मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 15 ( ख ) महाराणा की कठोर प्रतिज्ञा

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महाराणा की कठोर प्रतिज्ञा

शौर्य और साहस की उस प्रतिमूर्ति ने उस समय यह कठोर प्रतिज्ञा ली कि जब तक विदेशी शत्रु को परास्त नहीं कर दूंगा तब तक चित्तौड़ नहीं लौटूंगा। उनका संकल्प था कि चित्तौड़ की प्राप्ति तक वह नगर या ग्राम में नहीं जाएंगे। भूमि पर शयन नहीं करेंगे और सिर पर राज्य चिन्ह धारण नहीं करेंगे। साथ ही सिर पर मेवाड़ी गौरव की प्रतीक पगड़ी भी धारण नहीं करेंगे। 
  इस कठोर प्रतिज्ञा से भी देश के प्रति उनका समर्पण स्पष्ट परिलक्षित होता है। उन्हें अपने संस्कृति और धर्म से असीम अनुराग था। अपनी भुजाओं के बल पर भी वह भरोसा करते थे और यह मानते थे कि वह अपने भुजबल से विदेशियों को भारतवर्ष में शासन नहीं करने देंगे। 
हमने अपनी पुस्तक "भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास - भाग - 3"  में इस संदर्भ में लिखा है कि - "यह है भारत की पहचान ,भारत का अभिप्राय है भीषण प्रतिज्ञा लेने वाला भीष्म । भारत का अभिप्राय है भीषण प्रतिज्ञा लेने वाला चाणक्य और भारत की पहचान है अपने ज्ञान विज्ञान और क्षत्रियत्व की सुरक्षार्थ नित्य प्रातः काल अपना शिखा बंधन करना कि मैं शिखा ( चोटी ) वाला हूं और शिखा (चोटी) वाला ही रहूंगा। जिस देश का बच्चा बच्चा अपने चोटी धर्म के लिए इस प्रकार संकल्पबद्ध हो जाता है, उस देश के शासक वर्ग से भी किसी प्रकार के स्खलन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह चोटी धर्म हमारी राष्ट्रीय चेतना का प्राण तत्व है जो अत्यंत विषम परिस्थितियों में भी महाराणा संग्राम सिंह को प्राण ऊर्जा प्रदान कर रहा था।" 

वास्तव में चोटी हमारे लिए बहुत गहरे अर्थ रखती है। यह हमें ज्ञान में, उन्नति में प्रत्येक दृष्टिकोण से शिखर वाला बनाती है। हमें इस बात का आभास कराती रहती है कि हम प्रत्येक क्षेत्र में संसार का नेतृत्व करने वाले हैं और अपने इस स्थान को सुरक्षित बनाए रखने के प्रति हम कभी आलस्य या प्रमाद नहीं करेंगे। चोटी रखना अपने इस संकल्प का सदैव बड़ी सजगता और सावधानता के साथ स्मरण करते रहना है। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने चोटी को हमारा धर्मचिह्न घोषित किया। एक प्रकार से हम आर्यों का यह ‘ट्रेडमार्क’ है। जिसे देखकर सामान खरीदने वाला अपने आप समझ लेता है कि माल सिक्का बंद कंपनी का है। खरीद लिया जाए तो कोई हानि होने वाली नहीं। इसके उपरांत भी हम भारतीयों ने पता नहीं, अपने उन वीर योद्धाओं के साथ इतना अन्याय क्यों किया है, जिन्होंने हमें चोटीवाला बनाए रखने के लिए प्राणपण से संघर्ष किया था?

महाराणा संग्राम सिंह की वीरता

खानवा के मैदान में जब महाराणा संग्राम सिंह और बाबर की सेनाओं के मध्य संघर्ष हो रहा था तो उस समय महाराणा संग्राम सिंह अपनी वीरोचित भूमिका का निर्वाह कर रहे थे। उसका वर्णन करते हुए इतिहासकार लिखता है :- “राणा सांगा ने अपने हाथी पर बैठे हुए युद्ध की परिस्थिति का निरीक्षण किया। उसने देखा कि बाबर के गोलों से राजपूत बड़ी तेजी के साथ मारे जा रहे हैं और शत्रु की सेना तोपों के पीछे है। राणा ने एक साथ अपनी विशाल सेना को शत्रु पर टूट पड़ने की आज्ञा दी। राणा की ललकार सुनते ही सेना अपने प्राणों का मोह छोड़कर एक साथ आंधी की तरह शत्रु के गोलंदाजों पर टूट पड़ी।
उस भयानक विपदा के समय उस्ताद अली तथा मुस्तफा ने राजपूतों पर गोलियों की भीषण वर्षा की। उस समय बहुत से राजपूत एक साथ मारे गए। लेकिन उन्होंने शत्रु की तोपों को छिन्न-भिन्न कर दिया और बाबर की सेना का संहार करने के लिए वे जैसे ही आगे बढ़े , सबके सब एक साथ खाई के भीतर जा पहुंचे । उसी समय बाबर की सेना ने खाई के ऊपर से घेरकर जो मार आरंभ की, उसमें राजपूतों का भयानक रूप से वध हुआ। खाई से निकलकर बाहर आने के लिए राजपूतों ने बार बार कोशिश की, लेकिन उनका भीषण संहार किया गया। राजपूत सेना के सामने एक प्रलय का दृश्य था । मरने और बलिदान देने के अतिरिक्त उनके सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं था।”।
(संदर्भ : भारत की प्रसिद्ध लड़ाइयां, केशव कुमार ठाकुर ) मातृभूमि के लिए इतना समर्पण और इतने कष्ट उठाने के अपने स्वर्णिम और गौरवपूर्ण इतिहास पर हर भारतीय को गर्व होना चाहिए। बलिदानों की इस संघर्ष गाथा को हृदयस्थ करना हम सबके लिए अनिवार्य है। वास्तव में अपने हृदय क्षेत्र को ही अपने इन रणबांकुरों और वीर बलिदानियों का स्मारक बना लेना राष्ट्र की उन्नति के लिए और धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए हम सब भारतीयों का राष्ट्रीय कर्तव्य है।

हसन खान मेवाती और महमूद खान लोदी

जिन वीर रणबांकुरे बलिदानियों को हमें अपने हृदय में स्थान देना चाहिए, उन्हीं में हसन खान मेवाती और महमूद खान लोदी भी सम्मिलित हैं। इन दोनों योद्धाओं ने मां भारती के सम्मान के लिए अपना बलिदान देकर भारत के अमर बलिदानियों में अपना नाम अंकित कराया। उन्होंने किसी भी प्रकार की संकीर्ण भावना से ऊपर उठकर राष्ट्र प्रथम को अपने लिए पूजनीय मानकर जीवन जिया। इन दोनों महान योद्धाओं और देशभक्तों के पास अपनी सधी सधाई बड़ी सेना थी। परंतु इसके उपरांत भी वह भारत के साथ खड़े हुए थे।
बाबर के द्वारा जब सांप्रदायिक उन्माद के प्रतीक जेहाद का सहारा लेकर भारतीयों को समाप्त करने का संकल्प लिया गया तब भी इन दोनों देशभक्तों पर और उनकी सेना पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा। वह देश के साथ खड़े थे और अपने अंतिम क्षणों तक देश के साथ ही खड़े रहे। मां भारती के प्रति ऐसे सच्चे अनुरागी और भक्त वीर सपूतों को देश भक्तों को हमारा कोटि-कोटि प्रणाम। खानवा का मैदान हमारी पराजय की कटु स्मृतियों का स्थल ही नहीं है ,अपितु यह हमारे रणबांकुरे की देशभक्ति बलिदान और स्मरणीय त्याग का तीर्थ स्थल भी है। इस मैदान की बलिदानी भूमि में हमारे अनेक देशभक्तों का रक्त मिश्रित है। इसके कण-कण में रोमांच है, वीरता है, देशभक्ति है और राष्ट्र पर मर मिटने की अनुकरणीय भावना है।
 खानवा भारतवासियों के लिए एक ऐसा तीर्थ स्थल है जिसे बाबर और बाबर के आगे आने वाली उसकी पीढ़ियां कभी भूल नहीं पाईं । जिसको शत्रु नहीं भूल पाया, उसे भूलने का अपराध हम भी नहीं कर सकते। जिसने हमें जीने की प्रेरणा दी , देश पर मर मिटने की पवित्र भावना दी और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करने का जज्बा दिया - हम उसको नमन कर सकते हैं , पर हृदय से कभी मिटा नहीं सकते।

महाराणा संग्राम सिंह ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में जो प्रतिज्ञा ली थी , अपने शेष जीवन को वे उसी के साथ जीते रहे। शरीर पर अनेक घावों को सहन करके भी वह देश के लिए जीते रहे। इस अवस्था में भी उन्होंने निज देश की स्वाधीनता के लिए कठोर तपस्या की। विदेशी शत्रुओं को देश से बाहर निकाल कर देश को सुरक्षित करना उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया था। माना कि इसमें वह पूर्णतया सफल नहीं हुए परंतु इससे जूझने और संघर्ष करते रहने की उनकी अमिट भावना अमरत्व को प्राप्त होकर हमारा मार्गदर्शन करती रही।
आगे आने वाली पीढ़ियों ने भी उनका अनुकरण किया और देश को अनेक महाराणा प्रताप दिए। हमें अपने इस महाराणा का इस रूप में अत्यधिक सम्मान करना चाहिए कि उन्होंने बलिदानियों की जिस श्रंखला को जन्म दिया वह 1947 तक ही नहीं उसके बाद आज तक भी यथावत अपना काम कर रही है। आज भी देश – धर्म की रक्षा के लिए जो लोग नि:स्वार्थ भाव से काम कर रहे हैं उन्हें महाराणा संग्राम सिंह जैसे योद्धाओं से ही प्रेरणा प्राप्त हो रही है।

हर श्वास था मां भारती के लिए समर्पित

महाराणा संग्राम सिंह ने अपना हर श्वास मातृभूमि के लिए समर्पित कर दिया। अंत में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इस महानायक ने बसवा के निकट एक दिन अंतिम सांस ली। इसी स्थान पर महाराणा संग्राम सिंह का अंतिम संस्कार कर दिया गया था। वास्तव में बसवा हमारा एक तीर्थ स्थल है। हमारी राष्ट्रीय चेतना का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। जिससे प्रत्येक देशवासी और भारत भक्त को असीम ऊर्जा और प्रेरणा प्राप्त होती है। देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा होता है।
इसका कारण केवल एक है कि इस पवित्र वीरभूमि में हमारा एक ऐसा वीर योद्धा सोया हुआ है ,जिसके कारण विदेशी शत्रु कांपा करते थे। जिसके नाम लेने मात्र से उस समय विदेशी आक्रमणकारियों के होश उड़ जाते थे।
यह बहुत ही दु:खद तथ्य है कि स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात जब मेवाड़ के महाराणा ने मां भारती के इस सच्चे सपूत महाराणा सांगा का भव्य स्मारक बनवाना चाहा तो उसे एक अन्य प्रभावशाली राजवंश के तत्कालीन राजा ने बनने नहीं दिया था।
यह पूर्णतया सत्य है कि महाराणा संग्राम सिंह मेवाड़ी महाराणाओं में से एक थे जिनका नाम मेवाड़ के ही नहीं , भारत के इतिहास में गौरव के साथ लिया जाता है। उनकी महानता और वीरता को सारा राष्ट्र आज भी नमन करता है। उन्होंने जीवन भर साम्राज्यवादी और महत्वाकांक्षी शासक के रूप में काम किया। यद्यपि उनका साम्राज्यवादी चिंतन विदेशी आक्रमणकारियों के राज्यों को समाप्त कर भारत में भारतीयों का राज्य स्थापित करने की पवित्र भावना से बंधा हुआ था। हमने इस पवित्र भावना के साथ जीने मरने वाले महाराणा संग्राम सिंह जैसे वीर योद्धाओं को तो ऐसा संकल्प लेने के कारण एक अपराधी माना पर जो विदेशी यहां पर अपना साम्राज्य विस्तार हमारे देश के ही लोगों का खून बहा बहाकर करते रहे और भारतीयों पर अनेक प्रकार के अत्याचार करते रहे, उनके उस दुराचरण को भी हमने इतिहास का एक अनुकरणीय तथ्य मान लिया। हमारी इसी प्रकार की प्रवृत्ति में हमारे इतिहास के नायकों की उपेक्षा छिपी है।

राणा सांगा का शासन काल स्वर्ण युग

 महाराणा संग्राम सिंह ने अपने मेवाड़ राज्य की सीमाओं का उस समय दूर-दूर तक विस्तार किया था। यदि उनका साम्राज्य उस समय संपूर्ण भारत पर स्थापित हो गया होता तो मुगल काल जैसा विदेशियों के नाम पर स्थापित किया गया इतिहास का कालखंड हमें पढ़ना नहीं पड़ता। महाराणा संग्राम सिंह हिंदू रक्षक, आर्य वैदिक संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ राजनीतिज्ञ, कुशल शासक, शरणागत रक्षक, मातृभूमि के प्रति समर्पित ,शूरवीर और दूरदर्शी शासक थे। उनका शासन काल सचमुच भारत के इतिहास का स्वर्ण काल है। जिसके कारण आज मेवाड़ के उच्चतम शिरोमणि शासकों में उन्हें गिना जाता है।
  डॉ विवेक आर्य ने फेसबुक पर महाराणा संग्राम सिंह के विषय में एक विशेष जानकारी देते हुए लिखा है कि एक विश्वासघाती के कारण राणा संग्राम सिंह बाबर से युद्ध हार गए थे। उन्होंने अपने शौर्य से दूसरों को प्रेरित किया। राव गांगा ने राणा सांगा के कहने पर पाती पेरवन परंपरा के तहत अपनी एक विशाल सेना मुगलों के विरुद्ध खानवा के मैदान में भेजी थी। मारवाड़ की एक विशाल सेना का नेतृत्व राव गांगा के पुत्र राव मालदेव ने किया था। खानवा के मैदान में ही राणा सांगा जब घायल हो गए तब  उन्हें दौसा के निकट बसवा लाया गया।
   यहां से राणा सांगा को कुछ असंतुष्ट सरदारों के कारण मेवाड़ के एक सुरक्षित स्थान कालपी पहुंचाया गया , लेकिन असंतुष्ट सरदारों ने इसी स्थान पर राणा और राणा सांगा को जहर दे दिया। ऐसी अवस्था में राणा सांगा पुनः बसवा आए। जहां सांगा की 30 जनवरी 1528 को मृत्यु हो गई, लेकिन राणा सांगा का विधि विधान से अंतिम संस्कार मांडलगढ़ (भीलवाड़ा ) में हुआ था। 
  वहां आज भी हम महाराणा सांगा का समाधि स्थल देखते हैं। इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊंचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की। राणा सांगा अदम्य साहसी थे। एक भुजा, एक आंख खोने व अनगिनत जख्मों के बावजूद उन्होंने अपना महान पराक्रम नहीं खोया। सुल्तान मोहम्मद शासक मांडू को युद्ध में हराने व बंदी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुनः उदारता के साथ सौंप दिया ,यह उनकी बहादुरी को दर्शाता है। मन में एक ही विचार आता है कि शरीर पर 80 घाव, एक हाथ, एक पैर और एक आंख का अभाव। भीतर से कितने मजबूत रहे होंगे महाराणा संग्राम सिंह? 

यह माटी के प्रति उनका प्रेम और समर्पण ही होगा जो उनकी रगों में साहस का संचार करता होगा। उनकी वीरता को नमन करता हूं। लेकिन यहां उनके समाधि स्थल की दुर्व्यवस्था देखकर मन व्यथित भी है। एक ओर मुगलों ने आगरा में अपने घोड़ों तक की इतनी भव्य समाधि बना दी, दूसरी ओर स्वाधीनता के पश्चात भी राणा संग्राम सिंह की ऐसी अनदेखी …..! धिक्कार है, छद्म सेकुलर नेताओं और इतिहासकारों को ….।”

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।)

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