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राजनीति संपादकीय

पीएम मोदी अरूण जेटली को सिखायें ‘राजधर्म’

भारत का लोकतन्त्र एक दीवार है-उन लोगों के लिए जो प्रतिभावान और ईमानदार देशभक्त तो हैं, पर उनके पास लोकतन्त्र को नचाने के लिए अपने साधनों की कमी है। वे धनाढ्य नहीं हैं और ना ही उनके पास पार्टी तन्त्र है। लोकतन्त्र को पार्टीतन्त्र खा रहा है और पार्टी तन्त्र द्वारा निगले जा रहे लोकतन्त्र को हम देखकर भी मौन हैं। यदि लोकतन्त्र देश के लोगों के लिए एक दीवार ना होता और लोकतन्त्र को पार्टी तन्त्र निगल रहा होता तो एक समय था जब जेपी नारायण को देश के जनमत का बहुमत देश का प्रधानमन्त्री मान चुका था, पर जनता के मानने से यहां कुछ नहीं होता। जेपी को भी एक पार्टी खड़ी करनी आवश्यक थी और फिर उस पार्टी के 272 सांसद जिताकर लाने आवश्यक थे। कोई चाहे कुछ भी कहे पर यह सच है कि लोकनायक होकर भी जे.पी. ‘लोकतन्त्र के नायक’ (जनता पार्टी के सांसदों के बहुमत के नेता) नहीं बन पाये थे। भीतर का सच इस देश में बाहर कभी नहीं आता। झूठा इतिहास पढ़ते-पढ़ते हम झूठा इतिहास गढऩे के भी आदी हो गये हैं। ‘ओमप्रकाश चौटाला’ बन्द कमरे में एक मुख्यमन्त्री की पिटाई कराते हैं और उससे त्यागपत्र लेकर प्रदेश पर अपना कब्जा कर लेते हैं-पर बाहर पिटने वाले मुख्यमन्त्री से ही कहलवा दिया जाता है कि मैं स्वास्थ्य कारणों से त्यागपत्र दे रहा हूं। पिटने वाले का यही बयान इतिहास के सच को छुपाकर इतिहास बना दिया जाता है। यह प्रश्न आज भी उत्तर मांग रहा है कि लोकनायक को लोकतन्त्र का नायक क्यों नहीं बनाया गया था? क्यों उनके लिए और अनेकों मुख्यमंत्रियों के लिए एक समय आने पर लोकतन्त्र एक दीवार बनकर रह गया? जब देश की जनता लोकनायक में ऐसी प्रतिभा देख रही थी कि वह भारत का नेतृत्व कर सकते हैं और अब उन्हें देश का नायक बनाया ही जाना चाहिए तो उस समय लोकनायक पीछे क्यों हट गये? उन्हें सत्ता सौंपी जानी चाहिए थी।
इसी प्रकार देश में एक समय ऐसा भी आया था जब देश की जनता ने अन्ना हजारे को अपना नेता मान लिया था। पर उनके पास भी पार्टीतन्त्र नहीं था। उन्हें भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए 272 सांसदों के एक आंकड़े को पार करना था। जिसे वह पार नहीं कर पाये और देश उनकी सेवाओं से वंचित रह गया। क्या कमाल का लोकतन्त्र है देश में कि भ्रष्टाचारी तन्त्र से लडऩे के लिए भी आपके पास लोकसभा में 272 सांसद होने चाहिएं। ऐसा न होने पर आपका हश्र अन्ना जैसा हो जाएगा। आप लोकप्रिय होकर भी सत्ता से दूर रह जाएंगे और जो आप चाहते हैं उसे अपने द्वारा नहीं पाएंगे।
अब आते हैं-भाजपा के नरेन्द्र मोदी पर। उनमें देश की जनता ने एक साथ जे.पी. और अन्ना का अक्श देखा था और उन्हें सत्ता सौंप दी थी। उनके लिए लोकतन्त्र की सारी दीवारें गिरा दी गयीं और उन्हें जे.पी. की तरह ‘शहीद’ करने वाले उन नेताओं की भी नहीं चली जो उनके परिश्रम का फल आडवाणी को पी.एम. बनाकर देने की बातें उस समय करने लगे थे-जब 2014 में भाजपा मोदी के नेतृत्व में शानदार जीत प्राप्त करके सत्ता की दावेदार बनी थी, मोदी ने 272 के आंकड़े को भी पार किया और सत्ता का वरण किया। उनसे लोगों की असीम अपेक्षाएं थीं। इसका कारण कांग्रेस का कुशासन तो था ही साथ ही मोदी के वे भाषण भी थे-जिनमें उन्होंने लोगों से बड़े-बड़े वायदे किये थे। निश्चित रूप से लोगों को अपने साथ लगाने के लिए लोकतन्त्र नेताओं को ‘सपने बेचने’ का अवसर देता है-यह लोकतन्त्र की शक्ति का पर्याय तो है ही साथ ही लोकतन्त्र की सबसे बड़ी दुर्बलता भी है। सपने बेचना बुरी बात नहीं है। सपने ना आयें या ना दिखाये जाएं तो आपका आत्मविकास रूक जाएगा। सपने सारे ही पूरे हों और एकसमयावधि में ही पूरे हों -यह भी आवश्यक नहीं। बुरी बात है सपने दिखाकर सपनों को सपनों के माध्यम से ही उल्टा खरीद लेना। लोकतन्त्र ऐसी ही शासन प्रणली सिद्घ हो चुकी है-जिसमें लोगों को सपने दिखाकर उन्हें सपनों के माध्यम से ही उल्टा खरीदने का काम जननायक करते आये हैं। एक प्रधानमन्त्री ने सपना दिखाया था कि- ‘गरीबी हटाओ’। गरीबी हटाने का यह सपना कालांतर में ‘देश बचाओ’ के नारे के माध्यम से खरीद लिया था। जिनकी गरीबी हटानी थी उनसे उनका सपना ही खरीद लिया और उन्हें देश बचाओ का झुनझुना दे दिया गया।
हमारे प्रधानमन्त्री श्री मोदी ने देश का खजाना एक ‘वकील’ को दे रखा है। माना कि ‘वकील साहब’ फीस नहीं मांगते पर बिना फीस मांगे ही लोगों की जेब चट करने की कला में वह माहिर हैं। उनकी इस कला को समझकर लोगों को अब लगने लगा है कि हमारे सपने खरीदे जा रहे हैं। बड़े स्तर पर सपनों को खरीदने का खेल चल रहा है। देश में निराशा है, माना कि भाजपा सत्ता में पुन: वापसी कर सकती है। लेकिन इसमें भाजपा की आर्थिक नीतियां उसे सत्ता में ‘शानदार वापसी’ कराने से रोक सकती है। वर्तमान स्थिति में भाजपा का ग्राफ गिरता जा रहा है। सत्ता में भाजपा पुन: इसलिए लौटेगी कि विपक्ष के पास राहुल गांधी जैसा छोटे कद का बड़ा नेता है। वह अपने आपको छोटा मानता नहीं और बड़ा हो नहीं पा रहा। पर फिर भी भाजपा के द्वारा दिखाये गये सपनों को पुन: खरीदने का अभियान चलता देखकर लोग राहुल गांधी को सुनने लगे हैं। इसमें जिस राहुल गांधी के कद का रूका हुआ विकास अचानक बढ़त बनाने लगा है, उनके लिए यह कोई उपलबिध नहीं है पर उपलब्धि से कम भी नहीं है और इस उपलब्धि को स्वयं भाजपा ने ही उन्हें परोस दिया है। फिर भी इस समय वह कुछ बड़ा करने की स्थिति नहीं हैं। उन्हें भाजपा ने मिट्टी में मिला दिया थाऔर आज वह मिट्टी के रेत में से बाहर निकलकर आ चुके हैं, लोग उन्हें देख रहे हैं कि वह राजनीति में जीवित हैं। यद्यपि वह कांग्रेस को सत्ता में लाने की स्थिति में नहीं है -पर वह इस समय जीरो भी नहीं हैं।
अरूण जेटली देश में उतने भी लोकप्रिय नहीं हैं- जितने राहुल गांधी हैं। राहुल गांधी लोकसभा में एक चुने हुए सांसद हैं और जेटली एक पराजित प्रत्याशी से चलकर राज्यसभा के चोर दरवाजे से सांसद बनने में सफल रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि पी.एम. मोदी के सपनों को वह आज बेच रहे हैं-या वापस खरीदने का काम कर रहे हैं। वास्तव में वह भाजपा के द्वारा लगाये गये बाजार को सूर्य ढलने से पूर्व ही समेट रहे हैं। लोग अभी सामान खरीदना चाहते हैं और जेटली हैं कि वह दुकान बढ़ा रहे हैं। उन्होंने लोगों का काम छीन लिया है। जिस राहुल गांधी के कारण भाजपा के मोदी प्रचण्ड बहुमत पाकर देश के पीएम बने थे-उसी राहुल को जेटली नई ऊर्जा दे रहे हैं। सरकार रोजगार के अवसर छीन रही है। लोगों को नौकरी छोडक़र घर बैठाने के लिए विवश किया जा रहा है। बड़ी बात यह नहीं है कि जेटली ने कुछ फर्जी कम्पनियों को बन्द करा दिया है बड़ी बात ये है कि उन कम्पनियों में काम कर रहे कर्मचारियों को बेरोजगार कर दिया गया है। अच्छी बात होती कि फर्जी कम्पनियों को बंद कराने से पूर्व उनमें कार्यरत कर्मचारियों को रोजगार देकर उन्हें पुनर्वासित करने की योजना सरकार पेश करती। उससे जनता सरकार की वाहवाही करती। रेलवे में साढ़े तीन लाख पद रिक्त होने की बात रेलमन्त्री कह रहे हैं तो ऐसे ही अन्य अनेकों विभाग हैं जहां पद रिक्त पड़े हैं, अच्छा होता कि जो लोग बेरोजगार किये जा रहे हैं- उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें इन अन्य विभागों में काम दिया जाता या धन देकर उन्हें स्वरोजगार दिया जाता या उन्हें मानदेय दिया जाता। जिसे लगभग पेंशन के समान मान्यता दी जाती। ऐसी सोच को ही शासन की लोककल्याणकारी सोच कहा जाता है। दु:ख की बात है कि भाजपा के ‘वकील साहब’ अरूण जेटली इस प्रकार की संवेदनशीलता का कहीं प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं। इस समय जो लोग टैम्पो आदि के किराये से अपनी घर गृहस्थी चला रहे थे-उनके स्वयं के कारोबार भी चौपट हो गये हैं। लोगों के पास काम नहीं है। किसी को काम मिलता है तो उसे कर्मचारी और अधिकारी भी लूटने को दौड़ पड़ते हैं। वह भी कह रहे हैं कि उनके पास भी काम नहीं है। इसलिए हमारा जो कुछ (कमीशन) बनता है वह दे जाओ-अन्यथा छोड़ेंगे नहीं। सचमुच इस समय देश के प्रधानमन्त्री श्री मोदी को अपनी सरकार के वित्तमन्त्री श्री जेटली की आर्थिक नीतियों की समीक्षा करनी होगी। उन्होंने जीएसटी को लेकर शुभ संकेत दिया है कि वह लोगों की तकलीफों को खुले दिल से सुनकर उन्हें दूर करने की सोच रखते हैं, अच्छा हो कि पीएम मोदी अपनी इस सोच को लागू करायें लोगों को अभी उनसे बहुत कुछ अपेक्षाएं हैं, और उन अपेक्षाओं में से बड़ी अपेक्षा इस समय यही है कि वह अपने जनविरोधी वित्तमन्त्री को बतायें कि वह ‘वकील साहब’ न बनकर जननेता बनें, उन्हें ‘राजधर्म’ सिखाना समय की आवश्यकता है।

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