विशाल शत्रु दल से जीत पाना हमारे योद्घाओं के लिए तभी संभव हो पाया था-जब हमने ईश्वरीय शक्ति को अपना सम्बल मान लिया था। हम चोर नहीं थे और ना ही हम कोई अनुचित कार्य कर रहे थे, इसलिए ईश्वर ने भी हमारा साथ दिया और हमसे संसार में विषम परिस्थितियों में भी बड़े-बड़े कार्य करा डाले।
कहने का अभिप्राय है कि भारत ने अपने राष्ट्रीय जीवन में ईश्वरीय अनुकम्पा को सदा अपना बनाकर रखा। ईश्वरीय अनुकम्पा हमें तभी मिलती है जब हमारा जीवन सधा सधाया और न्यायपूर्ण हो। भारत की महानता का राज ही यह है कि इसने अपनी भूमिका को सदा न्यायसंगत रखा और न्याय व समानता की रक्षा और स्थापना के लिए संसार का नेतृत्व किया। केवल भारत ही संसार का एकमात्र ऐसा देश है-जिसे यह विश्वास सबसे पहले हुआ कि अंत में सत्य की जय होती है। ‘सत्यमेव जयते’ भारत का आज भी आदर्श है, तो यह ऐसे ही नहीं है। इसमें हमारा युग-युगों का तप और अनुभव दोनों बोलते हैं। युग-युगों की साधना बोलती है और हमारे पूर्वजों का परिश्रम और अध्यवसाय बोलता है, उनका ज्ञान-विज्ञान बोलता है। हमने विशाल शत्रुदल पर मुट्ठी भर योद्घाओं के माध्यम से अनेकों बार विजय प्राप्त की-इस विजय का बहुत ही गौरवपूर्ण इतिहास बोलता है।
उपस्थान मंत्र
मनसा परिक्रमा के पश्चात उपस्थान मंत्रों का स्थान है। इनका पहला मंत्र है :-
ओ३म् उद्वयंन्तमसस्परि
स्व: पश्यन्त उत्तरम्।
देवं देवत्रा सूर्यगन्म ज्योतिरूत्तमम्।।
यहां कहा गया है कि हे परमदेव परमेश्वर! आप सब संसार के अंधकार अर्थात अज्ञान से परे हैं आपको अंधकार छू भी नहीं गया है, और आप अंधकार से परे हैं तभी तो हम आपसे ‘तेजोअसि तेजोमयि धेहि’=अर्थात आप हमें अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले चलो-ऐसी प्रार्थना करते हैं। गायत्री मंत्र में आपके वरणीय तेज स्वरूप का ध्यान करते हैं, जो शत्रुनाशक है। ईश्वर से भक्त कह रहा है कि आप सुख स्वरूप हैं। नित्यता से प्रलय के पीछे रहने वाले हैं। आपके गुणों की कोई सीमा नहीं है, आप गुणों की खान=गुणनिधान, गुणागार और गुणों के कोष हैं। आपके दिव्य गुणों के समक्ष हम नतमस्तक हैं। आप देवों के देव हैं-अर्थात ‘त्वमेव सर्वम् मम् देव देवा्’-तुम मेरे देवों के देव महादेव हो। हे दयानिधान! आप इस चराचर जगत की आत्मा हो। हम आपके शत्रुसंतापक दिव्य सर्वोत्तम तेज को अपने हृदय में देखते हैं और धारण करते हैं, उसकी अनुभूति हमें आनन्दित करती है। हम अत्यन्त श्रद्घा और भक्ति से आपको प्राप्त हों। ऐसी कृपा हम पर आप करें।
ओ३म् उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति
केतव:। दृशे विश्वाय सूर्यम्।।
यहां पर ईश्वर को ‘जातवेदस’ कहा गया है। क्योंकि ईश्वर चारों वेदों की उत्पत्ति का कारण रूप है और वह प्रकृति के सकल पदार्थों में व्यापक और सकल जगत को जानने वाला है। वह सब पदार्थों में व्यापक है और दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण प्रत्येक व्यवहार को जानता है। वह ईश्वर दिव्य गुणों की खान है। स्थावर और जंगम सृष्टि का सूत्रात्मा वह ईश्वर ही है। उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर को वेद की अद्भुत रचना के ज्ञापक गुण तथा अन्य पदार्थ लाल, पीली, झंडियों की भांति निश्चय से सभी प्रकार दिखाते हैं, जिससे कि सब जन देख सकें।
ओ३म् चित्रम् देवानामुदगदनीकं
चक्षुर्मित्रस्य वरूणस्याग्ने: आ प्रा द्यावा पृथिवीं च अन्तरिक्षं सूर्यात्मा जगतस्तथुषश्च।।
यहां पर ईश्वर की शिल्प विद्या विशारद के रूप में आराधना की गयी है। कहा गया है कि आप अद्भुत स्वरूप हैं। विद्वानों के हृदय में सदा विराजमान रहते हैं। सब दु:खों को तथा काम, क्रोधादि शत्रुओं के हनन के लिए आप बाल रूप हैं। मेरे भीतर काम, क्रोधादि के जो शत्रु गुप्त रूप में विद्यमान हैं वे आपके तेज स्वरूप के ध्यान से ही दुम दबाकर भागते हैं। इसलिए मुझे मनुष्य से देवत्व और देवत्व से ऋषित्व दिलाने में आपका दिव्य तेजस्वरूप सर्वाधिक सहायक है। आपके बिना मनुष्यों को सुखकर और कौन हो सकता है? आप प्राण अपान के समान सबको मित्र की दृष्टि से देखने वाले, जल और अग्नि विद्या में निपुणजनों के और सूर्यादि लोकों के प्रकाशक हैं। आप पृथ्वी अंतरिक्ष और द्युलोकादि सारे जगत को रचकर सबको धारण कर रहे हैं। आप सर्वव्यापक अर्थात चर और अचर जगत के सूत्रात्मा हैं। यह सुंदर ध्वनि मेरे हृदय से निकल रही है। आपकी दया से हम सब सदा मीठा बोलें और प्रयत्न से अग्निहोत्रादि यज्ञ किया करें।
ओ३म् तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छु क्रमुच्चरत्। पश्येम् शरद: शतं जीवेम् शरद:शतं श्रणुयाम् शरद: शतं प्रब्रवाम् शरद: शतम्दीना स्याम् शरद: शतं। भूयश्च शरद: शतात्।।
इस वेदमंत्र में ईश्वर को सर्वत्र विद्यमान माना गया है, कहा गया है कि आप सर्वज्ञ हैं और सर्वदृष्टा हैं, अर्थात सब कुछ जानने वाले और सब कुछ देखने वाले हैं। आप हम सबके कल्याणकारी हैं। आप सृष्टि से भी पूर्व वर्तमान रहने वाले हैं, अर्थात आप सृष्टि से भी पहले विद्यमान रहते हो। आप शुद्घ स्वरूप और प्रलय के भी पीछे रहने वाले हैं, अर्थात आप प्रलय हो जाने के पश्चात भी ऐसे ही वर्तमान रहेंगे जैसे सृष्टि से पूर्व वर्तमान रहते हो। आपकी कृपा से हम सौ वर्ष तक आंखों से देखते रहें, सौ वर्ष तक जीते रहें, सौ वर्ष तक आपके गुणों में श्रद्घा रखते हुए उनको सुनते-सुनाते रहे और उनका सर्वत्र उपदेश करते रहें। आपकी उपासना करते हुए सौ वर्ष किसी के सामने दीन होकर हाथ न फैलावें, दास न रहें, स्वतंत्र और धनाढ्य बनें। इसी प्रकार सौ वर्ष से अधिक समय तक आपकी कृपा से जीयें, सुनें, बोलें और आपके पवित्र ज्ञान वेद भगवान को पढक़र उसका उपदेश करें, जिससे कि विश्व के सभी लोगों का कल्याण हो, परित्राण हो।
इस वेद मंत्र में विशेष बात यह कही गयी है कि इसमें साधक अपने इष्ट देव परमपिता परमेश्वर से अदीनतापूर्वक जीवन जीने की प्रार्थना कर रहा है। भक्त अपने भगवान से कह रहा है कि मैं अपने जीवन में दीन ना बनूं, सदा अदीन रहकर जीवन जीऊं। क्योंकि दीनता जीवन का एक अभिशाप है। लाचार व्यक्ति जब किसी के सामने हाथ फैलाता है-तो उससे पहले उसका स्वाभिमान मर चुका होता है। अदीन जीवन जीना भारतीय जीवनशैली का एक संस्कार है।
जब-जब समय आया तब-तब भारतवासियों ने विदेशी आक्रांन्ताओं के सामने भी दीनता के वचन न बोलकर अपने प्राणों की भिक्षा मांगने तक से इनकार कर दिया। यदि हमारे देश के लोग अदीनता की उपासना करने वाले ना होते तो वह विदेशी आक्रांताओं के क्रूर अत्याचारों के सामने बहुत शीघ्र झुक जाते और अपने प्राणों की भीख मांग-मांगकर जीवन यापन करते। यह अवस्था हमारे पूर्वजों के लिए बहुत ही अपमानजनक होती। अत: हमारे पूर्वजों ने दीनता के वचन न बोलकर विदेशी शत्रु आक्रान्ता का सामना युद्घ क्षेत्र में तलवार से किया। हमारी सन्ध्यात्मक जीवनशैली ने हमें अदीन बने रहकर जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। इस अवस्था पर कोई भी सभ्य देश अपने पूर्वजों के महान उपकारों के समझ नतमस्तक हो सकता है, और उसे नतमस्तक हो भी जाना चाहिए। क्योंकि यह भाव उस देश की वर्तमान पीढ़ी में अपने पूर्वजों के प्रति गर्व और गौरव के भाव उत्पन्न करता है। भारत का यह गर्व और गौरव का भाव और उसकी सन्ध्यात्मक जीवनशैली ही थी-जिसके कारण भारत को विश्वगुरू का सम्मानित पद मिला।
क्रमश: