आनंद प्राप्ति का लक्ष्य रख, जीवन है अनमोल
बिखरे मोती-भाग 197
यहां तक कि सद्गुणों के कारण व्यक्ति का इस संसार में ही नहीं अपितु स्वर्ग में भी उसका आसन श्रेष्ठ होता है। अत: हो सके तो संसार में अपने सद्गुणों का, अच्छे हुनर का अधिक से अधिक दान दीजिए। आपके द्वारा दान में दिये गये सद्गुण किसी को फर्श से उठाकर अर्श तक पहुंचा सकते हैं। सफलता के शिखर पर पहुंचा व्यक्ति ‘शिखर पुरूष’ कहलाता है। तत्क्षण यदि उसका सिर किसी के लिए झुकता है, तो उसी के लिए झुकता है जो उसके सद्गुणों का स्रोत अथवा प्रेरक रहा हो, चाहे वह माता-पिता हों, गुरू हों अथवा बड़ा भाई इत्यादि।
यहां चिंतन करने वाली बात यह है कि परमात्मा का निज नाम ओ३म् है, शेष नाम तो गुण वाचक हैं। ये गुणवाचक नाम भी हमें गुणों का दान देते हैं, जैसे-हे प्राण प्रदाता ओ३म्। भाव क्या है? हे रक्षक जीवन देने हारे! स्पष्ट हो गया कि परमपिता परमात्मा सबका रक्षक है, जीवन देने हारा है। इसलिए हम भी किसी के रक्षक बनें, भक्षक नहीं। उसे दयालु कहा गया है-हम भी उसके जीवों पर दया करें, करूणा करें, क्रूरता नहीं। उसे न्यायकारी कहा गया है-हम भी न्यायकारी बनें, अन्याय और अधर्म से सर्वदा दूर रहें। सारांश यह है कि परमपिता परमात्मा ने अपने दिव्य गुणों का दान हमारी आत्मा को देकर भेजा है।
जब तक आत्मा इन दिव्य गुणों में अवगाहन करती है, तब तक वह चैन से आनंद से रहती है। अन्यथा बेचैन हो जाती है। इसलिए चैन से रहना है तो परमात्मा के दिव्य गुणों को आचरण में उतारिये। ये दिव्य गुण हैं-शांति, क्षांति, श्रद्घा, संतोष, स्नेह, सहचर्य, साहस, प्रेम, प्रसन्नता (आनंद) बंधुता, उदारता, दानशीलता, कर्मठता इत्यादि। परमात्मा ने ये गुण हमें दान में दिये हैं, दहेज में दिये हैं। जरा गंभीर होकर सोचिए, वह परमपिता-परमात्मा हमारे दैनिक जीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूत्र्ति के लिए हमें असंख्य साधन तो देता ही है, साथ ही हमारे आत्मस्वरूप को दिव्य बनाने के लिए वह हमें दिव्य गुण भी देता है, जो आत्मा के दिव्य तेज को बढ़ाते हैं, आभामंडल को सौम्य और सुंदर बनाते हैं। वाह रे विधाता! तू कितना बड़ा दानी है? तेरा भी कोई सानी नहीं। हे प्राण-प्रदाता ओ३म् ! हे दाताओं के दाता ओ३म् ! मैं तेरी अनंत अनुकंपाओं और अविरल देन (दान) के सामने नतमस्तक हूं।
काश! मनुष्य मात्र परमपिता-परमात्मा के इस दान का अर्थात दिव्य गुणों का जीवन में उपयोग करे, अनुसरण करे, अनुकरण करे, आचरण करे तो मनुष्य का श्रेष्ठ स्थान इस संसार में ही नहीं, अपितु स्वर्ग में भी सुनिश्चित हो सकता है।
आनंद प्राप्ति का लक्ष्य रख,
जीवन है अनमोल।
जीवन है अनमोल।
केवल माया के कारणै,
मत आवागमन में डोल ।। 1130।।
मत आवागमन में डोल ।। 1130।।
व्याख्या :-जीवन का अवसान जब समीप होता है तो अक्सर लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं-”परमपिता परमात्मा का दिया हुआ सब कुछ है-बेटा-पोते हैं, भरा-पूरा परिवार है, मित्र रिश्तेदार हैं, ऊंचे रसूकदार हैं, धन दौलत के भण्डार हैं, विस्तृत कारोबार है तथा यश की महकार है किंतु ‘मन की शांति’ नहीं है अर्थात ‘मन का चैन’ नहीं है, आनंद नहीं है, मन में एक उचाटी सी अर्थात बेचैनी सी रहती है। क्या कभी गंभीरता से सोचा, ऐसा क्यों हुआ? इसका मूल कारण है-मनुष्य ने अपने जीवन का लक्ष्य माया को बनाया था। इसलिए उसे माया मिल गयी मायाधीश नहीं। माया का स्वभाव तो बेचैन करना और तृष्णा के सागर में डुबाना है।
मन की शांति अथवा आनंद तो मायाधीश (परमानंद) के चरणों में है। अरे नादान मनुष्य! तेरा लक्ष्य गलत था, गंतव्य गलत था। ध्यान रहे, यदि नाव को गंतव्य तक पहुंचना है तो उसके दोनों टापुओं को चलाना नितांत आवश्यक है, अन्यथा नाव एक जगह ही गोल चक्कर काटती रहेगी। क्रमश: