलोक को उत्तम बनाने के लिए सुख और शांति मांग लिये हैं तो परलोक को उत्तम बनाने के लिए मुक्ति मांग ली है। दो वाक्यों में जीवन का सब कुछ मांगने का इससे उत्तम मार्ग कोई नहीं हो सकता, और इसे वैदिक संस्कृति ही संभव करके दिखाती है। क्रमश: