दान गुणों का दीजिए, स्वर्ग में भी साथ निभाय
बिखरे मोती-भाग 196
यह कोई आवश्यक नहीं कि कपड़े रंगने से ही वैराग्य होता है। महाराजा जनक तो राजा होते हुए भी वैरागी थे। वैराग्य से अभिप्राय है-विवेक का जगना अर्थात आसुरी शक्तियों का उन्मूलन और दिव्य शक्तियों (ईश्वरीय शक्तियों) का अभ्युदय होना, उनका प्रबल होना ही वैराग्य कहलाता है। यदि जीवन में वैराग्य जग जाए तो इस संदर्भ में वंदनीय जगदगुरू शंकराचार्य अपनी प्रसिद्घ पुस्तक ‘विवेक चूड़ामणि’ में मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं-”वैराग्य का जगना और सत्संग में मन का लगना समझो, पूर्व जन्म का कोई पुण्य उदय हुआ है। ऐसा करके परमपिता परमात्मा ने उस व्यक्ति पर अनुपम कृपा बरसाई है। ऐसा व्यक्ति धन्य हो गया क्योंकि वह प्रभु कृपा का पात्र हो गया।” सारांश यह है कि मनुष्य को दोहरे मानदण्डों पर जीवन नहीं जीना चाहिए, यानि कि भक्ति के नाम पर छलावा नहीं करना चाहिए, अपितु मन, वचन, कर्म में एकरूपता और पवित्रता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। याद रखो, समाज गणवेश की नहीं अपितु गुणवेश की पूजा किया करता है। परमपिता परमात्मा भी निर्मल चित्त में वास करते हैं। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस के सुंदरकाण्ड में कितना सुंदर कहते हैं :-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल-छिद्र न भावा।।
सर्वदा याद रखो, ”वैराग्य स्वविवेक से पैदा होना चाहिए। स्व दुख से पैदा हुआ वैराग्य कभी टिकाऊ नहीं होता है।”
भोजन, वसन, द्रव्य का,
दान खतम हो जाए।
दान गुणों का दीजिए,
स्वर्ग में भी साथ निभाय।।1129।।
व्याख्या :- मनुष्य और देवता में केवल फर्क इतना है कि सामान्य मनुष्य की सोच ऐसी होती है कि अमुक व्यक्ति मेरे साथ अच्छा व्यवहार करता है इसलिए मैं भी उसके साथ अच्छा व्यवहार करूं वह मेरी मदद करता है, इसलिए मैं भी उसकी मदद करूं, वह विशेष अवसरों पर मुझे भेंट अथवा उपहार देता है-इसलिए मैं भी किसी बहाने उसे कुछ दूं, किंतु देवताओं के व्यवहार में ‘किंंतु परंतु अथवा इसलिए’ जैसे शब्द नहीं होते हैं। उनका सदाचरण किसी शर्त पर टिका हुआ नहीं होता, और न ही किसी बदले की भावना पर आधारित होता है। यही रजत रेखा उन्हें मनुष्यत्व से देवत्व का गौरवमय स्थान दिलाती है। उनके दान के पीछे मूल भावना लोकमंगल की होती है, जो स्वाभाविक होती है, बिना शर्त होती है, जैसे :- जड़ देवता-सूर्य बिना शर्त के संसार को प्रकाश और ऊर्जा देता है, चंद्रमा भी अपनी शीतल चांदनी संसार को बिना शर्त देता है, पृथ्वी भी संसार को अन्न औषधि, वनस्पति, खनिज-पदार्थ इत्यादि बिना शर्त देती है, वायु भी बिना शर्त के हमें प्राणशक्ति देती है, जल भी हमारी विभिन्न प्रकार से संतुष्टि बिना शर्त करता है, और यही स्वभाव अग्नि का है।
चेतन देवता-माता-पिता, गुरू कहे गये हैं, क्योंकि ये भी अपनी संतान अथवा शिष्यों को बिना शर्त जिंदगी जीने की विधि देते हैं, हुनर देते हैं, सद्गुणों का भंडार देते हैं, जो उनकी संतान अथवा शिष्य के व्यक्तित्व को दैदीप्यमान करते हैं, चार चांद लगाते हैं। इतना ही नहीं उन्हें विभिन्न विलक्षणताओं-गुणों से सज्जित कर स्वयं को अलंकृत समझते हैं। उनके चर्मोत्कर्षी जीवन को देखकर स्वयं गौरवान्वित होते हैं। माना कि इस संसार में जरूरमंद लोगों को भोजन-वस्त्र और रूपया पैसा का दान यथाशक्ति करना चाहिए किंतु सर्वश्रेष्ठ दान गुण अथवा हुनर का होता है क्योंकि रूपया पैसा, भोजन और वस्त्र तो समाप्त हो जाते हैं, जबकि गुण अथवा हुनर तो उस अमुक व्यक्ति का जीवन पर्यन्त साथ निभोते हैं। क्रमश: