शाहजहां और औरंगजेब दोनों ही हिंदुओं के लिए क्रूर थे
स्वर्णकाल नहीं था शाहजहां का शासनकाल
शाहजहां को भारत में स्वर्णयुग का निर्माता माना जाता है। हम पूर्व पृष्ठों में कई स्थानों पर यह कह आये हैं कि उसका काल ‘स्वर्णयुग’ कहे जाने के योग्य नहीं था, क्योंकि उसमें ‘स्वर्णयुग’ कहे जाने के लिए अपेक्षित योग्यताएं नहीं थीं। शाहजहां ने जितने भर भी युद्घ किये-उनमें कहीं भी उसने हिंदुओं के प्रति उदारता का प्रदर्शन नहीं किया, वह सदा उनके प्रति क्रूर बना रहा। जिससे देश की बहुसंख्यक प्रजा उससे आतंकित रही।
‘दि लीजेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इंडिया’ के लेखक श्री के. एस. लाल ने उक्त पुस्तक के पृष्ठ 132 पर लिखा है-”शाहजहां रक्त बहाने में और अत्याचार करने के विषय में तैमूर लंग को अपना आदर्श मानता था। इसलिए उसने अपना नाम ‘तैमूर द्वितीय’ ही रख लिया था।”
तैमूर लंग के अत्याचारों की भयानकता पर उसे लगभग हर इतिहासकार ने कोसा है और मुगल वंश का यह बादशाह उसी तैमूर लंग को अपना आदर्श मानता था। इसलिए उससे हिंदुओं के प्रति उदार रहकर ‘स्वर्णयुग’ का निर्माण करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
घटना 1632 ई. की है। शाहजहां कश्मीर से अपनी राजधानी लौट रहा था। उसे मार्ग में पता चला कि कुछ नव मुस्लिम लोगों ने अपना मजहब परिवर्तन कर ‘घर वापसी’ करते हुए पुन: हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया है।
इस घटना पर उसने उन लोगों के विरूद्घ कठोर कार्यवाही करने का निर्णय लिया। डा. आर.सी. मजूमदार का कहना है-
”….तब इस्लाम स्वीकार कर लेने और मृत्यु में से एक चुन लेने का विकल्प दिया गया, चूंकि किसी ने पुन: धर्मांतरण स्वीकार नहीं किया तो उनका वध कर दिया गया। चार पांच सौ महिलाओं को बलात् मुसलमान बना लिया गया।”
धन्य थे भारत के ये धर्मवीर जिन्होंने प्रथम तो अपने हिंदू धर्म में आने का निर्णय लिया और जब उन्हें पुन: मुस्लिम बनने के लिए यह चेतावनी दी गयी कि या तो मुस्लिम बन जाओ-अन्यथा मरने के लिए तैयार रहो, तो उन्होंने हिंदू रहते मरना स्वीकार कर लिया। अपने बलिदान से वह हिंदुत्व की भावना को सुदृढ़ता प्रदान कर गये। इन वीरों के लिए ये पंक्तियां कितनी सार्थक हैं-
”जब अंत समय आया तो कह गये कि अब चलते हैं,
खुश रहना देश के प्यारो! अब हम तो सफर करते हैं।”
शाहजहां और बेगम मुमताज
शाहजहां को अपनी बेगम मुमताज के प्रेम में बड़ा आसक्त दिखाने की भूल की जाती है। जबकि यह भी नितांत भ्रामक धारणा है। वह कभी भी अपनी पत्नी के वियोग में शोकाकुल नहीं रहा और ना ही उसने कभी अपनी बेगम मुमताज को जीभर के प्रेम किया। क्योंकि उसके हरम में ऐसी मुमताज हजारों थीं। ‘अकबर दि ग्रेट मुगल’ के लेखक बी. स्मिथ ने लिखा है कि-”शाहजहां एक नीच और पथभ्रष्ट व्यक्ति था। उसके बाबा अकबर के हरम में पांच हजार महिलाएं अधिकांश हिंदू थीं, अकबर की मृत्यु के पश्चात जहांगीर को वह हरम उत्तराधिकार में मिला और उसने रखैलों की संख्या बढ़ाकर छह हजार तक कर ली। वही हरम जब शाहजहां को प्राप्त हुआ तो उसने उसे और भी बढ़ाया, उसने हिंदू महिलाओं की व्यापक छंटनी द्वारा हरम को और भी संपन्न किया। उनमें से बुढिय़ाओं को भगा दिया गया और अन्य हिंदू परिवारों की बलात् नवयुवतियों को लाकर उस हरम को उनसे भरा गया।”
हिंदू इतने घृणित अनाचार को सहन नहीं कर सकता था। इसलिए उसे विद्रोही होना था और विद्रोही बनकर अपनी स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करना था। यही कारण था कि हिंदुओं ने इस अनाचारी बादशाह को और प्रेम के कथित पुजारी व्यभिचारी शासक से मुक्ति पाने हेतु उसे दर्जनों बार चुनौती दी और उसे सर्वथा एक असफल शासक बनाकर रख दिया। इतना असफल कि उसका अपनी संतान पर भी नियंत्रण नहीं रहा और एक दिन उसके अपने पुत्र औरंगजेब ने ही उसे जेल में डाल दिया।
शाहजहां और उसकी पुत्री जहांआरा
शाहजहां के विषय में और कुख्यात तथ्य है कि उसके अपनी पुत्री जहांआरा से भी अनैतिक संबंध थे। जहांआरा का जन्म 1614 ई. में हुआ था। वह अत्यंत रूपवती थी, कहा जाता है कि अपनी रूपवती पुत्री पर बादशाह आसक्त था। इस घृणित और लज्जाजनक संबंध से दरबार में निश्चय ही बादशाह को लोग घृणा की दृष्टि से देखते होंगे। फलस्वरूप बादशाह का भी नैतिक रूप से मनोबल टूटा होगा, पर वह सुधरा नहीं। जिससे उसकी संतान भी उससे घृणा करने लगी।
पिता का अपनी पुत्री के साथ ऐसा घृणास्पद संबध्ंा हो जाने पर मुल्लाओं ने व्यवस्था दी थी-‘बादशाह को उसी वृक्ष के फल का आनंद लेना-जिसको उसने स्वयं ने लगाया है, अनुचित और अन्याय नहीं है।’
इस कथन की पुष्टि ‘शाहजहां नामा’ में तथा ‘बर्नियर की भारत यात्रा’ के संस्मरणों में और मेवाड़ का इतिहास जो वीर विनोद के नाम से चार भागों में छपा है में की गयी है।
ऐसी घृणित और अनैतिक बातों को हिंदुत्व ने सदा निंनदीय माना है। हिंदुत्व की धारणा है कि राजा को उत्तम चरित्र वाला होना चाहिए। यदि राजा आचरणहीन और निंदनीय चरित्र वाला है तो प्रजा पर उसका घातक प्रभाव पड़ता है। यथा राजा तथा प्रजा इसीलिए कहा जाता है। अत: दुष्ट अनाचारी, अत्याचारी और व्यभिचारी शासक के विरूद्घ विद्रोह कर उससे मुक्त हो जाना हिंदुत्व का जिहाद है। ….और इसी जिहाद को हमारे धर्मयोद्घा लड़ रहे थे।
औरंगजेब ने बढ़ाया परम्परा को आगे
औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को जेल में डालकर उसका साम्राज्य हथिया लिया था। पिता के विरूद्घ विद्रोही हो जाना मुगल वंश की पुरानी परंपरा थी, पर औरंगजेब ने इस परंपरा को पूर्णत: संवेदनाशून्य बना दिया था। उसने अपने पिता को तो इसलिए जेल में डाला कि उसके रहते औरंगजेब का बादशाह बनना कठिन हो रहा था, और अपने तीन पुत्रों को इसलिए जेल में डाल दिया और उनके रहते उसे भय था कि कहीं ऐसा ना हो कि ये तेरे साथ वैसा ही कर दें, जैसा तूने अपने पिता के साथ किया था।
सारे मुगल परिवार में छाया हुआ था कलह
इस प्रकार औरंगजेब के काल में उसके अत्याचारों से न तो पिता अछूता रह पाया और न ही पुत्र अछूते रह पाये। तीन पीढिय़ां एक साथ जीवित थीं, पर तीनों में ही शंका और संदेह की ही ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी हो गयी थीं। औरंगजेब ने अपने भाई दाराशिकोह के साथ अत्यंत घृणास्पद व्यवहार किया था। उसे पहले तो जीवितावस्था में दिल्ली की सडक़ों पर हाथी पर बैठाकर घुमाया गया और मरणोपरांत भी उसे दिल्ली की सडक़ों पर इसलिए घुमाया गया कि लोग उसके साथ बादशाह द्वारा किये गये कार्यों को अपनी आंखों से देख लें। बर्नियर ने उस समय के दृश्यों को देखा था, उसका कहना है कि दारा की करूणाजनक मृत्यु पर कितने ही लोगों को उसने रोते देखा था।
औरंगजेब इतना शंकालु था कि उसने अपनी एक पुत्री जेबुनिन्नसा को भी जेल में डाल दिया था, क्योंकि उसे उसके भीतर कुछ राजनीतिक कीटाणु दिखायी दिये थे और वह नहीं चाहता था कि जेबुन्निसा अपनी बहन जहांआरा की भांति राजनीति में रूचि लेकर उसके किसी प्रकार की कठिनाई उत्पन्न करे। उसकी पुत्री जेल की यातनाओं को सहन नहीं कर पायी और उसकी जेल में ही मृत्यु हो गयी थी।
औरंजेब इतना शंकालु प्रकृति का व्यक्ति था कि उसे अपने ऊपर भी विश्वास नहीं था। उसने अपने शासनकाल में अपने आपको एक बार नहीं चार बार बादशाह घोषित किया था। उसने अपना पहला राज्याभिषेक फरवरी 1658 ई. में और चौथा शाहजहां की मृत्यु (22 जनवरी 1666 ई.) के पश्चात 27 मार्च 1666 ई. को किया था।
हिन्दुओं को शंका से देखता रहा औरंगजेब
औरंगजेब को हिंदुओं से अप्रत्याशित रूप से चुनौती मिली। वह चारों ओर से हिंदुओं की चुनौतियों से घिरा रहा। इसलिए वह हर हिंदू योद्घा को भी शंका की दृष्टि से देखता था। वह राजा जयसिंह और महाराजा जसवंतसिंह को इसलिए शंका से देखता था कि कहीं वे दोनों शिवाजी से न मिल जाएं। पर वह जितना ही अधिक शंकालु होता जाता था-उतना ही उसका साम्राज्य असुरक्षित होता जाता था। उसके भीतर का संसार पूर्णत: असुरक्षित और शंकालु स्वभाव का था, इसलिए उसका बाहरी संसार भी ऐसी ही शंकाओं आशंकाओं से भरा और घिरा हुआ रहता था। वह कहने के लिए तो बादशाह था, पर वास्तव में ऐसा बादशाह था-जिसे कहीं से भी चैन नहीं था। इस चैन की प्राप्ति के लिए उसने कुरान की शरण ली और नमाज आदि को पूरा ध्यान रखकर स्वयं को सच्चा मुसलमान सिद्घ करने का भी प्रयास किया, पर जिसे हम वास्तविक आनंद कहते हैं-वह किसी को मजहबी चोला ओढऩे से नहीं मिलता है, उसके लिए एक साधना का पथ है और उस साधना के लिए नियत की गयी प्रार्थना में लोकल्याण की सर्वमंगलमयी कामना का अस्तित्व होना आवश्यक है। औरंगजेब की कथित साधना में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे सर्वमंगलमयी कामना का स्रोत कहा जा सके। वीए स्मिथ ने उसके दक्षिण के अभियान के विषय में लिखा है कि -‘औरंगजेब ने अपने पीछे उजड़े हुए प्रदेश छोड़े जहां न कोई पेड़ था और न ही खेतीबाड़ी थी।’
मथुरा के जाटों का विद्रोह
औरंगजेब की दमनकारी नीतियों से देश का हिंदू समाज पूर्णत: उत्पीडि़त था। चारों ओर हिंदुओं में विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी। उसकी उत्पीडऩात्मक नीतियों के विरूद्घ मथुरा में भी हिंदू समाज ने एकत्रित होना आरंभ किया। पी.एन. ओक महोदय ने मथुरा के जाटों के नेतृत्व में औरंगजेब के विरूद्घ हिंदुओं के संगठित विद्रोह की बात कही है। वह कहते हैं कि-”1669 ई. में गोकुल के नेतृत्व में संगठित विद्रोह हुआ। मथुरा के जाटों ने अनेक ऐसी मस्जिदों को गिरा दिया था जो हिंदुओं के पूजा स्थलों के ऊपर बनायी गयी थीं। वास्तव में उस समय हिंदुओं के लिए जीने मरने का प्रश्न आ खड़ा हुआ था और वे अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ एक-एक इंच भूमि के लिए लड़ मर रहे थे। इस महान याज्ञिक कार्य में भला मथुरा का क्षेत्र ही पीछे क्यों रहता? इसलिए यहां के जाटों ने रणभेरी देते हुए मस्जिद विध्वंस का कार्य करना आरंभ कर दिया। कितने ही मुसलमानों की दाढ़ी साफ कर दी।”
बहुत बड़े विध्वंस के पश्चात गोकुल पकड़ा जा सका था। आगरा में ले जाकर उस हिंदूवीर धर्मरक्षक और राष्ट्ररक्षक के शरीर को टुकड़ों में काटकर पुलिस चौकी पर बिखेर दिया गया। उसके परिवार को बलात् मुसलमान बनाया गया।
पर हिंदुओं के विद्रोह का क्रम रूका नहीं, वह तो अंतहीन था। इसलिए आगे भी चलता रहा। 1686 ई. में राजाराज व रामचेरा ने विद्रोह कर दिया था। सिकंद्राबाद के मकबरे को नष्ट कर दिया गया। इस संघर्ष में हिंदू वीरों ने अपने पराक्रम का प्रदर्शन किया और अपनी उत्कृष्ट देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए लगभग एक सौ मुगलों को समाप्त कर दिया। पर दुखद तथ्य यह भी है कि इस संघर्ष में लगभग 1500 जाट भी देश पर बलिदान हो गये।
सतनामियों का विद्रोह
उन दिनों नारनौल और मेवात के जिलों में सतनामी संप्रदाय का अपना अच्छा वर्चस्व था, ये लोग स्वभाव से तो ईश्वर भक्त और शांति प्रिय थे, पर मुगलों के अत्याचारों के विरूद्घ तो इनके भीतर भी ज्वाला धधक रही थी। इन लोगों को मुगलों के अत्याचार असहनीय प्रतीत हो रहे थे और उनका सामना करना इनके लिए अनिवार्य होता जा रहा था। इसलिए एक दिन अंतत: वह घड़ी आ ही गयी जब इनके द्वारा एक मुगल सिपाही की हत्या कर दी गयी। औरंगजेब ने रहनदाजखां को सेना के साथ इस सिपाही की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए भेजा। सतनामियों ने किसी प्रकार की क्षमा याचना ना करके मुगलों से लडऩे का निर्णय लिया। कहा जाता है कि दो हजार सतनामी इस युद्घ में मारे गये पर किसी ने भी इस्लाम स्वीकार नहीं किया।
ऐ दुनिया बता इससे बढक़र
फिर और हकीकत क्या होगी?
जां दे दी तलाशे हक के लिए
फिर और इबादत क्या होगी?
अपने अधिकारों और अपने धर्म की रक्षा के लिए प्राण त्याग कर देने से बढक़र सचमुच कोई प्रार्थना नहीं है।
झुंझलाये हुए और हताश औरंगजेब ने हिंदुओं के प्रति और भी अधिक कठोरता का प्रदर्शन करना आरंभ किया। उसने विधिवत् एक राजाज्ञा जारी की और हिंदू मंदिरों का विध्वंस करने और नये मंदिरों का निर्माण करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। इसके लिए उसने अपने साम्राज्य में एक अलग विभाग की ही स्थापना कर डाली थी। इसके काल में बनारस का विश्वनाथ मंदिर मथुरा का केशव मंदिर व पाटन का सोमनाथ मंदिर जैसे अनेकों प्रसिद्घ मंदिर भी गिराये गये। इन मंदिरों के गिराने के पीछे जहां औरंगजेब की मजहबी कट्टरता एक प्रमुख कारण थी, वही हिंदू प्रतिरोध के निरंतर बने रहने से उसके भीतर उपजी हताशा भी एक कारण थी और अपनी खीझ मिटाने के लिए वह हिंदुओं के प्रति दिन-प्रतिदिन अत्यंत निर्दयी होता चला गया। उसने मुसलमानों के लिए चुंगी व्यवस्था समाप्त कर दी, परंतु हिंदुओं के लिए पांच प्रतिशत चुंगी बनाये रखी।
हिंदुओं की सुविधाएं छीन ली गयीं
वी.ए. स्मिथ का कहना है-औरंगजेब ने हिंदुओं से अनेक सुविधाएं छीन लीं जैसे हिंदू घोड़ा पालकी या हाथी पर नहीं चढ़ सकते और न ही हथियार लेकर चल सकते थे। हिंदू त्यौहारों एवं जन्मोत्सव मनाने पर भी नियंत्रण लगाये, हिंदुओं को बलात् मुसलमान बनाया गया।
औरंगजेब भूल गया….
औरंजेब अपने अत्याचारों और अनाचारों से हिंदुओं को अपने झंडे के नीचे लाना चाहता था। वह भूल गया था कि जिस बादशाही के मद में चूर होकर वह हिंदुओं पर ऐसे अत्याचार किये जा रहा है-उसको भोगने वाले तो कितने ही चले गये। …और एक दिन तू भी चला जाएगा।
एक प्रसंग स्मरण हो आया है। एक संन्यासी किसी राजा के राजभवन में आकर सो रहा था। पहरेदारों ने उसे वहां से उठकर अन्यत्र कहीं किसी धर्मशाला में चले जाने का आग्रह किया। उन्होंने उससे स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि महाराज! यदि रात्रि निवास करना है तो यहां से हटो, क्योंकि यह धर्मशाला न होकर राजा का राजभवन है। संन्यासी ने अविचलित भाव से कहा-यह भी तो धर्मशाला है। पहरेदार कुछ उखड़ से गये और कुछ विचलित भाव से संन्यासी से पुन: कहा कि महाराज यह धर्मशाला नहीं राजा का राजभवन है, इसलिए यहां से हटो और कहीं अन्यत्र चले जाओ।
संन्यासी को भी हठ हो गयी और वहां से उसने हटने के लिए इंकार कर दिया।
तब पहरेदार हार थककर संन्यासी को अपने राजा के पास ले गये। राजा अपने दरबार में अंतिम क्षणों में अपने राजकार्यों से निवृत्त हो रहा था ,उसके सामने अचानक उसके पहरेदार एक संन्यासी को पकड़े हुए ले जाकर खड़े होते हैं। एक संन्यासी ने राजा को बताया कि यह संन्यासी बार-बार आपके भवन को एक धर्मशाला कहे जा रहा है। हमारे समझाने पर भी यहां से हटता नहीं है। कहता है कि आज रात्रि इसी धर्मशाला में व्यतीत करूंगा।
राजा ने संन्यासी को बड़े आश्चर्य भाव से देखा और कहा कि ‘महाराज आपको मेरा भवन धर्मशाला कैसे दिखता है?’ संन्यासी ने पुन: अविचलित भाव से कहा-‘राजन! आपके इस भवन को किसने बनाया था?’
राजा ने कहा-‘मेरे पिता ने।’
संन्यासी ने कहा-‘वह कितने समय इस भवन में रहे थे?’
राजा ने कहा-‘महाराजा मात्र 12 वर्ष रहे।’ संन्यासी ने कहा-‘उसके पश्चात आपके पितामह और पिता अपने समय तक रहे?’
संत बोला-महाराज! मेरे पितामह 20 वर्ष और पिता 25 वर्ष रहे और अब पिछले 8 वर्ष से मैं रह रहा हूं। पिछले वाक्य में राजा की वाणी में उसका अहंकार स्पष्ट झलक रहा था। पर संन्यासी ने अंतिम परंतु प्रभावोत्पादक प्रश्न पूछ लिया-‘क्या राजा तुम इस भवन में सदा रहोगे?’
राजा संन्यासी के प्रश्न से हिल गया था। वह समझ गया था कि धर्मशाला भी कुछ दिन ठहरने के लिए ही लोग प्रयोग करते है, और यह भवन तेरे पितामह के काल से ऐसे ही प्रयोग होता आ रहा है जैसे यह एक धर्मशाला ही हो। उसकी आंखें खुल गयीं थी।
औरंगजेब ने अपने शासन का आरंभ इस भूल से किया कि वह संसार में सदा रहेगा और वह जिस भवन में रह रहा है वह धर्मशाला न होकर एक पूर्णत: रक्षित राजभवन है इसी भ्रम में वह जीवन भर जीता रहा और इसी भ्रम में मर गया। काल ने उसे बूढ़ा कर दिया पर वह सोचता रहा कि तू काल को परास्त कर देगा। अंत में काल उसे परास्त कर धरती से और उसको उसके भवन से खींचकर लेकर चल दिया। अब औरंगजेब के पास पश्चात्ताप करने के लिए भी समय नहीं था। इसीलिए कहा गया है-‘वक्त की हर शय गुलाम।’
छोटे कर्मों से गुलामी का बंधन बढ़ता है, इसलिए औरंगजेब एक शहंशाह की भांति न जीकर शंका और संदेहों के मध्य एक गुलाम की भांति जीता रहा और गुलाम की भांति ही मर गया। क्रमश:
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मुख्य संपादक, उगता भारत