स्वधर्म और स्वराज्य के उपासक दुर्गादास और उनके साथी
आमेर, उदयपुर और जोधपुर की एकता
बादशाह औरंगजेब मर गया तो उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों में परस्पर उत्तराधिकार का युद्घ हुआ, जिससे मुगल बादशाहत दुर्बल हुई। इस दुर्बलता का लाभ उठाने के लिए लड़खड़ाते मुगल साम्राज्य में दो लात मारकर उसे नष्ट करने के लिए ‘हिंदू शक्ति’ के संगठन को सुदृढ़ता देने के लिए आमेर, उदयपुर और जोधपुर के तत्कालीन शासक एक हुए और एक होकर सामूहिक रूप से देश में राष्ट्रीय चेतना का विकास करने का उन्होंने लक्ष्य बनाया। इतिहास की यह बहुत महत्वपूर्ण घटना है जिस पर हमने पूर्व में प्रकाश डाला है। दुर्भाग्य से इस महत्वपूर्ण घटना को हमारे इतिहास में स्थान नही दिया गया है।
करौली के शासक को लिखा गया पत्र
राजा जयसिंह ने हिंदू वीरों को एक झण्डे के नीचे लाने के लिए पत्र लिखे। जिनमें शिवाजी के पौत्र साहूजी के लिए लिखे गये पत्र का उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं। ऐसा ही एक पत्र राजा जयसिंह के द्वारा करौली के तत्कालीन शासक राव रतनसिंह पाल के लिए भी लिखा गया। जिसमें राव रतनपाल की राष्ट्रवादी हिंदुत्व प्रेरित भावनाओं को उभारने का प्रयास किया गया था। राव को यह स्पष्ट किया गया कि आप हिंडौन लेकर मुगलों को रणथंभौर से निकाल भगाने का उद्यम करें। जिससे इस ऐतिहासिक शहर पर पुन: हिंदू ध्वजा फहराई जा सके। राव इस बात के लिए तैयार तो था पर वह यह भी जानता था कि हिंडौन को लेकर उस पर निरंतर नियंत्रण स्थापित किये रखना कठिन है। क्योंकि राव के साधन सीमित थे और शक्ति भी मुगल साम्राज्य के समक्ष उसके पास अत्यल्प थी। इसलिए उसने स्पष्ट उत्तर दिया कि हिण्डौन लेना तो सरल है पर उस पर अपना नियंत्रण स्थापित किये रखना कठिन है। राव चाहता था कि हिंडौन पर नियंत्रण स्थापित किये रखने के लिए बाबूराम जाट को अपने पक्ष में करना आवश्यक है। जिसे रणथंभौर का फौजदार धन देकर अपने पक्ष में किये रखता है। इस प्रकार एक अच्छा पत्राचार इन शासकों के मध्य चलता रहा। जिसे पढऩे व समझने से पता चलता है कि औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात हमारे तत्कालीन हिंदू शासक किस प्रकार एक राजनीति क्रांति के माध्यम से देश में अपनी हिंदू सत्ता स्थापित करने के लिए सक्रिय और सचेष्ट हो उठे थे?
