इतिहास पशु हिंसा और अश्लीलता
गतांक से आगे….
जिस प्रकार गौ शब्द के अनेक अर्थ हैं, उसी तरह वृषभ शब्द भी अनेक अर्थों में आता है। यहां हम वैद्यक के ग्रन्थों से दिखलाते हैं कि संस्कृत में जितने शब्द बैल के अर्थ में आते हैं, वे सब काकड़ासिंगी औषधि के लिए भी
प्रयुक्त हुए हैं।
ऋषभो गोपतिर्धोरो वृषाणी धूर्धरो वृषः ।
ककुद्मात् पुङ्गवो वोढा श्रृङ्गी घुर्यश्व भूपतिः ।। (राजनिघण्टु)
श्रृङ्गी कर्कश्रृङ्गी च स्यात् कुलीरविषाणिका ।
अजश्रृङ्गी च रक्ता च कर्कटाख्या च कीर्तिता । ( भावप्रकाश)
इन श्लोकों में वृषभ के समस्त नाम काकड़ासिंगी के लिए आये हैं। ऐसी हालत में जहां कहीं काकड़ासिंगी के काटने, पकाने और खाने का वर्णन हो, वहाँ बैल के काटने, पकाने और खाने का अर्थ करना बहुत ही सहज है। इसी तरह वाग्भट में अनेक प्राणियों के नाम से धानों (चावलों) की अनेक जातियों का वर्णन किया गया है। एक जगह पर लिखा है कि
ततः क्रमान् महाव्रीहिः कृष्णवीहिजंतूमुखाः । कुक्कुटाण्डकपालाच्या पारावतक सूकराः ।।
वारकोद्वालकोज्वालची नशारदददुराः ।
यहां जतूमुख, कुक्कुटाण्ड, कपाल, पारावत, सुकर और दर्दुर आदि अनेक प्राणियों के नाम से चावलों का वर्णन किया गया है। यदि कहीं पर सूकर और ददुर पकाकर हवन करने की विधि हो, तो लोग यही कहेंगे सुवर और मेंढक के मारने, पकाने, हवन करने और खाने का विधान है, परन्तु यहां बात ही कुछ और है। इसी तरह भावप्रकाश में लिखा है कि-
अजमोदा खराश्वा च मयूरी दीप्यकस्तथा ।
यहां अश्व, खर और मयूरी आदि नाम अजमोदा के बताये गये हैं। अश्वगन्धा का भी अश्व के नाम से वर्णन किया गया है। इसी तरह सुश्रुत में लिखा है कि-
अजा महौषधी ज्ञेया शंखकुन्देन्युपाण्डुरा ।
यहां अजा भी औषधि ही बताई गई है। कहने का मतलब यह है कि गौ, वृषभ, सूकर, अश्व और अजा आदि
जितने प्राणियों की यज्ञ में हिंसा बतलाई जाती है, वे सब औषधियां है और हवनीय तथा प्राश्रीय पदार्थ हैं। केवल दूव्यर्थक होनेसे ही असुरों ने उनका हिसापरक अर्थ करके अपना स्वार्थ सिद्ध किया है। इस पर कोई कह सकता है कि यह तो पशुओं और प्रश्नों के नामों की समता का समाधान हुआ, पर जहाँ यज्ञ में स्पष्ट मांस, अस्थि, मजा और नसों के वर्णन आते हैं, उसका क्या इलाज है ? हम कहते हैं, वहां भी दो भिन्न भिन्न ग्रंथों के ही कारण ऐसा भासित होता है। सुश्रुत में आम के फल का वर्णन करते हुए लिखा है कि-
अपक्वे चतफले स्नाय्वस्थिमज्जानः । सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते पक्वे त्वाऽविभूर्ता उपलभ्यन्ते ।।
अर्थात् आम के कच्चे फल में नसें हड्डियां और मज्जा यादि प्रतीत नही होती, किन्तु पकने पर सब आविभूर्त हो जाती हैं । यहाँ गुठली के तन्तु रोम, गुठली हड्डियाँ, रेशे नसें, और चिकना भाग मज्जा कहा गया है। इसी तरह का वर्णन भावप्रकाश में भी आया है। यहाँ लिखा है कि-
आम्रास्यानुफले भवन्ति युगपन्मांसास्थिमज्जायो । लक्ष्यन्ते न पृथक् पृथक् तनुतया पुष्टास्त एव स्फुटाः ।। एवं गर्भसमुद्र त्ववयवाः सर्वे भवन्त्येकदा। लक्ष्या सूक्ष्मतया न ते प्रकटतामायान्ति वृद्धि गताः ।।
