विश्वगुरू के रूप में भारत-48
इसके पश्चात पुन: गायत्री मंत्र का स्थान वैदिक सन्ध्या में आता है। जिसकी व्याख्या की हम पुन: कोई आवश्यकता नहीं मान रहे हैं। उसके पश्चात अगला मंत्र ‘समर्पण’ का है-
हे ईश्वर दयानिधे भवत्कृपयानेन
जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां
सद्य: सिद्विर्भवेन्न:।
अर्थात-”हे ईश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जो-जो उत्तम-उत्तम काम हम लोग करते हैं, वे सब आपके अर्पण हैं। जिससे हम लोग आपको प्राप्त होके धर्म-जो सत्य न्याय का आचरण करना है, अर्थ-जो धर्म से पदार्थों की प्राप्ति करना है, काम=जो धर्म और अर्थ से इष्ट भोगों का सेवन करना है और मोक्ष-जो सब दु:खों से छूटकर सदा आनंद में रहना है, इन चार पदार्थों की सिद्घि हमको शीघ्र प्राप्त हो।”
इस प्रकार ये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी हमारे जीवन-व्यवहार और दिनचर्या के प्रमुख अंग बन गये और राष्ट्रीय संस्कार के रूप में विख्यात रहे। हमारे पूर्वजों का सारा जीवन व्यवहार इन्हीं से ओत-प्रोत था और वे सदा धर्मार्थ, काम और मोक्ष की परिक्रमा करते हुए जीवन जीते रहे। शेष विश्व इन के रहस्य को आज तक भी समझ नहीं पाया है। जबकि भारत के ऋषियों ने अपने सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन का इन्हें आचार ही बनाकर रख दिया था। जिस कारण भारतवर्ष में बहुत प्राचीनकाल में एक उन्नत समाज की स्थापना करने में हम पूर्णत: सफल रहे थे।
ओ३म् नम: शम्भवाय च मयोभवाय च
नम: शंकराय च मयस्कराय च
नम: शिवाय च शिवतराय च।।
वैदिक सन्ध्या का यह अंतिम मंत्र है। इसमें साधक कहता है-”प्रभो! आप सुख स्वरूप हैं। सर्वोत्तम सुखों को देने वाले हैं। आपको नमस्कार हो। आप कल्याणकारी हैं-मोक्ष स्वरूप हैं, आप ही हमारी सर्व प्रकार की कामनाओं के पूर्ण करने वाले और हमें सुख और शांति देने वाले हैं। आप अपने भक्तों को धर्मकार्यों में लगाने वाले हैं-आपको नमस्कार हो। आप अत्यंत मंगल स्वरूप हैं। आप ही हमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले हैं। आपको हमारा अत्यंत नम्रता पूर्व परम श्रद्घा और भक्ति से बार-बार नमस्कार हो।”
ओ३म् शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!!
हे परमपिता परमेश्वर! आप हमें आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीनों तापों से मुक्त करें। हमारे पाप, ताप संताप का निवारण करें।
अभिप्राय है कि हमारी स्वाधीनता और राष्ट्रीय एकता व अखण्डता पर भी किसी प्रकार की आंच न आने पाये, हम सदा आपके श्रीचरणों में यूं ही बैठकर अपनी जीवन बैट्री को चार्ज करते रहें और अपने राष्ट्रीय सामाजिक एवं पारिवारिक परिवेश को ऊर्जावान व गतिशील बनाये रखें।
इस सन्ध्या का अभिप्राय व्यक्ति के निजी जीवन से तो है ही अंतिम अभिप्राय इसका राष्ट्रीय जीवन को उन्नत बनाना भी है। सन्ध्या की भावना सामूहिक कल्याण के हमारे राष्ट्रीय संस्कार पर आधारित है। हमारी सामूहिक चेतना हमारी व्यक्तिगत सन्ध्या से चेतनित और ऊर्जान्वित होती रही है। इस प्रकार सन्ध्या वह है जहां व्यष्टिवाद समष्टिवाद में विलीन हो जाता है, जीवन्मुक्त हो जाता है। वहां से आगे सबके लिए जीना आरम्भ होता है और यह सबके लिए जीना ही भारत की मूल चेतना है। इसी चेतना को भारत ने चेतनित कर समग्र विश्व के लिए अपने आपको नायक के रूप में प्रस्तुत किया। हमारे लिए यह गर्व का विषय है कि शेष विश्व ने भारत का नेतृत्व स्वीकार भी किया। जिसने हमें एक जीवन्त राष्ट्र बने रहने के लिए प्रेरित किया है।
भारत का अर्थशास्त्र देता है-आदर्श व्यवस्था
भारत की संस्कृति में आवश्यकताओं से अधिक अर्थसंग्रह को अनुचित माना गया है। अब प्रश्न हो सकता है कि मनुष्य की आवश्यकताएं तो अनंत हैं। अनंत कामनाओं के जाल में भटका और अटका हुआ मनुष्य उन्हीं में घिरकर हांफ-हांफ कर मर जाता है, पर उसकी आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो पातीं। एक आवश्यकता पूर्ण होती है तो दूसरी खड़ी हो जाती है-इस प्रकार एक के पश्चात एक आवश्यकता मनुष्य को आ घेरती है।
जब मनुष्य के पास साईकिल होती है तो उसकी इच्छा स्कूटर की होने लगती है, जब उसके पास स्कूटर आ जाता है तो फिर चार पहिये की गाड़ी की इच्छा जागृत हो जाती है। जब चार पहिये की गाड़ी आ जाती है तो फिर उसये भी महंगी गाड़ी लेने का भाव आ घेरता है। क्या ये सभी आवश्यकताएं पूर्ण हो सकती हैं? भारतीय चिंतन कहता है कि आवश्यकताओं को सीमित करो, कामनाओं का अंत करो। हमारी जैसी परिस्थितियां हैं-वैसी परिस्थितियों के अनुरूप हमारे पास आर्थिक साधन होने चाहिएं। यदि आप साधु हैं तो आपके पास उसके जैसे आर्थिक साधन होने चाहिएं। एक साधु का गाडिय़ों में रहना तो उचित कहा जा सकता है, क्योंकि उसे धर्म प्रचार के लिए उनका उपयोग करना पड़ता है परंतु वह महलों में रहे-यह उचित नहीं कहा जा सकता, वह डबल बैड पर सोये और क्रीम पाउडर आदि का प्रयोग करे-यह भी उसके लिए शोभनीय नहीं है। इन चीजों को वैदिक अर्थशास्त्र एक साधु के लिए अनपेक्षित और नीति विरूद्घ मानता है। यही कारण है कि हमारे साधु, संन्यासी लोग इन सब चीजों से दूरी बनाकर रहते थे।
दूसरी ओर एक गृहस्थी के लिए इन चीजों को रखने की अनुमति देकर उस पर भी प्रतिबंध लगाया गया है कि अपनी आय से अधिक व्यय मत करना और ध्यान रखना कि जिससे तेरा और तेरे परिवार का भरण-पोषण हो सके, पांचों महायज्ञों की परम्परा का निर्वाह हो सके, बच्चों की उचित शिक्षा-दीक्षा उनका पालन पोषण विवाहादि हो सकें-उतना ही धन अपने पास रखना। उससे अधिक यदि तेरे पास आये तो उसको लोकोपकार के कार्यों में व्यय करना। धर्मशाला, पाठशाला, कुंए, बावड़ी, तालाब, अस्पताल, आदि खुलवाने पर व्यय करना। उसे ये मानना कि ये अधिक धन तुझे लोकोपकार के लिए ही ईश्वर ने दिया है। तुझे इसका पात्र माना है कि तू ये बड़ा कार्य कर सकता है। हमारे लोग प्राचीन काल में धार्मिक कार्यों के लिए या लोकोपकार के लिए खुलकर दान किया करते थे, साथ ही राजा को अपनी आय का एक निश्चित भाग स्वेच्छा से दान या कर के रूप में दिया करते थे, जिससे कि लोकोपकार के कार्य होते रहें और शासन को उन्हें पूरा करने से सुविधा हो सके।
शासक वर्ग जनसेवी लोगों का एक समूह होता था-जिसको धनादि देकर लोग निश्चिंत हो जाते थे कि ये लोग इस धन का सदुपयोग करेंगे। इस प्रकार हमारे लोगों का राष्ट्र निर्माण में सकारात्मक और सहयोगात्मक सात्विक योगदान रहा करता था। कहीं कर चोरी नहीं थी। जो कोई कर चोरी करता था-उसे समाज के लोग ही हेय दृष्टि से देखते थे। अंग्रेजों और उनसे पहले मुगलकाल में शासक वर्ग लालची हो गया और वह जनसाधारण से पैसा लूटकर लेता था और उसे भी इस देश के विनाश में प्रयोग करता था, इसलिए वहां से हमारे लोगों का पुराना संस्कार मिटने लगा और इस देश के लोग अपनी आय को छुपाकर रखने लगे। कर चोरी की इस प्रवृत्ति की यह विकृति आज तक हमारा पीछा कर रही है। आजकल तो चार्टर्ड एकाउंटेंट कार्यालय खोले बैठे हैं, जो आपको इसी बात की शिक्षा और परामर्श देते हैं कि कर चोरी कैसे की जा सकती है? क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत