जो जन अज्ञानवश हमसे वैर करता है या किसी प्रकार का द्वेष भाव रखता है, और जिससे हम स्वयं किसी प्रकार का वैर या द्वेषभाव रखते हैं-उस वैर भाव को हम आपके न्याय रूपी जबड़े में रखते हैं। जबड़े की यह विशेषता होती है कि जो कुछ उसके नीचे आ जाता है उसे वह चबा जाता है, उसका कोई अवशेष नहीं छोड़ता। जबड़े से चबाया हुआ अन्न आदि हमारे पेट में ही जाता है, और फिर वह कोई उत्पात न कर हमारे शरीर की पुष्टि करता है। यदि द्वेषभाव को हम जबड़े में रखकर चबा जाएं तो ही उत्तम है, अन्यथा वह अनेकों उपद्रवों को जन्म देकर हमें दु:खी करता रहेगा। अत: वेद के ऋषि ने ‘जबड़ा’ शब्द का प्रयोग बड़े वैज्ञानिक ढंग से किया है। उसका आशय है कि यह वैरभाव या द्वेष आपके न्यायरूपी जबड़े में चबाकर समाप्त कर दिया जाए। वह नाम शेष भी न रह जाए। संस्कृत का ‘जम्भे’ शब्द बिगड़ कर जबड़ा हो गया है। जम्भे के बीच में रहने वाली जिह्वा है जो बिगाडक़र जीभ बोली जाती है। इसी जिह्वा अर्थात जीभ का ‘जबान’ शब्द बन गया है।
वेद का ऋषि द्वेषभाव को समाप्त कराकर आर्यों से प्रतिदिन यह शपथ दिलवाता है कि तुम्हें सुंदर संसार बनाने के लिए किसी भी प्रकार के द्वेष को मन में नहीं रखना है। आर्य की परिभाषा में एक परिभाषा यह भी है कि जो द्वेषभाव नहीं रखता है, प्रत्येक प्रकार के वैर को समाप्त करके चलता है, उसे पालता नहीं है-वह आर्य है। यही बात यहां साधक ईश्वर से कह रहा है कि मुझे आर्य बनाने के लिए तू इतना सा काम कर दे कि मेरे भीतर किसी अन्य के लिए या किसी अन्य के भीतर मेरे लिए यदि कोई द्वेषभाव है तो उसे समाप्त कर दे।
इससे अगला मंत्र है :-
ओ३म् दक्षिणा दिगिन्द्रिअधिपतिस्ति रश्चिराजी रक्षिता पितर इषव:।
तेभ्यो नमो अधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो अस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म:।
दक्षिण की दिशा में उस परमेश्वर को ‘परमैश्वर्य के स्वामी’ के रूप में विराजमान माना गया है। साधक परमपिता परमात्मा की इस रूप में साधना करते हुए कह रहा है कि आप हमारे स्वामियों के भी स्वामी हैं। बुरे स्वभाव वाले मनुष्य तथा टेढ़ी चाल (तिरश्चि=तिरछी और तिरछा शब्द इसी से बने हैं) चलने वाले सूर्यादि बिना हड्डी के पशुओं से हमारी रक्षा करते हैं, और ज्ञानियों द्वारा हमें ज्ञान प्रदान करते हैं।
सचमुच ईश्वर बड़े दयालु हैं, जंगल में किसान काम करता है, रातों में भी खेतों पर पानी लगाता है पर उस समय भी उनकी रक्षा वह परमपिता परमात्मा ही वहां करते हैं। इसी प्रकार साधनों के अभाव में खेतीहर मजदूर अपना काम करते रहते हैं, पर उन सबकी भी रक्षा ईश्वर ही करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि जो ईश्वर हर कदम पर हर संकट में हमारा सहायक है, उसे प्रात:काल में स्मरण करना उस जीवनचर्या की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है जो ईश्वर को सर्वत्र व्यापक मानती है और यदि उसकी कृपा दृष्टि हम पर है तो सारे कार्य सही प्रकार सम्पन्न होंगे। इस भाव से व्यक्ति में एक तो अहंकार नहीं आता। दूसरे-वह प्रसन्न रहता है और जो कुछ भी उसे मिलता है, उसे ईश्वर की कृपा का फल मानकर सहज रूप में स्वीकार कर लेता है। ‘तेभ्यो नमो…’ का अर्थ पूर्ववत ही है। आगे के मनसा परिक्रमा के मंत्रों में हम मंत्र के इस भाग का उल्लेख नहीं करेंगे। ‘इषव:’ शब्द के पश्चात यह भाग शेष चारों मंत्रों में जोड़ लिया जाए।
ओ३म् प्रतीची दिग् वरूणोअधिपति: पृदाकू रक्षितान्नमिषव:।
भावार्थ : हे सौंदर्य सागर! आप हमारी पिछली ओर भी विद्यमान हैं। आप ही हमारे राजाधिराज हैं, पिछली ओर अर्थात पश्चिम दिशा के लिए ‘प्रतीची’ शब्द आया है। इस दिशा में उस परमपिता परमेश्वर को सौंदर्य के सागर के रूप में विराजमान माना गया है। सौंदर्य के सागर परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है कि आप भयंकर शब्द करने वाले तथा विषधारी प्राणियों से हमारी रक्षा करने वाले हैं। जितने भर भी विषधारी हैं उन सबसे आप ही हमारी रक्षा करते हैं, सर्व प्रकार के अन्न को उत्पन्न करके आप ही हमारा पालन पोषण करते हैं। हम आपकी इसी रूप में उपासना करते हैं।
ओ३म् उदीची दिक् सोमोअधिपति
स्वजो रक्षिताशनिरिषव:। तेभ्यो….
इस मंत्र में ईश्वर को ‘सौम्य स्वभाव’ कहा गया है। भक्त कहता है कि हे सौम्य स्वभाव परमात्मन! आप हमारी बांयी ओर भी व्यापक हैं। जब साधक पूर्वाभिमुख होकर बैठता है तब बांयीं भुजा उत्तर की ओर आती है। इसलिए कहा गया है कि आप हमारी बांयी ओर सौम्य स्वभाव वाले होकर विराजमान हो। आप हमारे स्वामी हैं अर्थात इस दिशा में अपनी सौम्यता स्थापित कर उसी से हमारी रक्षा करते हो। आपके माता-पिता आदि जन्मदाता कोई नहीं है। आप अमृत हैं-कभी नहीं मरते। आप सदा युवा रहते हैं-आपको कभी बालपन या बुढ़ापा नहीं आता। आप जन्ममरण के चक्कर से सदा मुक्त रहते हैं।
यदि ईश्वर के माता-पिता माने जाएंगे तो फिर निश्चित है कि उसका भी जन्म होगा। तब वह बालपन, किशोरावस्था, यौवन और बुढ़ापे से भी होकर गुजरेगा। अत: उसे ‘स्वजो’ अर्थात भली प्रकार जन्म रहित स्वयंभू मानना ही युक्ति युक्त है। आप हमारे स्वयंभू रक्षक हैं-इस वेदमंत्र में ऋषि ईश्वर के बारे में ऐसा चिंतन हमें दे रहा है। आप ही विद्युत द्वारा हमारे शरीर में रूधिर संचालन करके हमें जीवित रखते हैं। इस प्रकार ईश्वर के सौम्यस्वरूप की आराधना करते हुए साधक उसे अपना जीवनाधार और नियामक मान रहा है। अगला मंत्र है-
ओ३म् धु्रवा दिग् विष्णुरधिपति:
कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरूध इषव:।
तेभ्यो……।
इस मंत्र में ऋषि कहता है कि वह परमपिता परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है। जो कुछ हमारे नीचे की ओर स्थित है-उसमें भी ईश्वर व्याप्त है। इस दिशा में भी आप ही हमारे स्वामी हैं। जिनके हरित रंग वाले वृक्षादि ग्रीवा के समान हैं। लता, वृक्षादि हमारी रक्षा के बाणरूप साधन हैं।
ओ३म् ऊध्र्वा दिग् बृहस्पतिरधिपति:
श्वित्रो रक्षित: वर्षमिषव:। तेभ्यो….।
यहां ऋषि का कहना है कि हे वेदादि सत्य शास्त्रों तथा लोकों के राजाधिराज सर्वमहान प्रभो! आप हमारे ऊपर की दिशा में ‘सर्वमहान’ (बृहस्पति ग्रह सबसे महान माना जाता है, इसलिए यहां पर ईश्वर को इसी नाम से पुकारा जा रहा है।) के रूप में विराजमान हैं। ऊपर की दिशा में कोई सर्वमहान ही विराजमान हो सकता है, इसलिए प्रभो का यह नाम यहां पर पूर्णत: युक्तिसंगत ही है। आप सर्वमहान के रूप में ऊपर की ओर से हमारे स्वामी हैं। आप पवित्र स्वरूप और ज्ञानमय (श्वित्रो) हैं, तथा हमारी कुष्ठादि रोगों से रक्षा करने वाले भी हैं। आपके द्वारा की जाने वाली वर्षा आदि हमारी रक्षा के साधन हैं।
इस प्रकार ‘मनसा परिक्रमा’ के इन छह मंत्रों में हमने ईश्वर को अग्नि=ज्ञान स्वरूप=परमैश्वर्य के स्वामी, वरूण=सौंदर्य के सागर, सोम=सौम्यस्वभाव, विष्णु=सर्वत्र व्यापक और बृहस्पति अर्थात सर्वमहान के रूप में अपने साथ उपस्थित माना है। प्रात:काल में ईश्वर को इन रूपों में अपने साथ मानकर उसकी साधना करने का फल यह आता है कि हम अपने आपको कभी भी संसार-समर में अकेला नहीं मानते। यही कारण है कि हमारे सैनिकों ने और वीर योद्घाओं ने ऐसे कितने ही युद्घ विदेशी शत्रुओं से जीते हैं-जिनमें उनकी संख्या मुट्ठी भर थी और शत्रुदल अपार था।