केसरीसिंह नरूका के सफल क्रांतिकारी प्रयास
इन प्रयासों का परिणाम यह आया कि 1710 ई. में राजा जयसिंह ने आदेश देकर केसरीसिंह नरूका लदाना को टोक पर अधिकार करने के लिए भेजा, इस अभियान में केसरीसिंह नरूका अपने प्रयास में सफल भी रहा। सवाई जयसिंह ने भी आमेर पर अधिकार करने के पश्चात कई बादशाही क्षेत्रों को लूटकर स्वाधीन कर लिया।
बादशाह दक्षिण से चल दिया दिल्ली की ओर
जब बादशाह को राजस्थान की वीर भूमि पर मच रहे स्वाधीनता संघर्ष की जानकारी उसके दक्षिण में रहते मिली तो वह हिंदू राजाओं की एकता और उस एकता से जख्मी अपनी बादशाहत को देखकर अत्यंत क्रोधित हो उठा। ऐसी परिस्थितियां उसके लिए कष्टप्रद थीं। वह नही चाहता था कि मुगल बादशाहत उसके रहते पतन के गर्त में समाहित हो जाए। उसकी भी इच्छा थी कि वह भी उतने ही क्षेत्र का बादशाह बना रहे जितने क्षेत्र पर उसके पिता का शासन रहा था। ऐसी परिस्थितियों में उस समय बादशाह का दक्षिण में रूके रहना संभव नही था और यदि इसके उपरांत भी वह दक्षिण में रूकता तो यह उसके लिए निश्चय ही हानिप्रद होना था। अत: वह 1709 ई. में दिल्ली के लिए चल दिया।
महाराणा अमरसिंह ने दक्षिण से लौटते बादशाह के लिए यह स्पष्ट कहलवा दिया कि वह उसके राज्य से निकलकर दिल्ली न जाए। बादशाह ने समय चक्र को पहचाना और महाराणा के प्रस्ताव का सम्मान करते हुए उसने अपना यात्रा मार्ग परिवर्तित कर लिया।
राजाओं के क्षमापत्र और बादशाह को घेरने की कूटनीति
बनास नदी के किनारे बादशाह ने विशेष प्रयास किये और वहां उसने दोनों राजाओं से मिलने का मन बनाया। 22 मई 1710 ई. को दोनों राजाओं की क्षमा याचना के पत्र बादशाह को प्राप्त हुए। 26 मई को बादशाह ने महाराणा अमरसिंह, महाराजा अजीतसिंह और राजा सवाई जयसिंह के प्रतिनिधियों को खिलअतें प्रदान कीं। सिक्खों के नेता बंदा वीर बैरागी के द्वारा पंजाब में जिस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभाली गयी थी, उससे बादशाह और भी अधिक भयभीत हो उठा था, इसलिए वह यथाशीघ्र राजपूतों से संधि कर लेना चाहता था। क्योंकि चारों ओर उसके साम्राज्य में लग रही आग को बुझा पाना या इतने बड़े साम्राज्य को अपने नियंत्रण में लेकर चलना उसके वश की बात नही थी। मध्यस्थों के प्रयासों से 21 जून 1710 ई. को बादशाह और आमेर व जोधपुर के राजाओं के मध्य समझौता हुआ, और आमेर को एक स्वतंत्र राज्य मान लिया गया। परंतु सांभर पर उनके अधिकार करने की घटना पर बादशाह ने अपनी असहमति और अप्रसन्नता प्रकट की। सवाई जयसिंह ने बादशाह को शांत करने के लिए तथा बोझिल बने परिवेश को थोड़ा हल्का करने के उद्देश्य से कह दिया कि-‘जब रोटी हुजूर की खाते हैं तो नमक (सांभर) भी हुजूर का ही खाएंगे।’ इस तर्क से बादशाह बड़ी सरलता से दोनों राजाओं के जाल में फंस गया और उसने राजा के तर्कबाण से प्रसन्न होकर सांभर भी उन्हीं के लिए छोड़ दिया।
कवरखां इतिहासकार का उल्लेखनीय कथन
