महाराणा रतन सिंह, विक्रमादित्य और बनवीर
मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह के पश्चात उनके उत्तराधिकार को लेकर युद्ध आरंभ हो गया था। इस संबंध में कर्नल टॉड का कथन है कि :- “राणा संग्राम सिंह के भी अनेक रानियां थीं। राणा के मरने के पश्चात सभी रानियां अपने- अपने लड़कों को राज्यसिंहासन पर बैठाने का प्रयास करने लगीं। एक रानी ने तो अपने लड़के को उत्तराधिकारी बनाने के लिए यहां तक किया कि उसने बादशाह बाबर के साथ मेल कर लिया। उसका विश्वास था कि इस मेल के फलस्वरूप मेरे लड़के को चित्तौड़ के राज्यसिंहासन पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त होगा। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने बाबर को प्रसन्न करने के लिए भरपूर चेष्टा की। इसके लिए उसने रणथंभौर का प्रसिद्ध दुर्ग और विजय में पाए हुए मालवा राज्य के बादशाह का ताज भी बाबर को भेंट में देना निश्चित किया।”
बहु विवाह प्रथा है निन्दनीय
सचमुच बहु विवाह की प्रथा बहुत ही निंदनीय है। रामचंद्र जी के पिता दशरथ ने कभी त्रेता काल में ऐसी भूल की थी। उसका परिणाम हमने देख लिया कि रामचंद्र जी जैसे दिव्य पुरुष को एक रानी की मूर्खता के कारण वनवास झेलना पड़ा था। उस परिवार की भीतर की स्थिति भी बहुत अधिक अच्छी नहीं थी। राजा दशरथ के परिवार में कलह – क्लेश होने का प्रमाण हमें वाल्मीकि रामायण के माध्यम से मिलता है। हमारे आर्य राजाओं ने इस परंपरा का निर्वाह दीर्घकाल तक किया है कि वे चरित्र में दूसरों के लिए अनुकरणीय बनें। यही कारण था कि वे बहुविवाह से बचते थे। मुसलमानों के आगमन से पहले भारतवर्ष में बहु विवाह के छुटपुट उदाहरण मिलते हैं। तब इसे एक मान्यता के रूप में नहीं अपनाया गया था।
पर जब इस्लाम का आगमन भारत में हुआ तो इस बुराई ने हिंदू राजाओं को भी तेजी से अपने घेरे में ले लिया। फलस्वरूप हिंदू राजाओं के यहां भी एक से अधिक रानियां रहने का प्रचलन आरंभ हो गया। इसी बुराई का शिकार महाराणा संग्राम सिंह हुए थे। उस बुराई ने घर में कलह, कटुता का वातावरण सृजित किया। उसी का परिणाम यह रहा कि एक रानी निंदनीय स्तर तक गिरी और उसने बाबर के साथ मेल स्थापित करने का कार्य किया। राणा परिवार में भी ऐसा कई बार देखा गया जब उत्तराधिकार को लेकर मुगलों या मुसलमानों की तरह राजकुमारों में संघर्ष हुआ। वास्तव में ऐसी प्रवृत्ति को ही भारत में ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ कहा जाता है।
जिस राजवंश ने विदेशी आक्रमणकारियों या विधर्मी शासकों के विरुद्ध जमकर संघर्ष किया और अपनी मान – मर्यादा को धूमिल नहीं होने दिया उस राजवंश में ऐसी रानी का होना निश्चय ही दु:खद था। उसके इस प्रकार के आचरण से महाराणा परिवार की प्रतिष्ठा को धक्का लगा। जिस गौरव को पीढ़ियों के संघर्ष के उपरांत राणा संग्राम सिंह और उनके पूर्वजों ने प्राप्त किया था वह इस रानी के और उस समय के महाराणा वंश के उत्तराधिकारियों के मध्य हो रहे संघर्ष के कारण कलंकित हुआ।
राणा रतन सिंह द्वितीय बने उत्तराधिकारी
राणा संग्राम सिंह की अलग-अलग रानियों से उनके कुल 7 पुत्र थे। इन सातों में सबसे बड़े दो पुत्रों का देहांत हो गया था। ऐसी परिस्थितियों में तीसरे स्थान के पुत्र का राजा बनना निश्चित हुआ जिसका नाम राणा रतन सिंह था। दामोदर लाल गर्ग सहित विभिन्न इतिहासकारों ने राणा संग्राम सिंह की मृत्यु तिथि 30 जनवरी 1528 लिखी है। इनके निधन के 6 दिन पश्चात अर्थात 5 फरवरी 1528 ई0 को राणा रतन सिंह द्वितीय चित्तौड़ के राज्य सिंहासन पर विराजमान हुए।
भारतीय आर्य परंपरा में सामान्यतया राजा के निधन के दिन ही अगले राजा का निर्वाचन होने की परंपरा रही है। 6 दिन पश्चात राणा रतन सिंह का राज्याभिषेक होना इस बात का सूचक है कि महाराणा संग्राम सिंह की लाश पर उस समय उत्तराधिकार का युद्ध चला। जब राणा रतन सिंह द्वितीय मेवाड़ का शासक बना तो लोगों को उससे भी यही अपेक्षाएं थी कि वह भी अपने पूर्वजों की भांति मेवाड़ के सम्मान के लिए काम करेगा। उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह भारत के धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए भी काम करेगा और विदेशी शक्तियों के साथ ना तो हाथ मिलाएगा और ना ही उनके समक्ष शीश झुकाएगा। राणा रतन सिंह ने अपने प्रति जनापेक्षाओं का सम्मान करते हुए सिंहासनारूढ होते ही यह प्रतिज्ञा भी की कि मैं मेवाड़ राज्य के सम्मान और उत्थान के लिए आजीवन प्रयासरत रहूंगा। मेवाड़ के जन समुदाय के लिए महाराणा के शब्द संजीवनी देने के समान थे। लोगों ने करतल ध्वनि से उसके इस प्रकार के शब्दों का और वचन का स्वागत किया।
धर्म भ्रष्ट राणा
कुछ समय पश्चात ही इस राणा का सच सामने आ गया। वह धर्मभ्रष्ट और पथभ्रष्ट हो गया। कहा जाता है कि जब राणा रतन सिंह द्वितीय बहुत छोटा था , तब उसने आमेर के राजा पृथ्वी सिंह की लड़की से गुप्त रूप से विवाह कर लिया था। इस गुप्त विवाह की जानकारी उस लड़की और राणा रतन सिंह के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं थी। जब यह लड़की विवाह योग्य हुई तो उसका विवाह उसके पिता ने बूंदी नरेश सूरजमल के साथ कर दिया था। राणा रतन सिंह को यह विवाह किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं था। परंतु वह कुछ कर भी नहीं सकता था। जब वह मेवाड़ का शासक बना तो उसे लगा कि अब वह अपने मन की इच्छा को पूर्ण कर सकता है अर्थात सूरजमल को रास्ते से हटा कर अपनी पत्नी को प्राप्त कर सकता है।
यह भी एक संयोग ही था कि इसी सूरजमल की बहन राणा रतन सिंह द्वितीय को ब्याही थी। कहना न होगा कि सूरजमल और राणा रतन सिंह साले बहनोई थे। स्पष्ट है कि इस प्रकार के संबंध में बड़ी निकटता हो जाती है। सूरजमल बड़े पवित्र हृदय से अपने बहनोई राणा रतन सिंह का सम्मान करते थे। जबकि राणा रतन सिंह उससे भीतर ही भीतर घृणा करता था। इस बात की जानकारी सूरजमल को तनिक भी नहीं थी कि उनका बहनोई उनसे किस स्तर तक घृणा करता है ? राणा ने सूरजमल को अपने रास्ते से हटाने की योजनाओं पर काम करना आरंभ कर दिया था। उसका षड्यंत्रकारी ह्रदय सूरजमल के अंत करने की योजनाओं में मग्न रहता था। उसे मेवाड़ की उन्नति से कुछ नहीं लेना था। उसे तो एक ही धुन सवार थी कि किसी प्रकार से सूरजमल को समाप्त किया जाए। अपनी इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए अंततः राणा रतन सिंह को एक दिन अवसर प्राप्त हो ही गया। कहते हैं कि एक दिन अहेरिया उत्सव के अवसर पर राणा रतन सिंह सूरजमल और अपने कुछ अन्य सामंतों को लेकर उत्सव में सम्मिलित होने के लिए शिकार खेलने हेतु जंगल में गया।
करा लिया अपना ही अंत
राजा को कोई शिकार नहीं खेलना था। वह तो यहां अपने दूसरे शिकार अर्थात सूरजमल को समाप्त करने के लिए आया था। यही कारण था कि वह जानबूझकर सूरजमल को बीहड़ और भयानक निर्जन जंगल में ले गया। उचित अवसर आया हुआ देख कर राणा रतन सिंह ने अपने शत्रु या शिकार सूरजमल पर उस समय तलवार से हमला कर दिया जब दूर जंगल में राणा और सूरजमल के अतिरिक्त वहां कोई अन्य नहीं था। तलवार के वार को सूरजमल ने निष्फल कर दिया। यद्यपि उसे इस प्रकार के आचरण की राणा से दूर-दूर तक कोई अपेक्षा नहीं थी परंतु वह समय पर सावधान हो गया। सूरजमल राणा के इस प्रकार के आचरण का उद्देश्य नहीं समझ पाया था। परंतु इतना अवश्य था कि वह राणा के इस प्रकार के हमला के पश्चात अब पूर्णतया सावधान हो चुका था। सूरजमल राणा की तलवार के वार से बचने के लिए घोड़े से गिर गया था। इसके उपरांत भी वह वीरों की भांति संभला और उठकर राणा से युद्ध करने लगा।
निश्चित रूप से यह घड़ी मां भारती के लिए बहुत ही ठेस पहुंचाने वाली थी। एक नारी को लेकर दो वीर लड़ रहे थे। जिनमें से एक को तो यह भी पता नहीं था कि लड़ाई किस उद्देश्य को लेकर हो रही है ? जबकि दूसरा इतना पथभ्रष्ट हो चुका था कि वह पराई अमानत को हड़पने के लिए मुगलिया धर्म को स्वीकार कर चुका था । उसका स्तर गिर चुका था। उसकी सोच अपवित्र हो चुकी थी। वह देश, धर्म और संस्कृति की मर्यादाओं को भूल गया था। वह अपने पद की गरिमा को भी विस्मृत कर चुका था। ऐसी परिस्थितियों में मां भारती का न्याय का पलड़ा तो सूरजमल की ओर झुक रहा था। वह राणा रतन सिंह के इस प्रकार के आचरण को देखकर स्तब्ध थी। अपनी मौन वाणी में वह इस धिक पुरुष को धिक्कार रही थी और उससे कह रही थी कि जब यह तलवार विदेशी शत्रुओं के विरुद्ध चलनी चाहिए थी, तब अपनी शक्ति को ही भंग करने वाले अधम पुरुष ! तू निश्चय ही मेवाड़ के राज्य सिंहासन का कलंक है।
कुछ ही क्षणों में शत्रुता अपने शीर्ष पर जाकर नंगा नाच करने लगी थी। निकट संबंध में जुड़े हुए दोनों योद्धा एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो गए थे। राणा जो इस योजना के वशीभूत होकर सूरजमल को जंगल के एकांत में लेकर आया था कि वह वहां ले जाकर उसको समाप्त कर देगा अब वह इस एकांत का लाभ उठा लेना चाहता था। उधर सूरजमल जिसका दूसरा नाम पृथ्वीराज था, भी अपनी वीरता से अब राणा रतन सिंह का अंत करने के लिए संकल्पित हो उठा था। ऐसी ही मन:स्थिति में सूरजमल ने राणा रतन सिंह पर इतना प्रबल प्रहार किया कि वह उसके प्रहार का प्रति उत्तर नहीं दे सका और उसका जीवन समाप्त हो गया।
राणा रतन सिंह अपने उस वचन को अपने आप ही भंग कर गया जो उसने मेवाड़ की जनता से अपने राज्यारोहण के समय किया था कि वह मेवाड़ की रक्षा करेगा और विदेशियों के सामने कभी झुकेगा नहीं। उसने राणा संग्राम सिंह की परंपरा को निश्चय ही ठेस पहुंचाई। अपनी ऊर्जा की दिशा मोड़कर राणा ने अपना ही विनाश कर लिया। राणा रतन सिंह मात्र 3 वर्ष ही मेवाड़ का शासक रहा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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