इदन्नमम् का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो
यह एक लक्ष्य विचारबीज की समरूपता का परिणाम था। भारत के प्राचीन इतिहास से आप एक भी ऐसा ऋषि चिंतक, आविष्कारक, कवि, साहित्यकार, राजा, सम्राट या कोई अन्य मनीषी ढूंढक़र नहीं ला सकते-जिसका चिंतन आविष्कार, रचना या कोई कार्य परमार्थ से भिन्न था। इस देश ने उस चिंतन को मान्यता दी जिसमें परमार्थ हो, और स्वार्थ होवे ही नहीं। यही कारण रहा कि यदि कोई स्वार्थी ‘कंस’ कहीं उत्पन्न हो भी गया तो उसे सारे समाज ने अपना शत्रु माना-क्यों माना? क्योंकि वह देश की ‘सामान्य इच्छा’ के विरूद्घ कार्य कर रहा था। इसलिए ऐसे आततायी के वध को भी परमार्थ के लिए हमारे देश में उचित माना गया है।
भारतवर्ष में आजकल एक मूर्खता देखने को मिलती है कि जिसके मन में जो आ जाए वह वही बोल देता है, और जब उसके अनाप-शनाप बोलने का कहीं से विरोध किया जाता है, तो कहा जाता है कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इस देश में सबके लिए समान रूप से उपलब्ध है, इसलिए यदि हम कुछ ऐसा बोल रहे हैं-जो कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता है-तो हम अपनी बोलने की स्वतंत्रता का ही सदुपयोग कर रहे हैं, अत: आप चुप रहो, और हम जो कुछ कह रहे हैं-उसे हमें कहने दो।
वास्तव में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दिया जाने वाला यह तर्क तर्क न होकर कुतर्क है-जिसे लोग अपनी स्वार्थपूत्ति के लिए दे दिया करते हैं। इस तर्क को देने वाले लोग अपने लिए संविधान प्रदत्त भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग करते हैं। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने की हमारी इस प्रवृत्ति के पीछे हर व्यक्ति का अपना स्वार्थ छिपा है, सब अपनी-अपनी पहचान (भाषा, संप्रदाय, क्षेत्र, जाति, गोत्र, कुल इत्यादि) के लिए लड़ रहे हैं। फलस्वरूप आज देश में भाषण और अभिव्यक्ति का दुरूपयोग करते-करते लोगों ने देश का और विश्व का परिवेश ही स्वार्थपूर्ण बना दिया है।
जब हमारी एक पहचान थी तो हम सबके लिए समर्पित थे। सबका सुख दु:ख हम सबका अपना-अपना सुख-दु:ख होता था, जिसे हम मिल बांटकर सहन कर लिया करते थे। पर आज हमारी यह भावना लुप्तप्राय हो गयी है। आज हमारी अनेक पहचानें हैं। हम अनेक स्वार्थों के लिए ही परस्पर लड़ रहे हैं। हमारे ये अनेक स्वार्थ हमें एक साथ न बैठने देते हैं और न कोई बात करने देते हैं। क्या चमत्कार है-परमार्थ का,- वह सदा ‘एक’ ही रहता है। स्वार्थ अनेक हो सकते हैं, पर परमार्थ ‘एक’ ही होता है, सब सामूहिक रूप से सबके भले के लिए कार्य करते हैं। व्यष्टि समष्टि के लिए समर्पित हो उठता है।
देश से वेद-विद्या लुप्त की जा रही है, और देश का मूल संस्कार परमार्थ के स्थान पर स्वार्थ बनाया जा रहा है। देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली और बाजारीकरण पर केन्द्रित देश की अर्थव्यवस्था इस स्थिति के लिए उत्तरदायी हैं। सर्वत्र मारा-मारी और एक दूसरे के अधिकारों के हनन की भावना मनुष्य पर हावी होती जा रही है। फलस्वरूप चारों ओर वाद-विवाद और कलह-कटुता का वातावरण है। हमारा नेतृत्व समझ नहीं पा रहा है कि हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण क्या है? हमारा मानना है कि जब तक भारत में शिक्षानीति को संस्कार आधारित नहीं बनाया जाएगा-तब तक हम अपनी वर्तमान दुर्दशा का वास्तविक कारण खोज नहीं पाएंगे। मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली भारत की वैदिक शिक्षा को देकर ही हम मनुष्य को मनुष्य बना सकते हैं। किसी भी राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था की सफलता इसी में छिपी होती है कि उसका मानव समाज वास्तव में मानवतावादी हो। मानवतावादी मनुष्य समाज ही स्वार्थशून्य होकर परमार्थ प्रेरित कार्य कर सकता है। मनुष्य की स्वार्थशून्यता और परमार्थप्रेरित कार्य करने की शैली ही वास्तव में समाज में परमार्थी परिवेश का निर्माण कर सकती है।
जब तक इस देश का राष्ट्रीय संसार परमार्थ रहा, तब तक इस देश की राष्ट्रीय एकता भी अक्षुण्ण रही। इस देश पर पहला प्रमुख इस्लामी आक्रमण मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में 712 ई. में किया गया था। हमारे देश के मौलिक संस्कार ‘परमार्थ’ ने उसी समय तुरंत देशभक्ति का रूप धारण किया और सूक्ष्मरूप में वह हमारे राष्ट्र नायकों और देशवासियों के भीतर बड़ी शीघ्रता से प्रवेश कर गया, बस इसी भावबीज का चमत्कार था कि सारा देश विदेशी आक्रामकों के विरूद्घ उठ खड़ा हुआ। सारे देश ने एक सामूहिक राष्ट्रीय संकल्प लिया कि विदेशी आक्रांताओं की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जाएगा-और न ही उनकी दासता को सहन किया जाएगा। अपने इस संकल्प की पूत्र्ति के लिए हमारे देशभक्त पूर्वजों ने यह भी संकल्प लिया कि हमें चाहे जितना दीर्घकालीन संघर्ष करना पड़े और चाहे जितने बलिदान देने पड़ें-हम संघर्ष भी करेंगे और बलिदान भी देंगे-पर देश से विदेशी आक्रांताओं को खदेडक़र ही रहेंगे। हमारे पूर्वज समझते थे कि पराधीनता मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। जो देश या जाति इस शत्रु को स्वीकार कर लेती है, वह समाप्त हो जाती है, क्रमश: