अदम्य साहसी थे महाराणा संग्राम सिंह
महाराणा संग्राम सिंह और बाबर का सामना फतेहपुर सीकरी के निकट खानवा नामक स्थान पर हुआ था। राणा संग्राम सिंह ने उस दिन उसके लिए विशेष व्यूह रचना की थी। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बाबर व्यूह रचना का विशेषज्ञ था। उसने जिस प्रकार एक विशेष व्यूह रच कर पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी को पराजित किया था उसी प्रकार की व्यूह रचना करके वह महाराणा संग्राम सिंह और उनके साथियों को भी समाप्त कर देना चाहता था। 16 मार्च 1527 ई0 को खानवा के मैदान में महाराणा संग्राम सिंह और बाबर की सेनाओं का सीधा सामना हुआ। इस युद्ध में हिंदू वीर योद्धा बड़ी वीरता से लड़े। यद्यपि इस सबके उपरांत भी अंत में बाबर की सेना की जीत हुई थी। निश्चित रूप से बाबर को विजय दिलाने में उसके तोपखाने ने विशेष भूमिका निभाई थी। इसके अतिरिक्त महाराणा संग्राम सिंह को अपने ही लोगों की गद्दारी का भी सामना करना पड़ा।
अपने लोगों ने किया विश्वासघात
बाबर के तोपखाने से अधिक क्षति महाराणा की सेना को अपने ही लोगों द्वारा की गई गद्दारी ने पहुंचाई थी। खानवा के युद्ध क्षेत्र में मिली इस जीत को बाबर की वीरता और पराक्रम की जीत माना जाता है। इतिहास में उसे बड़ा महिमामंडित करके लिखाया गया है। पर वास्तव में तो यह जीत बाबर की छल कपट की नीति की जीत थी । यदि महाराणा को अपने ही लोगों से गद्दारी नहीं मिली होती तो युद्ध का परिणाम दूसरा होता। वास्तव में अपने लोगों के विश्वासघात को महिमामंडित करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर भारत से द्वेष रखने वाले इतिहासकार उनके विश्वासघात को विश्वासघात न कहकर कुछ इस प्रकार दर्शाते हैं कि जैसे हमारे इतिहासनायकों का विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ना उचित नहीं था और जो लोग उन्हें छोड़ छोड़कर विदेशी आक्रमणकारियों से जाकर मिल रहे थे वह वास्तव में इतने उदार और सहृदयता से भरे हुए थे कि उनके लिए हिंदू मुस्लिम की बात कोई मायने नहीं रखती थी। वे युद्ध में होने वाले विनाश से बचने और विदेश से आयातित उदार मजहब का स्वागत करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर उनसे जाकर मिले थे।
खानवा के युद्ध क्षेत्र में विश्वासघात की फसल लहलहा रही थी। जिसमें बाबर द्वारा रचे गए छल फरेब ने खाद और पानी का काम किया था। जबकि हमारे अपने लोगों द्वारा किया गया विश्वासघात उस फसल में निराई गुड़ाई का काम करने वाला सिद्ध हुआ। यदि निष्पक्ष रुप से आंकलन किया जाए तो पता चलता है कि भारत के वीरों ने अपनी वीरता के प्रदर्शन में और देश के सम्मान व सुरक्षा को बनाए रखने के लिए किसी प्रकार के बलिदान में संकोच नहीं किया था। उन्होंने भरपूर वीरता का प्रदर्शन करते हुए शत्रु के छक्के छुड़ा दिए थे। उनका किया गया पुरुषार्थ देश के लिए उनका महानतम कार्य था।
गंगा जमुनी संस्कृति का शब्दजाल
प्यार में और वार में सब कुछ उचित होता है, हमारे लिए ऐसी सोच ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ की खोज है। इस अपसंस्कृति ने वैदिक संस्कृति को मिटाने के लिए ऐसे अनेक शब्दजाल बुने हैं। हम भारतवासी इन शब्दजालों में फंसकर रह जाते हैं। हम मान लेते हैं कि जो कुछ कहा जा रहा है, यही सही है। वास्तविकता यह है कि ऐसा शब्दजाल हमें षड़यंत्र में उलझाने के लिए बुना जाता है। इस शब्दजाल में फंसकर हम भारतवासी अपने ही खिलाफ रचे गए षड़यंत्र को उचित मान लेते हैं और बाबर जैसे छली – कपटी लोगों को जायज होने का प्रमाण पत्र दे देते हैं। उनकी अनैतिक बातों को भी सही मान लेते हैं ।
यदि हम इस प्रकार के शब्दजाल से मुक्त हो जाएं तो हमारी आंखों पर पड़ा शब्द जाल का पर्दा हट जाएगा और हम वीरता का प्रदर्शन करने वाले अपने पूर्वजों को वीर और छली कपटी लोगों को षड़यंत्रकारी कहना आरंभ कर देंगे। शब्द जाल के पर्दे को हटने के पश्चात हमें पता चलेगा कि जिन लोगों ने तोपचियों के सामने अपने आप को ले जाकर खड़ा कर दिया था, उनकी वीरता में कितना बड़ा रोमांच था? कितनी देशभक्ति थी? कितनी वीरता थी? और कितना पराक्रम था?
यह छोटी बात नहीं थी कि हमारे अनेक राजाओं ने उस समय महाराणा संग्राम सिंह को अपना नेता स्वीकार किया और एक राष्ट्रीय सेना बना कर शत्रु को भारत भूमि से खदेड़ने के लिए संघ का निर्माण किया।
महाराणा संग्राम सिंह की व्यथा
महाराणा संग्राम सिंह खानवा के युद्ध में मिली हार से अत्यंत व्यथित थे। अपनों के ही द्वारा किए गए विश्वासघात का शिकार बने महाराणा अनेक घावों को सहकर भी शत्रु से संघर्ष कर सकने में सक्षम थे। परंतु अपनों के द्वारा दिए गए घाव उनके लिए अत्यंत कष्ट कर हो चुके थे। मूर्छित हुए महाराणा संग्राम सिंह रणभूमि से किसी प्रकार बाहर निकाले गए थे। मातृभूमि के प्रति पूर्णतया समर्पित रहने वाले महाराणा संग्राम सिंह की हर श्वांस भारत माता की जय का घोष कर रही थी। उनके ह्रदय में अभी भी भारत धड़क रहा था। हर सांस मां भारती का वंदन अभिनंदन कर रही थी। अपने देश के प्रति समर्पण की उनकी उत्कृष्ट भावना अभी भी वीरों के लिए अनुकरणीय थी। यद्यपि वह इस समय मूर्छित अवस्था में थे ,परंतु दिल की धड़कन देश के लिए धड़क रही थी। जब उन्हें मूर्छित अवस्था में उठाकर दूर जंगल में ले जाया गया तो वे आंखें खुलते ही और अपनी चेतना के लौटते ही रणभूमि में जाकर मां भारती की जीत के लिए संघर्ष करने की हठ करने लगे। उनके सिर पर देशभक्ति चढ़कर बोल रही थी।
अंतिम श्वांस तक मां भारती की सेवा के लिए संकल्पित रहने वाले महाराणा संग्राम सिंह नहीं चाहते थे कि उनके जीवन की कुछ घड़ियां व्यर्थ चली जाऐं। उन्होंने अपने सैनिकों से इस बात पर भी अप्रसन्नता व्यक्त की थी कि जब रणभूमि में अनेक देशभक्त आर्य वीर योद्धाओं के शव पड़े हुए थे तो उन्हें वहां से यहां सुरक्षित उठाकर लाने की क्या आवश्यकता थी ? मुझे अपने सैनिकों के साथ ही रणभूमि में वीरगति प्राप्त करने क्यों नहीं दी गई ? सचमुच महाराणा संग्राम सिंह जैसा वीर योद्धा की ऐसी मृत्यु के लिए प्रभु से प्रार्थना कर सकता है। उन्होंने अपने आप को जिस संकल्प के साथ आबद्ध किया था उसके प्रति वह आजीवन ईमानदार रहे। इसी में उनकी ईमानदारी और देशभक्ति छुपी हुई थी। इसी ईमानदारी और देशभक्ति से उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ। इसी ईमानदारी और देशभक्ति को अपनाकर उन्होंने अपने कुल का नाम उज्ज्वल किया। महाराणा उस समय विषाद से घिर चुके थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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