विश्वगुरू के रूप में भारत-49
उधर शासन के लोग भी चोरी करते हैं, वहां भी भ्रष्टाचार है। वे भी जनधन को उचित ढंग से प्रयोग नहीं करते और उसे भ्रष्टाचार के माध्यम से अपनी तिजोरियों में भरने का प्रयास करते हैं। ऐसे में करदाता और शासक वर्ग देश में सांप-छछूंदर का खेल खेलता रहता है। करदाता कर बचाने की युक्तियां खोजता है और शासक वर्ग अधिक से अधिक कर वसूलने की युक्तियां खोजता रहता है। यद्यपि शासक वर्ग के लोग भी स्वयं करदाता होते हुए भी अपनी उचित आय को कभी सार्वजनिक नहीं करते, इसका अभिप्राय कि वह भी कर चोरी करते हैं।
हम राष्ट्र निर्माण के कार्यों से भागने और चोरी करने की प्रवृत्ति से ग्रस्त हो गये हैं। हम ईमानदारी का शोर तो मचाते हैं पर यह कहां से प्रारंभ हो और कैसे प्रारंभ हो?-यह आज तक हम सुनिश्चित नहीं कर पाये हैं-जबकि देश को स्वतंत्र हुए 70 वर्ष हो गये हैं। नेता कानून ऐसा बनाते हैं कि जिससे वे चोरी भी करते रहें, पर पकड़ में न आयें और जनता कानून को समझकर भी उसे कैसे तोड़ा जाए?- इस प्रकार की युक्तियों को खोजने में लगी रहती है।
वेद लोगों को कंगाल बनाने की शिक्षा नहीं देता। वैदिक संस्कृति एक समृद्घ समाज और समृद्घ राष्ट्र बनाने की समर्थक है। वह अदीन जीवन जीने की प्रेरणा देती है, पर साथ ही हमसे अपेक्षा करती है कि सभी लोगों की दीनावस्था दूर हो जाए। इसके लिए सब मिलकर सामूहिक प्रयास करें और यह सामूहिक प्रयास यहीं से आरंभ होता है कि जब आपका मटका भर जाए तो अतिरिक्त दूध को दूसरों के लिए स्वेच्छा से छोडऩा आरंभ करो। रास्ते में खड़े हो जाओ कि-‘लो मेरे पास इतना दूध है, इसे लो और प्रसन्न रहो।’
इसी संस्कार को बलवती करने के लिए वैदिक संस्कृति ‘छोडऩे-छोडऩे’ की त्यागमयी बात कहती है। जबकि पश्चिमी देशों की सभ्यता ‘जोडऩे-जोडऩे’ की स्वार्थपूर्ण बात कहती है। ‘छोडऩे-छोडऩे’ की प्रवृत्ति वाला बोलता है-‘इदम् राष्ट्राय इदन्नमम्’ और ‘जोडऩे -जोडऩे’ की प्रवृत्ति वाला बोलता है कि-‘ मेरा धन तो मेरा है ही औरों का भी मेरा ही है।’ यही कारण है कि ‘जोडऩे -जोडऩे’ की प्रवृत्ति में मारामारी है। जबकि ‘छोडऩे-छोडऩे’ की प्रवृत्ति में प्रेम है, सहिष्णुता है, सद्भाव है और सम्मैत्री है। इसी भाव को बलशाली करने के लिए वेद ने मनुष्य को समृद्घिशाली बनने की शिक्षा अनेकों स्थलों पर दी है।
वेद कहता है-
स नो वसून्या भर (यजु. 15/30)
वह परमात्मा हमें धनों से अच्छे प्रकार से पूर्ण करे।
अग्ने नय सुपथा राये-(यजु. 7/43)
हे ज्ञानस्वरूप अग्ने परमेश्वर! आप हमें महान धनैश्वर्य के लिए उत्तम मार्ग से ले चलिये।
श्री श्रयताममपि (यजु. 39/4)
मुझमें श्री=लक्ष्मी स्थिर हों।
वयं स्याम पतयोरयिणाम् (यजु. 10/20)
हम धनैश्वर्यों के स्वामी बनें।
वेद की मान्यता है कि धनैश्वर्यों से मनुष्य को आनन्द की प्राप्ति होती है और वह आनन्द वास्तव में लोककल्याण के महान कार्यों के निष्पादन से ही मिलता है। वेद की दृष्टि में अर्थ का यही अर्थ है। इसके अतिरिक्त यदि धन किसी व्यसन में या बुराई में=मद्य, मांस, द्यूतक्रीड़ा या व्यर्थ की मुकदमेबाजी में व्यय होता है तो वह व्यर्थ है। ऐसा धन हमारे जीवन को ही नष्ट कर जाता है।
वेद ने अर्थ का आधार पशु पृथिवी और मनुष्य को माना है। अथर्व वेद (20/127/12) में आया है कि इस पृथ्वी पर गौएं अश्व एवं पुरूष वर्ग उत्पत्ति धर्मा हों, तथा इस पृथिवी पर पालनकर्ता सूर्य अच्छी प्रकार अपनी सहस्र उत्पादन शक्तियों से विराजमान है।
इस मंत्र में पृथ्वी को सहस्र उत्पादन सामथ्र्य वाली होने की बात कहकर वेद के ऋषि ने अर्थशास्त्र की मूल विचारधारा को ही बल दिया है। अर्थशास्त्र आर्थिक संसाधनों को बढ़ाने की बात कहता है और इसके लिए वह सर्वप्रथम पृथ्वी की ओर ही देखता है।
हमारा राजा पृथु महान अर्थ शास्त्री था जिसने पहली बार इस पृथ्वी को समतल कराकर इसे उत्पादन योग्य बनाया था और इसकी उचित नाप तोल करायी थी।
वेद का अर्थशास्त्र व्यर्थशास्त्र होने से बचता है, जैसा कि आज का अर्थशास्त्र बन गया है। इसके लिए वेद का अर्थशास्त्र पृथ्वी को जैविक खादों से, पेड़ पौधों की पत्तियों से गोबर आदि से उत्पादक बनाना चाहता है। इससे एक क्रम बना रहता है। धरती उत्पादन देती है, चारा देती है, जिसे पशु खाते हैं, उससे पशु गौ आदि गोबर देते हैं, जिससे पशुओं के गोबर की खाद बनती है, मनुष्य का मलमूत्र बनता है। उनसे फिर खाद खेतों में पहुंचती है, जिससे एक चक्र बना रहता है और हमें इस चक्र की निरंतरता बनाये रखने के लिए किसी प्रकार की अतिरिक्त ऊर्जा का हमें अपव्यय नहीं करना पड़ता। जबकि आज के अर्थशास्त्र ने इस व्यवस्था को पलट दिया है। उसने रासायनिक खादों का निर्माण करना आरंभ कर दिया है। जिससे पृथ्वी अनुपजाऊ होती जा रही है। बहुत सी वनस्पतियां समाप्त हो रही हैं या हो चुकी हैं। इससे पेड़ पौधे भी समाप्त हो रहे हैं। अत: पृथ्वी को हरियाली के संकट ने आ घेरा है।
परिणाम ये आ रहा है कि अर्थशास्त्र का मूलाधार ही हिल रहा है, उसका भवन कब गिर जाएगा?- कुछ कहा नहीं जा सकता। वेद के अर्थशास्त्र ने उत्पत्ति धर्मी पशुओं को अपना आधार बनाया। गाय अपने वंश को अपने आप चला लेती है, घोड़ा अपने वंश को अपने आप चला लेता है। जबकि टै्रक्टर अपना वंश अपने आप नहीं चला सकता। एक गाय खरीदकर आप बीस गायों के अपने आप स्वामी बन सकते हैं पर एक टै्रक्टर एक ट्रैक्टर को जन्म नहीं दे सकता। नया टै्रक्टर बनाने के लिए आपको पहले वाले टै्रक्टर से भी अधिक धन व्यय करना होगा। इस प्रकार प्रचलित अर्थशास्त्र ने मशीन को पैदा किया-यह तो अच्छी बात है पर मशीन को अपना मूलाधार बनाया यह गलत बात है।
मशीन पैदा करोगे तो वह मशीनी मानव के रूप में संवेदनाशून्य होकर आपके पास आएगी। जैसा कि आजकल रोबोट आ भी गया है। जबकि पशु आदि के साथ मित्रता करके चलोगे तो आपकी अर्थव्यवस्था संवेदनशील अर्थव्यवस्था बनी रहेगी। किसी भी व्यवस्था के चिरकाल तक बने रहने के लिए यही आवश्यक है कि वह व्यवस्था संवेदनशील होनी चाहिए। असंवेदनशीलता तो परिवारों को मिटा देती है। अत: उससे आप राष्ट्र और समाज के संचालन की अपेक्षा नहीं कर सकते। इसीलिए वेद ने अर्थ का आधार पशुओं को बनाया।
दूसरे स्थान पर वेद ने अर्थव्यवस्था का आधार पृथ्वी को माना है। (यजु. 36/13) में आया है कि-”हे पृथिवी! तू हमारे लिए सुखरूपा कंटक रहित, निवास योग्य हो। हमारे लिए विस्तार के साथ शरण दे। हमारे दोषों को हम से दूर हटा दे।”
पृथिवी हमारे लिए सुखरूपा, कंटक रहित और निवास योग्य तभी बन सकती है-जब हम स्वयं पृथ्वी के प्रति और उसके पर्यावरण के प्रति संवेदनशील और जागरूक होंगे। यदि हम पृथ्वी के पर्यावरण को उद्योगों के या वाहनों के धुएं से खराब कर देंगे, प्रदूषित कर देंगे तो ऐसे में पृथ्वी भी हम से कुपित हो जाएगी। पृथ्वी को कुपित होने से बचाने के लिए वेद की अर्थव्यवस्था मानव जीवन को यज्ञमयी बनाने की शिक्षा देती है। वह कहती है कि जितना लेते हो, कृतज्ञतावश उसे सवाया करके लौटाओ।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत