अतुल कनक
पिछले दिनों जब मुंबई शहर में मानसून की पहली बारिश के बाद सडक़ें दरिया बन कर उफन रही थीं- सुदूर दक्षिण से आई यह खबर विचलित करने वाली थी कि तमिलनाडु इस दशक के सबसे भीषण जल संकट से जूझ रहा है। जून के तीसरे सप्ताह में चेन्नई में पेयजल की आपूर्ति घटा कर आधी कर दी गई। उधर राजस्थान के गंगापुर शहर की संजय कॉलोनी में रहने वाले लोगों को अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने खर्चे से टैंकर से पानी मंगवाना पड़ रहा है। हालांकि इलाके में पानी की आपूर्ति सरकारी टैंकरों से भी होती है, लेकिन उन टैंकरों के बस्ती में आते ही ऐसी अफरातफरी मच जाती है कि सामथ्र्यवान परिवार किसी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए अपने खर्चे पर ही टैंकर मंगवा लेते हैं।
लेकिन चेन्नई या गंगापुर सिटी की खबरें तो उस भयावह स्थिति का एक उदाहरण मात्र हैं, जिसका सामना देश के कई हिस्से कर रहे हैं। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में पार्वती नदी के किनारे ऐसे कई गांव हैं जहां लोगों को ‘बीवरियां’ खोद कर अपनी जरूरत का पानी संग्रहीत करना पड़ रहा है। नदी किनारे की रेत में जमे हुए पानी को संग्रहीत करने के लिए खोदे गए छोटे खड््डों को बीवरियां कहा जाता है।
जब सदासलिला कही जाने वाली चंबल नदी की सहायक नदी पार्वती के किनारे बसे हुए गांवों में पानी की ऐसी किल्लत है तो उन शहरों या कस्बों की परेशानी का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है, जहां परिवार की प्यास बुझाने के लिए महिलाओं को मीलों दूर चल कर एक मटका पानी भरने की सहूलियत मिलती है।
हालांकि पिछले वर्ष मानसून की अच्छी बारिश ने कई प्राकृतिक जलस्रोतों को पानी से लबालब करके लोगों को बड़ी परेशानी से बचाया है, वरना तो मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, ओडि़शा, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के बड़े हिस्से में सूखे की मार ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया था। महाराष्ट्र के लातूर में जल संकट के कारण पानी की सप्लाई करने वाले टैंकरों के आसपास परस्पर संघर्ष को रोकने के लिए वहां के कलेक्टर को धारा 144 लगानी पड़ी थी। नांदेड़ में पानी की कमी के कारण अस्पताल प्रशासन ने मरीजों के जरूरी ऑपरेशन तक टाल दिए। चंडीगढ़ में प्रशासन ने यह फैसला लिया कि कोई व्यक्ति सुबह कार धोता हुआ पाया गया तो उस पर दो हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाएगा।
मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ में एक नहर की रखवाली के लिए बंदूकधारी सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया गया। डिंडौरी के आसपास लोग अपनी जरूरत का पानी पाने के लिए जान जोखिम में डाल कर उन गहरे कुओं में उतरने को मजबूर थे जिनकी तलछट में थोड़ा-सा पानी शेष था और शिमला में पर्यटकों को एक बाल्टी पानी पाने के लिए सौ रुपए का भुगतान करना पड़ा था। बुदेलखंड में तो अब भी कई गांव ऐसे हैं, जहां लडक़ों की शादी इसलिए नहीं हो पा रही है कि गांव में उपलब्ध जलस्रोत कुछ बरस पहले सूख गए और गांव की महिलाओं को जरूरत भर का पानी जुटाने के लिए तीन किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।
पिछले वर्ष ही उत्तर प्रदेश के मेरठ, सहारनपुर, बागपत, मुजफ्फरनगर, शामली और गाजियाबाद जिलों में प्रदूषित भूजल के उपयोग के कारण कई लोगों के मारे जाने की खबरें आईं। बागपत जिले में हिंडन और कृष्णा नदी के किनारे बसी बस्तियों में हैंडपंप और भूजल के अस्सी नमूने लिये गए जिनमें से सतहत्तर नमूनों में प्रदूषण की मात्रा खतरनाक थी। मध्यप्रदेश के छतरपुर में लोगों को कई किलोमीटर का सफर तय करके एक पहाड़ से गिरने वाली जलधार से बूंद बूंद पानी इक_ा करना पड़ा था। इसके लिए उन्हें शाम होते ही घर छोड़ देना पड़ता था और वे सुबह ही घर आ पाते थे। तेलंगाना के कुछ हिस्सों में चार सौ फुट गहरी खुदाई के बाद भी पानी इतना ही आता है कि आधा घंटा मोटर चलाने के बाद आधी बालटी पानी भर सकें। जिन शहरों में जल की उपलब्धता का स्तर अभी भयावह नहीं हुआ है, वहां भी पानी के दुरुपयोग और अपव्यय पर समय रहते रोक नहीं लगाई गई तो संकट की छाया को कितने दिन टाला जा सकेगा यह सवाल महत्त्वपूर्ण हो गया है।
पृथ्वी पर उपलब्ध पानी में पीने-योग्य पानी की मात्रा बहुत कम है। विज्ञान ने भले ही हमें पानी की संरचना का अध्ययन करके उसका रासायनिक फार्मूला बता दिया, लेकिन आज भी दुनिया की किसी प्रयोगशाला में पानी का निर्माण नहीं किया जा सका है। चूंकि पानी का कृत्रिम तरीके से निर्माण नहीं किया जा सकता, इसलिए पानी को बचाना ही एकमात्र उपाय है।
जिन इलाकों में पानी की हमेशा किल्लत रही है, उन इलाकों के निवासी पानी की असली कीमत जानते हैं और यही कारण है कि पश्चिमी राजस्थान जैसे मरुप्रदेशों में बूंद-बूंद पानी को सहेजने के लिए अनेक तरह के उपाय वहां की जीवनशैली के अंग बन गए हैं।
जोहड़ों, टांकों, तालाबों, कुओं और बावडिय़ों के माध्यम से वर्षाजल की एक-एक बूंद को सहेजना इन क्षेत्रों में एक परंपरा ही बन गया है। लेकिन जिन इलाकों में पानी सहजता से उपलब्ध रहा, उन इलाकों के निवासियों ने न पानी के अपव्यय के नुकसानों को पहचाना और न ही बारिश के पानी को बचाने का महत्त्व समझा। यही कारण रहा कि विकास के नाम पर कुकुरमुत्तों की तरह उग आई सीमेंट की बस्तियों में मामूली सूखा पड़ते ही हाहाकार मच जाता है।
कुओं, बावडिय़ों, कुंडों, तालाबों और जोहड़ों जैसे जलस्रोत जहां अपने अस्तित्व में पानी सहेजे रखते थे, वहीं इनके कारण भूजल के स्तर को कायम रखने में भी मदद मिलती थी। लेकिन आबादी बढऩे के साथ जैसे-जैसे बस्तियां बनाने के लिए जमीन की जरूरत पड़ी, लोगों ने इन जलस्रोतों को पाटना शुरू कर दिया।
कई पुराने जलाशय पर्याप्त देखरेख के अभाव में जिम्मेदार लोगों की लापरवाही की भेंट चढ़ गए। स्थिति यह हो गई कि अनेक शहर जब बड़े हुए तो उनसे सट कर बहने वाली नदियों तक को अतिक्रमण की भेंट चढऩा पड़ा। अनियोजित नगर नियोजन ने वर्षाजल संग्रहण और उसके कारण भूजल स्तर में होने वाली वृद्धि के महत्त्व को तो अनदेखा किया ही, धरती की देह पर नलकूप खोद-खोद कर भूजल का मनमाना दोहन भी किया। इसका परिणाम यह हुआ कि नदियों के करीब बसे गांव भी भूजल-स्तर की दृष्टि से डार्क जोन में आ गए।
भारत में नदियों को वंदन करने की प्रथा रही है। हर शुभ अवसर पर एक छोटे-से कलश में जल भर क र सभी नदियों का आह्वान किया जाता है कि वे आकर उस जल को अपनी पवित्रता का स्पर्श दें- ‘गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती/ नर्मदे सिंधु कावेरी जले अस्मिन सन्निधि कुरु।’ जब पवित्र कही जाने वाली नदियों के साथ ही विकास के नए सोपान स्पर्श करने की जिद में बुरा बर्ताव हुआ है तो अन्य परंपरागत जलस्रोतों की स्थिति का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। पानी का एक नाम नारा भी है।
इसके महत्त्व के कारण ही इसे समस्त पूजाओं में अनिवार्य बताया गया है। जगत के पालक कहे जाने वाले विष्णु ने इसी नारा में अपना निवास अर्थात अयन बनाया और नारायण कहलाए। लेकिन मनुष्य ने इसके सदुपयोग के महत्त्व को नजरअंदाज कर दिया। अब भी यदि समाज वर्षा जल संग्रहण और पानी के अपव्यय को रोकने के प्रति सचेत हो जाए तो भविष्य को एक बड़ी मुसीबत से बचाया जा सकता है।