अर्थात् जिस प्रकार कच्चे आम के फल में मांस, अस्थि और मज्जादि पृथक् पृथक् नहीं दिखलाई पड़ते, किन्तु पकने पर ही ज्ञात होते हैं, उसी तरह गर्भ के आरंभ में मनुष्य के अङ्ग भी नहीं ज्ञात होते, किन्तु जब उनकी वृद्धि होती है, तब स्पष्ट हो जाते हैं। इन दोनों प्रमाणों से प्रकट हो रहा है कि फलों में भी मांस, अस्थि, नाड़ी और मज्जा आदि उसी तरह कहे गये हैं, जिस प्रकार प्राणियों के शरीर में वैद्यक के एक ग्रन्थ में लिखा है कि-
प्रस्थं कुमारिकामांसम् ।
अर्थात् एक सेर कुमारिका का मांस । यहां घीकुवार को कुमारिका और उसके गूदे को मांस कहा गया है । कहने का मतलब यह कि जिस प्रकार औषधियों और पशुओं के नाम एक ही शब्द से रक्खे गये हैं, उसी तरह औषधियों और पशुओं के शरीरावयव भी एक ही शब्द से कहे गये हैं। इस प्रकार का वर्णन आयुर्वेद के ग्रन्थों में भरा पड़ा है। श्रीवेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई, के छपे हुये ‘औषधिकोष’ में नीचे लिखे समस्त पशुसंज्ञक नाम और अवयव वनस्पतियों के लिये भी आये हुए दिखलाये गये हैं। हम नमूने के लिए कुछ शब्द उद्धृत करते हैं।
वृषभ-ऋषभ कन्द, मेष-जीवशाक,श्वान – कुत्ताघास, ग्रन्थिपर्ण, कुक्कुट (टी) – शाल्मलीवृक्ष,मार्जार- बिल्लीषास, चित्ता,नर-सौगन्धिक तृण,मयूर – मयूरशिखा,मातुल-घमरा,मृग-सहदेवी, इन्द्रायण, जटामांसी, कपूर, पशु-प्रम्बाड़ा, मोथा,अश्व-अश्वगंधा,कुमारी — श्रीकुमार,हस्ति – हस्तिकन्द,वपा – झिल्ली – बकूल के भीतर का जाला,नकुल- नाकुलीबूटी,हंस-हंसपदी,अस्थि- गुठली, मत्स्य – मत्स्याक्षी,मांस- गूदा, जटामांसी, धर्म- बकल,मूषक—मूषाकर्णी,गो— गोलोमी,महाज-बड़ी प्रजवायन,सिही- फटेली, वासा,सर्प – सर्पिणीबूटी,स्नायु – रेशा,नखनखबूटी मेद-मेवा,खर- खरपरिणनी,काक – काकमाची,वाराह – वाराहीकन्द,महिष – महिषाक्ष, गुग्गुल श्येन – श्येनघंटी (दन्ती),लोम (शा) – जटामांसी,हृद-दारचीनी,पेशी – जटामांसी,रुधिर- केसर,बालम्भन-स्पर्श
इस सूची में समस्त पशुपक्षियों और उनके अवयवों के नाम तथा तमाम वनस्पतियों और उनके अवयवों के नाम एक ही शब्द से सूचित किये गये हैं। ऐसी दशा में किसी शब्द से पशु और उसका ही अवयव ग्रहण नहीं किया जा सकता। यद्यपि विना कारण के कोई विशेष अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता, तथापि यह प्रश्न अवश्य हो सकता है कि ऐसी सन्देहात्मक भाषा क्यों बनाई गई, जिसका अर्थ ही स्पष्ट नहीं होता ? इस प्रश्न का इतना ही उत्तर है कि संसार में ऐसी एक भी भाषा नहीं है, जिसके शब्दों के दो दो तीन तीन अर्थ न होते हों। अब रही यह बात कि ऐसा क्यों होता है और क्यों एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं ? इसका उत्तर बहुत ही सरल है। हम देखते हैं कि वेद में दो कारणों से ऐसा हुआ है। एक कारण तो यह है कि थोड़े ही शब्दों के द्वारा अनेक विषयों का वर्णन कर दिया जाय और दूसरा कारण यह है कि दो पदार्थों की समता के कारण भी दोनों का एक ही नाम दिया जाय । पहिला कारण स्पष्ट है, उसमें अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है ।
क्रमशः