कवरखां इतिहासकार उस समय बादशाह के साथ था। जिसने उस समय की स्थितियों का वर्णन करते हुए लिखा है कि-”उस समय राजपूतों को बादशाह के वचन तथा कथन पर कतई भी विश्वास नही था। उनको यह भय था कि बादशाह कहीं हमारे राजाओं के साथ विश्वासघात न कर दे, इसलिए अजमेर के उस पार ही समस्त घाटियां हथियार बंद राजपूतों से भरी पड़ी थीं। एक-एक ऊ ंट पर तीन-तीन हथियार बंद राजपूत चढ़े थे। 22 जून 1710 ई. को बादशाह अजमेर पहुंचा। अजमेर पहुंचने के पश्चात बादशाह ने दोनों राजाओं को घर जाने के लिए विदा किया।”
दुर्गादास पहुंच गया मारवाड़ से मेवाड़
उधर जोधपुर में कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुईं जिनसे दुर्गादास राठौड़ को लगा कि महाराजा अजीतसिंह के मन में उसके प्रति पहले जैसा प्रेम नही रह गया है। उसने ताड़ लिया कि महाराजा के व्यवहार में आये परिवर्तन से कोई भी अप्रिय घटना में कभी भी घटित हो सकती है। इसलिए दुर्गादास ने मारवाड़ छोडक़र मेवाड़ जाने का निश्चय कर लिया। मेवाड़ पहुंचने पर दुर्गादास राठौड़ को महाराणा अमरसिंह ने अति सम्मानपूर्ण ढंग से अपने पास रखने का निर्णय लिया और उसे विजयपुर का परगना जागीर में देकर 15 हजार रूपया मासिक खर्चे का देना भी सुनिश्चित कर दिया। दुर्गादास यद्यपि अपने महाराजा के प्रति अत्यंत निष्ठावान था और वह अपने महाराजा के विरूद्घ वाणी से भी कोई अप्रिय शब्द न सुनने के लिए जाना जाता था, परंतु सत्ता के निकट रहकर अपने वर्चस्व और प्रभाव में वृद्घि कर अपने आपको प्रथम स्थान पर दिखाने की प्रवृत्ति भी व्यक्ति में प्राचीनकाल से ही रही है। ऐसी प्रवृत्ति के लेागों को आजकल की भाषा में ‘सत्ता के दलाल’ कहा जाता है। जो सत्ता के गलियारों में किसी भी व्यक्ति को कब वनवास दिला दें या कब किसका पत्ता कटवा दें, कुछ भी नही कहा जा सकता? बस, कुछ ऐसा ही दुर्गादास के साथ हुआ और मारवाड़ की स्वतंत्रता का एक महान योद्घा ऐसे ही ‘सत्ता के दलालों’ के कुचक्रों और षडय़ंत्रों का शिकार होकर मारवाड़ से मेवाड़ पहुंच गया।
उत्तरकालीन मुगल बादशाह और दुर्गादास
बादशाह बहादुरशाह ने दुर्गादास को 1710 ई. में खिलअत देने की घोषणा की थी, साथ ही उसे एक जागीर देने का वचन भी दिया गया। परंतु बादशाह ने अपने वचन और कथन को निभाया नही और वह 17 फरवरी 1712 ई. को लाहौर में बिना अपना वचन निभाये ही मृत्यु को प्यार हो गया।
इसके उपरांत एक के पश्चात एक मुगल बादशाह दिल्ली के सिंहासन पर आये, उन सबने अपने-अपने शासनकाल में दुर्गादास को अपने महाराजा अजीतसिंह के विरूद्घ प्रयोग करने का प्रयास किया। परंतु सारे प्रयास ही व्यर्थ गये। फर्रूखसियर के शासनकाल में 12 दिसंबर 1713 ई. को बादशाह ने एक फरमान दुर्गादास राठौड़ को भेजा जिसमें आज्ञा थी कि वह एक अच्छी सेना के साथ अजीतसिंह के विरूद्घ हुसैन अली खां सैय्यद के साथ सैन्य अभियान में सम्मिलित होवें। इसके साथ ही एक कलंगी, जड़ाऊं खंजर, खिलअत, तलवार तथा एक घोड़ा और एक हाथी भी भेजे। दुर्गादास राठौड़ को अहमदाबाद के खजाने से एक लाख रूपया देने की आज्ञा भी भेजी तथा उन्हें अहमदाबाद की फौजदारी भी दी गयी, साथ ही दुर्गादास के लडक़ों तथा भाइयों के लिए भी खिलअतें भेजी गयीं। अहमदाबाद के सूबेदार दाऊदखान पन्नी ने दुर्गादास के भाई को दुर्गादास के लिए पचास हजार रूपये भी अहमदाबाद से दिये।
परंतु जिस स्वाभिमानी और देशभक्त दुर्गादास के स्वाभिमान और देशभक्ति को क्रय करने के लिए मुगल सत्ता प्रयास कर रही थी, उसके विषय में उन्हें ज्ञात नही था कि यहां चाहे ‘जयचंदी परंपरा’ के कुछ कृतघ्न लोग भी मिलते हों पर उन कृतघ्न लोगों की संख्या तो अंगुलिगणेय मात्र है। मुख्य श्रंखला तो ऐसे लोगों की है जिन्होंने किसी भी मूल्य पर अपनी देशभक्ति और स्वाभिमान को विक्रय नही किया। दुर्गादास ऐसे स्वाभिमानी, और देशभक्तों का सिरमौर था। जिस पर उस समय के हिंदू समाज को गर्व था और वह गर्वीला भाव हिंदू समाज में उसके प्रति आज तक मिलता है।
दुर्गादास का अंतिम समय
1716 ई. में फर्रूखसियर किसी प्रकार दुर्गादास को अपने दिल्ली दरबार में उपस्थित करने में सफल भी हो गया और उसका बादशाह ने भरपूर स्वागत सत्कार भी किया। बादशाह ने दुर्गादास का प्रयोग भी जाटों के विरूद्घ किया, पर दुर्गादास जाटों का विरोध करने के स्थान पर न जाकर सादड़ी चले गये। सादड़ी मेवाड़ में स्थित है।
जिस समय इस देशभक्त हिंदूवीर की मृत्यु हुई उस समय वह रामपुरा में सूबेदार थे जो उन्हें महाराणा संग्रामसिंह के द्वारा प्रदान किया गया था। दुर्गादास की मृत्यु 22 नवंबर 1718 ई. को हुई। उनकी मृत्यु के साथ ही समकालीन इतिहास का और भारतीय स्वातंत्र्य समर का एक महान योद्घा विलीन हो गया। निश्चय ही दुर्गादास राठौर एक ऐसे महान नक्षत्र का नाम है जिसकी दीप्ति से अथवा आलोक से तत्कालीन समाज और इतिहास को नई ऊर्जा और प्रेरणा मिली। उनकी उपस्थिति ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गौरवमयी नेतृत्व प्रदान किया। यही कारण है कि भारतीय जनमानस में दुर्गादास राठौर का नाम आज तक बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है।
मृत्यु के समय दुर्गादास राठौर की अवस्था लगभग 80 वर्ष की थी। उनकी छत्री उनकी समाधि के रूप में उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर निर्मित की गयी थी।
इस प्रकार एक देशभक्त दुर्गादास राठौड़ का अंत हो गया। पर अपनी मृत्यु के सैकड़ों वर्ष पश्चात भी वह भारत की अस्मिता स्वतंत्रता और स्वाभिमान, के रक्षक के रूप में भारतीय जनमानस में पूजनीय है।
दुर्गादास के लिए श्रद्घांजलि
‘गीत ठाकुर दुर्गादास जी रो का’ कवि कहता है-”हे वीर दुर्गादास! तुमने कीत्र्ति रूपी लता रोपकर अपने विरूद रूपी जल से सींचकर हरी भरी की है। यह वल्लरी चारों युगों में लहलहाती रहेगी। हे वीरवर! तेरी कीर्ति रूपी वल्लरी की जड़ें पाताल लोक तक जा पहुंची हैं। तुमने इसे कत्र्तव्यरूपी जल से सींचा है। इसके तंतु सप्तद्वीप और नवखण्डों में फैल गये हैं। इस बेल के तंतु तुम्हारी गुण ग्राहकता है। वचन पालन की भावना इसके पुष्प हैं। उदारता के भाव ही मंजरी है और कवि रूपी गुंजार कर पट भाषाओं में तुम्हारे यश का गान कर रहे हैं। हे नीवा के वंशधर दुर्गादास इस कीत्र्तिलता पर यश रूपी जो फल लगा है वह चारों युगों में लगा रहेगा।”
(संदर्भ : देवीसिंह मण्डावा की पुस्तक ‘देशभक्त दुर्गादास राठौड़’ के पृष्ठ 185-186 से)
प्रकृति का यह शाश्वत सिद्घांत है कि अत्यंत विषमताओं से जूझने के लिए वह मानव सहित किसी भी प्राणी को चार गुणी शक्ति और विवेक प्रदान करती है। ऊंचा तूफान चाहे जैसा हो, उससे लडऩे के लिए व्यक्ति को और प्राणियों को प्रकृति भी सावधान ही नही करती है, अपितु उन्हें विवेक और साधन भी उपलब्ध कराती है।
गुरिल्ला युद्घ और हमारे स्वतंत्रता सेनानी
मनुष्य के विषय में हमने अपने अनुभवों से यह देखा भी है कि आपत्ति काल में उसका विवेक भी बढ़ता है और उसकी शक्ति भी बढ़ती है। संघर्षशीलता को जो व्यक्ति बनाये रखता है वह अंत में विजयी भी होता है।
औरंगजेब जैसे क्रूर बादशाह के शासनकाल में दुर्गादास और उनके समकालीन स्वतंत्रता सेनानी साथियों या राजा महाराजाओं के विषय में भी यही कहा जा सकता है कि उनका विवेक और शक्ति अप्रत्याशित रूप से उनका साथ दे रही थी जिसके कारण उन्होंने मुगल तोपों का सीधे मैदान में सामना न करके छापामार और गुरिल्ला युद्घ को अपना लिया।
सबके आदर्श नेता महाराणा प्रताप
अकबर के शासनकाल में महाराणा प्रताप की सफलता का कारण गुरिल्ला युद्घ ही था। कालांतर में महाराणा प्रताप की इस युद्घ शैली को भारत के हर हिंदू देशभक्त राजा, राव, मुकद्दम या जनता के किसी भी प्रमुख व्यक्ति ने अपनाकर यह सिद्घ कर दिया कि महाराणा उन सबके आदर्श नेता थे। शिवाजी महाराज ने भी औरंगजेब के विरूद्घ इसी प्रकार की युद्घ प्रणाली को अपनाकर महाराणा को भी अपना नेता स्वीकार किया और अपनी विनम्र श्रद्घांजलि अर्पित की।
दुर्गादास और उनके साथियों ने महाराणा प्रताप द्वारा अपनाई गयी इसी युद्घ प्रणाली को अपनाकर अपने काल में हिंदू शक्ति का नेतृत्व किया और अत्यंत उच्च राष्ट्रीय भावना के कीत्र्तिमान स्थापित कर विषमतम परिस्थितियों में बड़े साहस के साथ भारतीय स्वातंत्र्य समर का नेतृत्व किया। यह सच है कि उन जैसे योद्घाओं की गौरव गाथा को इतिहास के कुछ सीमित पृष्ठों में समेटकर नही रखा जा सकता है।
वीर सावरकर के चिंतन के अनुसार यदि तत्कालीन परिस्थितियों और घटनाओं का अनुशीलन करें तो उस समय देश की राजनीति के हिंदूकरण की प्रक्रिया का प्रवाह गतिमान था। देश जब कठिनता (जिसे पराधीनता कह दिया जाता है) के काल से जूझ रहा था उस समय देश के एक-एक हिंदू का सैनिकीकरण हो रहा था। इसे संक्षेप में चाहे वीर सावरकर ने ‘राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण’ कहकर अभिहित कर दिया हो, परंतु इसका एक गौरवपूर्ण इतिहास है-एक सजीव और प्रेरक इतिहास है।
अपने इतिहास के गौरव को हमने स्वतंत्रता मिलने पर समेटना, संजोना और वर्णित करना छोड़ दिया, इसलिए हमें सावरकर जी के विषय में ऐसा लगने लगा जैसे उन्होंने ‘राजनीति के हिंदूकरण और हिंदुओं के सैनिकीकरण’ की बात केवल अपने समकालीन समाज के लिए ही की थी, या कही थी। जबकि उनका यह चिंतन एक सूत्र वाक्य में तब पिरोया जा सका था जब उन्होंने भारत के गौरवपूर्ण और प्रेरक इतिहास का अपनी दृष्टि से अपने अंत:करण में वास्तविक बोध कर लिया था।
10 मई 1952 को पुणे में ‘अभिनव भारत’ के समापन समारोह में भाषण करते हुए उन्होंने जो कहा था वह उनके इसी चिंतन का परिचायक है। वह बोले थे-”हे सिंधु! मां सुरसेविनी सिंधु तेरे ही पावन तट पर हमारे प्राचीनतम वैदिक ऋषि महर्षियों ने वेदों की प्रथम ऋचाओं का सामगायन किया था। जिसके पुण्य पवित्र सलिल से हमने संध्या वंदन का अघ्र्य दिया और जिसे असीम आदर से देवताओं में स्थान दिया उस पर सुंदर-सुंदर काव्य सुमनों की अंजलि अर्पित की, ऐसी पुण्य सलिल मां सिंधु तुझे हम कैसे भुला दें।”
‘अभिनव भारत’ में वीर सावरकर पुरातन भारत की आरती इसीलिए कर रहे थे कि भारतीय अपने अतीत को समझें और देश में राजनीति के हिंदूकरण और हिंदुओं के सैनिकीकरण की प्रक्रिया को अपनायें। उनका मानना था-”जब तक देश की राजनीति का हिंदूकरण तथा हिंदुओं का सैनिकीकरण नही किया जाएगा तब तक भारत की स्वाधीनता उसकी सीमाएं उसकी सभ्यता व संस्कृति कदापि सुरक्षित नही रह सकेगी। मेरी तो हिंदू युवकों से यही अपेक्षा है, यही आदेश है कि वे अधिकाधिक संख्या में सेना में भारती होकर सैन्य विद्या का ज्ञान प्राप्त करें, जिससे समय पडऩे पर वे अपने देश की स्वाधीनता की रक्षा में योगदान कर सकें।”
(1955 में जोधपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में दिये गये भाषण से)
स्वराज्य का अभिप्राय स्वधर्म की रक्षा
हमारे देश में हिंदू राजनीति का अभिप्राय स्वराज्य के माध्यम से स्वधर्म की रक्षा करना है। इसे दूसरे शब्दों में ऐसे भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका अपना धर्म यही शिक्षा देता है कि वह स्वराज्योपासक बने। हिन्दू-वैदिक धर्म का मूल स्वराज्योपासक है, इसीलिए हमारे यहां स्वराज्य को स्वधर्म का और स्वधर्म को स्वराज्य का पर्यायवाची माना गया है या दोनों को अन्योन्याश्रित माना गया है।
दुर्गादास की स्वराज्य और स्वधर्म की वंदनीय साधना
दुर्गादास और उनके समकालीन अनेकों साथी जब-जब भी औरंगजेब की क्रूर सत्ता से टकराये और जब-जब उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया, तब-तब उनके बलिदान के मूल में स्वधर्म और स्वराज्य का अन्योन्याश्रित स्वरूप ही खड़ा था। जब वह स्वराज्य की प्राप्ति हेतु स्वराज्य के पावन मंदिर (रणक्षेत्र) में बलि देने निकलते थे तब वह उस मंदिर में देखते थे कि उनका स्वधर्म उनको मर मिटने की प्रेरणा दे रहा है-स्वराज्य के लिए। जब वह स्वधर्म के लिए संघर्ष करते तो उस समय उन्हें लगने लगता कि हम स्वराज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी यह भावना ही समकालीन राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण करने वाली थी।
आज अपने स्वतंत्रता सैनानियों की इस पवित्र गाथा को नमन करने की आवश्यकता है, जिसके एक-एक शब्द से स्वराज्य और स्वधर्म की रक्षा की गंध आती है और हमारा हृदय गौरवबोध से भर जाता है। गौरवबोध प्रदायक दुर्गादास और उनके साथियों को मां भारती का सतत आशीर्वाद मिल रहा है, और जब तक वैदिक धर्मी हिंदू इस धरा पर है तब तक वह मिलता भी रहेगा। क्रमश: