भारत में जिहादी परंपरा कब से आरंभ हुई?
ओमप्रकाश विर्लेय अपनी पुस्तक “भारतीय इतिहास के गौरव क्षण” के पृष्ठ 57 पर लिखते हैं “बाबर ने महाराणा सांगा के साथ जो युद्ध किया, उसका नाम उसने जेहाद दिया था। मुसलमानों ने अन्य धर्मावलंबियों के विरुद्ध जो युद्ध जब भी कहीं और किसी भी समय किए, उनमें से अधिकांश को जेहाद के नाम पर ही लड़ा गया । भारत में सन 712 ईसवी से पूर्व सिंध से जेहाद का सिलसिला जारी हुआ जो अब भी किसी न किसी रूप में छद्म रूप में काम में लिया जा रहा है।”
इस्लाम और जिहाद का हुआ हिंद में घोष।
कत्लेआम होने लगे, चढ़ा मजहब का जोश।।
यह पूर्णतया सत्य है कि भारत में पहले दिन से जिहादी परंपरा आरंभ हुई। हमारी इसी बात की पुष्टि उपरोक्त उद्धरण से होती है। जिहादी परंपरा के विरोध में हमारे देश के अनेक योद्धाओं ने समय-समय पर अपने बलिदान दिये हैं। इसी प्रकार के जेहाद से लड़ने व जूझने का अवसर महाराणा संग्राम सिंह के जीवन में भी आ उपस्थित हुआ। वह इस प्रकार के जेहादी भाव से निपटने के लिए अपनी ओर से भी पूर्ण तैयारी कर रहे थे। उनकी योजना मां भारती के सम्मान को बचाने की थी। वह चाहते थे कि उनका देश बचे, देश का सम्मान बचे और देश की प्रतिष्ठा पर किसी प्रकार की आंच न आ सके। बाबर के उद्देश्य का पूर्ण ज्ञान राणा संग्राम सिंह को हो चुका था। यही कारण था कि महाराणा भी युद्ध की तैयारी में लग चुके थे। उन्होंने अपने सैन्य संगठन को सुदृढ़ करना आरंभ कर दिया था। बाबर और राणा संग्राम सिंह के बीच युद्ध होना निश्चित था। इस युद्ध में जीत को सुनिश्चित करने के लिए दोनों पक्ष अपने-अपने ढंग से तैयारी कर रहे थे। महाराणा संग्राम सिंह ने भी अपनी योजना को क्रियान्वित करते हुए विशेष कदम उठाए।
महाराणा संग्राम सिंह की युद्ध शैली
महाराणा संग्राम सिंह जिस प्रकार युद्ध की तैयारी कर रहे थे उसमें वह भारत के लोगों के द्वारा प्राचीन काल से ही चली आ रही युद्ध शैली पर कार्य कर रहे थे। बाबर ने अपनी सेना को सुव्यवस्थित करने के लिए दिशा निर्देश जारी कर दिए। “भारत की प्रसिद्ध लड़ाईयां” का लेखक हमें बताता है :-” बाबर की सेना में युद्ध की तैयारियां हो रही थीं और चित्तौड़ की ओर से आने वाली सेनाऐं युद्ध का रास्ता देख रही थीं। बाबर ने इस बीच में राजनीति की दूसरी चालों से काम लिया। दूत के माध्यम से सांगा के साथ संधि का प्रस्ताव किया।
दूत के पहुंचने पर महाराणा सांगा सोच विचार में पड़ गया। शत्रु के हथियार गिरा देने पर अथवा उसके संधि प्रस्ताव पर राजपूत कभी विश्वासघात नहीं करते थे। महाराणा सांगा के साथ बाबर की संधि वार्ता आरंभ हो गई। शिलादित्य नामक अपने एक सेनापति पर सांगा बहुत अधिक विश्वास करता था। संधि के संबंध में बातचीत करने के लिए सांगा ने शिलादित्य को नियुक्त किया। संधि की बातचीत में एक महीना बीत गया। युद्ध के लिए उत्तेजित राजपूत सेनाओं में ढीलापन उत्पन्न हो गया। बाबर को परास्त करने के लिए सांगा ने एक विशाल सेना चित्तौड़ में तैयार की थी। शूरवीर सैनिकों तथा सरदारों को अपने साथ एकत्रित किया था। इतनी बड़ी और शक्तिशाली सेना का आयोजन चित्तौड़ के इतिहास में ही नहीं भारत के इतिहास में भी पहली बार हुआ था।”
राणा संग्राम सिंह को इस प्रकार एक कपट जाल में फंसाने का छल पूर्ण प्रपंच बाबर ने रचा। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य ही है कि राणा संग्राम सिंह बाबर के इस कपट जाल में फंस गए। वास्तव में कपट जाल को एक हथकंडा मानने की परंपरा भारत की नहीं है, भारत में यह परंपरा मुसलमानों और अंग्रेजों की देन है। प्रत्येक प्रकार के कपट पूर्ण आचरण को भारत ने सदा अनुचित माना है। जबकि हथकंडा को अपनाकर अनैतिकता, छल – कपट, धोखा और फरेब का व्यवहार निष्पादित करना – यह सब हमें उस तथाकथित गंगा जमुनी संस्कृति की देन है, जिसे भारत की संस्कृति को मिटाने के लिए अपनाया गया है। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि राणा संग्राम सिंह ने बाबर के साथ युद्ध के लिए कितने बड़े स्तर पर तैयारी की थी? महाराणा संग्राम सिंह अपने वीरोचित आचरण में कहीं से भी दुर्बल नहीं था। यद्यपि कूटनीतिक मोर्चे पर वे इस समय कहीं दुर्बल दिखाई दे रहे थे। अपने एक परंपरागत शत्रु का विश्वास कर लेना और उसके संधि प्रस्ताव के झांसे में आ जाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता।
हिंदू राजाओं ने दिया एकता का परिचय
इस सबके उपरांत भी उस समय हमारे अनेक हिंदू राजाओं ने अपनी एकता का परिचय दिया और व्यक्तिगत मतभेदों को पीछे रखकर राष्ट्र के हित को आगे रखते हुए राष्ट्रीय सेना का गठन किया। जिससे पता चलता है कि हमारे भीतर फूट इतने स्तर तक नहीं थी, जितने स्तर पर हमें इतिहास में बार-बार पढ़ाया बताया जाता है। महाराणा संग्राम सिंह के समर्थन में उस समय राजस्थान के अनेक शक्तिशाली आर्य हिंदू राजाओं, शासकों, सामंतों और सरदारों ने अपना सैन्य सहयोग देना स्वीकार किया और राणा के नेतृत्व में मां भारती की रक्षा करने का संकल्प लिया। ये सभी आर्य हिंदू राजा ,शासक, सामंत ,सरदार या प्रभावशाली व्यक्तित्व चित्तौड़ की ओर अपनी – अपनी सेनाओं को लेकर आगे बढ़े। इन्होंने बिना शर्त महाराणा संग्राम सिंह को अपना सहयोग प्रदान किया था। इस सहयोग का केवल एक ही उद्देश्य था कि जैसे भी हो वैसे ही विदेशी आक्रमणकारी को भारत भूमि से बाहर खदेड़ा जाए। वास्तव में हमारे देश के राजाओं की इस प्रकार की सहयोग की भावना उनकी किसी परंपरागत फूट का नहीं अपितु भारत की पारंपरिक राष्ट्रीय भावना का प्रतीक थी।
इतिहासकारों की मान्यता है कि “राणा की सेना में इस बार 1 लाख 20 हजार सामंतों, सरदारों, सेनापतियों तथा वीर लड़ाकुओं की संख्या थी । इसके अतिरिक्त राणा की सेना में 80 हजार सैनिक थे। 30,000 पैदल सैनिकों की संख्या थी ।
युद्ध में लड़ने वाले 500 खूंखार हाथी थे। इस प्रकार 2 लाख 30 हज़ार सैनिक सवारों, सरदारों, सामंतों और उन शक्तिशाली राजपूतों को लेकर राणा संग्राम सिंह युद्ध के लिए रवाना हुआ था जिनका संग्राम में लड़ना ही जीवन था। डूंगरपुर, सालुम्बर , सोनगड़ा, मेवाड़ ,मारवाड़, अंबेर, ग्वालियर, अजमेर, चंदेरी तथा दूसरे राज्यों के अनेक बहादुर राजा इस विशाल सेना का नेतृत्व कर रहे थे।” ( सन्दर्भ : भारत की प्रसिद्ध लड़ाइयां, पृष्ठ – 214 )
जब इस प्रकार देश के हिंदू राजा एक दूसरे का हाथ पकड़कर साथ चलने का निर्णय ले रहे थे तो राष्ट्रीय स्तर पर बनता हुआ यह गठजोड़ निश्चय ही हमारी राष्ट्रीय एकता के भावों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। सभी राजाओं ने महाराणा संग्राम सिंह को निर्विवाद रूप से अपना नेता स्वीकार कर लिया था। उन सबके भीतर देश धर्म की रक्षा का संकल्प बड़ी प्रबलता से जागृत हो चुका था। उनकी इस प्रकार की भावना से पता चलता है कि वे सब राष्ट्रीय स्वतंत्रता के प्रति कितने सजग और सावधान थे ? भारत से द्वेष भाव रखने वाले इतिहासकारों ने भारत के पराक्रम के इन पलों को इतिहास के पृष्ठों पर स्थान नहीं दिया है। उन्होंने छल, फरेब और धोखे में विश्वास रखने वाले तुर्कों और मुगलों को तो बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया है, परंतु मातृभूमि की रक्षा के लिए समर्पित होने वाले शूरवीरों के पराक्रम को कहीं पर भी उल्लिखित नहीं किया है।
बाबर नहीं कर सका युद्ध की शुरुआत
हमारे सैनिकों की झपकी लगी और बाबर ने युद्ध की घोषणा कर दी। उसने धोखे पर आधारित इस युद्ध को आरंभ तो कर दिया पर अभी भी उसके भीतर अंतर्द्वंद चल रहा था। "भारतीय इतिहास के गौरव क्षण" के लेखक का मानना है कि इतने सुरक्षित, इतने सुसज्जित तोपखाने और जेहाद का जादू चलाने वाले बाबर का फिर भी साहस नहीं हुआ कि वह युद्ध के लिए पहल करे। महाराणा संग्राम सिंह ने ही आगे बढ़कर आक्रमण किया। उधर से तोपें आग उगल रही थीं। इतिहासकार लिखते हैं कि आग के गोले बरसाती तोपों की परवाह न करते हुए धराशायी होते हुए भी मेवाड़ी वीर तोपचियों तक जा पहुंचे। वे तोप को छीनने ही वाले थे कि विश्वासघात हो गया। महाराणा सांगा का एक विश्वस्त प्रमुख सेनापति उनके साथ धोखा कर गया। वह शत्रु से जा मिला। कुछ लोगों ने उसको राणा सांगा का संबंधी भी कहा है। उस विश्वासघाती का नाम सलहदी था। वह पूर्विया तंवर था। अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ वह युद्ध के निर्णायक क्षणों में बाबर से जा मिला था। दिन ढलते ओढलते युद्ध का पासा पलटने लगा। इस बीच किसी के तीर के प्रहार से सांगा भी मूर्छित हो गया था।"
अनेक विश्वासघातियों के विश्वासघातों को झेलकर भी निरंतर आगे बढ़ते रहना बहुत बड़ी वीरता का काम होता है। राजनीति में तो कांटे और खतरे हर कदम पर होते हैं। वहां कब अपना ही सांप बनकर दंश मार दे, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। राजनीति में कब अपना कहा जाने वाला व्यक्ति शत्रु बन जाए ?- इसका भी कोई पता नहीं होता। यद्यपि भारत की प्राचीन राजनीति में अपने सदा अपने ही रहते थे। भारत की राजनीति का पतन विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा भारत में अपने-अपने राज्य स्थापित करने के पश्चात अधिक हुआ है।
कितने रोमांचकारी क्षण थे, जब मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे वीर अपने प्राणों की परवाह किये बिना आग बरसाती तोपों को छीनने के लिए तोपचियों पर झपटे थे। उनकी वीरता अद्भुत थी।
इस वर्णन से जहां हमारे वीर साहसी सैनिकों के पराक्रम और देशभक्ति का पता चलता है वहीं देश के भीतर बैठे जयचंदों की परंपरा के जीवित रहने का भी बोध होता है। यह बहुत बड़े साहस की बात थी कि हमारे सैनिकों ने अपने प्राणों की चिंता किए बिना तोपचियों से जाकर तोपों को छीनने का अपना महान पराक्रम दिखाया। विश्व इतिहास में इस प्रकार के उदाहरण भारत से अलग मिलने दुर्लभ हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत