हे राम: दर्द का दस्तावेज

images - 2023-02-12T181021.868

1999 में प्रकाशित 900 पेज के उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ में लेखक गिरिराज किशोर ने लिखा था- ‘महात्मा गाँधी के जीवन के तीन पक्ष हैं-एक मोहनिया पक्ष, दूसरा मोहनदास पक्ष और तीसरा महात्मा गाँधी पक्ष।’ यह उपन्यास गाँधी के दक्षिण अफ्रीकी जीवन केंद्रित मोहनदास पक्ष पर था। उन्होंने लिखा-आने वाली पीढ़ी को मोहनदास की ज्यादा जरूरत है जिससे वह जान सके कि मोहनदास महात्मा गाँधी कैसे बना?

2023 में पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव की 557 पेज की किताब ‘हे राम’ इस हिसाब से गाँधी के महात्मा पक्ष पर है। यह पूरी तरह महात्मा पक्ष पर भी नहीं है। यह उनकी हत्या की एक प्रामाणिक पड़ताल है, जिसका कालखंड 1946-47 के अखंड भारत का है। घटनाओं से भरे इन दो सालों के दौरान भारत के महान नेता क्या कह रहे हैं, क्या कर रहे हैं, उनके रुझान, उनके झुकाव, उनके टकराव, उनके पक्षपात, उनकी महात्वाकांक्षाओं का बेहतरीन ताना-बाना ‘हे राम’ के दो खंडों में है। इससे यह पता चलता है महात्मा होकर गाँधी क्या कर रहे थे?

पहले खंड के प्रमुख पात्र हैं-मोहनदास करमचंद गाँधी, उनके परम प्रिय जवाहर लाल नेहरू, उनके सचिव प्यारेलाल नैयर, नैयर की बहन सुशीला, जो गाँधी के ‘सत्य के प्रयोगों की एक सुपात्र’ भी थीं और दूसरी सुपात्र मनुबेन, जो गाँधी के भतीजे जयसुखलाल की बेटी थीं, सरदार वल्लभ भाई पटेल, आचार्य कृपलानी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, बाबा साहब आंबेडकर, सी. राजगोपालाचारी, मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग के कई चेहरे, जो देश बाँटकर जिन्ना को छोड़ बापू की चादर ओढ़ने बिड़ला हाउस में मंडराने लगे थे। दूसरे खंड में-नाथूराम गोडसे, गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, मदनलाल पाहवा, विष्णु करकरे, डॉ. दत्तात्रेय परचुरे और सबसे महत्वपूर्ण वीर विनायक दामोदर सावरकर।

कई किताबों, चिटि्ठयाें, बयानों, प्रार्थना सभाओं, अखबारी कवरेजों, जाँच रिपोर्टों और अदालती फैसलों की तथ्यात्मक सामग्री से मल्टी स्टार मूवी जैसा बांधे रखने वाला कथानक तैयार हुआ है, जो केवल रूखे-सूखे विवरण की शक्ल में नहीं हैं। प्रखर श्रीवास्तव की पत्रकारीय यात्रा टीवी चैनलों में चली है इसलिए 35 अध्याय इतने ही एपिसोड के एक प्रभावशाली ड्रामे का अनुभव देने वाले हैं। सब कुछ सामने घटता हुआ। यह किताब भारत के विभाजन की विभीषिका के इतिहास के सबसे कठिन समय में हमारे सबसे महान नेताओं के चेहरों पर घूमी एक सर्च लाइट है। जो जैसा था, वैसा ही दिखाई दिया है।

75 सालों में बहुत कुछ ऐसा था, जो सही रूप में सामने आने ही नहीं दिया गया। ओढ़ाई गई महानताओं में कहानी के दूसरे ही सिरे आजादी के इतिहास के नाम पर थमाए जाते रहे। एक पत्रकार से ही यह आशा की जाती है कि वह सत्य को सामने लाए। प्रखर ने वही काम किया है। यह पत्रकारिता का हक अदा करने जैसा काम है। बाइलाइन और एंकरिंग की खूंटियों से तो भीड़ की भीड़ बंधी हुई आज भी बुढ़ा रही है। इस किताब के जरिए आजादी के समय के कुछ ज्ञात, कुछ अल्पज्ञात और ज्यादातर अज्ञात तथ्यों को एक सिलसिले से देखना, एक आंखें खोलने वाला अनुभव है।

मोहनदास करमचंद गांधी पर ढेर किताबें लिखी गई हैं। लगातार लिखी जा रही हैं। उनके जीवन के तीनों पक्षों पर देश-विदेश के विद्वानों ने जमकर लिखा है। उन पर मशहूर फिल्में भी बनी हैं। क्यों न बनें और लोग क्यों न लिखें? वे राष्ट्रपिता बनने के पहले महात्मा हैं। एक मामूली बेरिस्टर मोहनदास, जो भारत के घोषित महात्मा बने। आजादी के पहले के तीन दशक तक वे भारतीय राजनीति के आकाश पर जगमगाए हैं। उनका असर अवाम पर था। उनका असर आम और खास पर था। वे बिल्कुल साधारण, अपने सत्य में स्थिर, अपने सत्याग्रहों में प्रतिष्ठित, किंतु अपनी पसंद और नापसंद को लेकर मृत्युपर्यंत सजग एक जिद्दी और प्यारे इंसान थे।

कॉलेज के दिनों में पढ़ी ‘सत्य के प्रयोग’ सहित उन पर लिखी कुछ किताबें मेरे संग्रह में हैं। मैं स्वीकार करता हूं कि शायद ही मैं उन पर कभी निष्पक्ष लिख पाऊँ जबकि उनका किरदार मुझे बार-बार अपनी तरफ खींचता है। मोहनिया पक्ष तक वे वाकई मनमोहक और प्रेरक हैं। महात्मा होते ही मेरे भीतर का संवेदनशील भारतीय चौकन्ना हो जाता है। फिर एक पत्रकार और लेखक के रूप में वह महात्माजी के समय की घटनाओं के विस्तार में झांकता है और तब मामला वाकई कठिन हो जाता है।

महान लीडर अपने देश या समाज के दूर का हित देखते हैं। वह दूरदृष्टि ही उन्हें सच्चे अर्थों मंे महान बनाती है। वही दृष्टि उन्हें देश और समाज के हित में कठोर निर्णय लेने की शक्ति देती है और वे अपनी पसंद के विरुद्ध जाकर भी निर्णय ले पाते हैं। 1920 से 1947 के कभी न भुला सकने वाले बटवारे तक भारत जिस तरफ सरक रहा था और तब हमारे लीडर किस दुनिया में थे, यह सवाल मुझे भीतर तक भेदता रहा है। वह भयंकर भूलों का कभी माफ न किया जाने वाला कालखंड है। मगर प्रखर श्रीवास्तव ने कोई निर्णय नहीं सुनाया है। वे सिर्फ तथ्यों और प्रमाणों पर बात करते हैं।

एक महान लीडर अपने जीवनकाल में कैसे अपने राष्ट्र का रूपांतरण कर सकता है, इसका दुनिया के इतिहास में एकमात्र उदाहरण तुर्की के मुस्तफा कमाल पाशा का है। उनके मरने पर कृतज्ञ नागरिकों ने उन्हें अपना ‘अतातुर्क’ कहा था। अतातुर्क मतलब राष्ट्रपिता! और जब तुर्की का अतातुर्क अपने देश से एक धूल चढ़े मजहबी निजाम के खलीफा को दफा कर रहा था, तब मेरे अतातुर्क यहाँ क्या कर रहे थे?

मैं एक भावुक ह्दय कवि होता तो तय है कि गाँधी के प्रत्येक पक्ष पर मोहित ही बना रहता। उनकी लाठी, धोती, घड़ी, चरखे और चश्मे भी मुझे सत्य की खोज में प्रभावशाली आध्यात्मिक टूल्स दिखाई देते। मगर तथ्यों के ठोस धरातल मुझे ऐसा होने नहीं देते। इसलिए मैं गाँधी पर लिखी दूसरों की किताबें जब अवसर आया अवश्य पढ़ता रहा हूँ। यह सोचकर कि शायद मेरा दृष्टिदोष मुझे किसी गलत निर्णय पर न पहुँचा दे। प्रखर की यह किताब उसी ठोस धरातल का एक भीतर तक दर्द देने वाला दस्तावेज है। जैसा है, उसे वैसा ही देखने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।

बापू आजादी के ऐसे दीवानों का नेतृत्व कर रहे थे, जो देश भर में थे। यह और बात है कि अंग्रेजों की किसी गोली पर इनमें से किसी दीवाने का नाम नहीं लिखा था, न ही फाँसी का कोई फंदा इनके लिए बना था, अंडमान की कालकोठरियाँ तो इनके लिए बिल्कुल ही नहीं बनी थीं। वे कोई और थे, जो इंदौर के मेडिकल कॉलेज से लेकर यूपी में खजुआ के पेड़ों से लाशों के रूप में लटकने चले गए थे। इलाहाबाद के पार्क में गोली खाने वाला कोई और था। लाहौर की जेल में लटकी लाशें नामालूम किनकी थीं। जो अंडमान में अपनी जवानी होम कर रहा था, भूल जाइए उसे। अंग्रेजी हुकूमत का ‘अधिमान्यता कार्ड’ दूसरे ही दीवानों की खादी के जेबों में था!

आजादी के ये वही दीवाने थे, जो बहुत अनूठे थे। उनकी जेल के कमरों में सोफे, टेबल, कुर्सी और आरामदेह बिस्तर होटलों जैसे सजे हुए अभी भी तीर्थ रूप में दर्शनीय हैं। वे जेलों में रहकर अखबारों में अपने कवरेज रोज देख सकते थे। समय बिताने के लिए किताबंे थी। पत्र और पुस्तकें लिखने का पूरा वातावरण उन्हें उपलब्ध था। उनसे मिलने आने वाले परिजनों के लिए जेलर की कार रेलवे स्टेशन तक जाया करती थी। आजादी तय होते-हाेते आजादी के ये बिना खड्ग और बिना ढाल वाले बापू के अहिंसक अनुयायी सत्ता के दीवाने बनकर सौदेबाजियाँ करते हुए कैसे दिखाई दे रहे हैं, यह इस किताब में अपने मोबाइल फोन स्विच ऑफ करके पढ़िए!

भारत की मुस्लिमपरस्त तथाकथित सेक्युलर राजनीति के बीज कहां और किस जमीन पर पड़े हुए हैं और वो कौन माली है, जो अपने जीते-जी उन्हें बराबर खाद-पानी देता रहा, यह इस किताब के शुरुआती हिस्सों में बेनकाब है। बापू किस हद तक एक तरफ झुके हुए रहे, जो सामने घट रही ह्दयविदारक घटनाओं से भी मुँह फेरकर अपने ही सत्य की खोज अपने ही तरीकों से जारी रखे हुए थे। जबकि देश का वर्तमान और भविष्य ही दाव पर नहीं लगा था, करोड़ों बेकसूर लोग गाजर-मूली की तरह काटे, मारे और खदेड़े जा रहे थे।

75 साल बाद हम सरहदों के दोनों तरफ के हिंदुओं के लिए विनाशकारी हिसाब साफ देख सकते हैं। अगर खेल संभल नहीं रहा हो तो सबकी बेहतरी के लिए खेल से बाहर हो जाना सबसे बेहतर है। इस लिहाज से गाँधीजी के जीवन के अंतिम समय की घटनाओं और उनमें उनकी सतत् सक्रिय भूमिका को बहुत बारीकी से देखने में यह किताब मददगार है।

हाल के समय में पत्रकारों की कई किताबें छपी हैं। साहित्यिक सृजन को छोड़ दें तो ज्यादातर का स्तर चंपक-चंदामामा के स्तर से ऊँचा नहीं है। शब्दवेत्ता अजित वडनेरकर कुछ कठोर शब्दों में कहते हैं कि हिंदी के पत्रकारों के लेखन में शोध नाम की चीज नहीं है। जबकि 20-30 साल अखबार-टीवी में बिताने के बाद यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि वे शोधपरक कुछ लिखें, जो लंबे समय के लिए महत्व का काम हो।

एक आदमी सुबह एक बोरा कंधे पर टाँगकर दिन भर सड़कों पर भटकता है। वह कूड़े के ढेरों में से पन्नी, पॉलिथिन, ढक्कन, बोतल, डिब्बा बटोरकर भरता रहता है। बहुत मेहनत का काम है यह। मगर घटनाओं के पीछे भागना पत्रकारिता नहीं है। उस भागमभाग में से सबक क्या निकले, यह महत्वपूर्ण है?

‘हे राम’ पत्रकारिता के मृत पाठ्यक्रमों के जागरूक विद्यार्थियों को जरूर पढ़ना चाहिए। यह उनके लिए अनुभवी व्याख्याकारों की सौ क्लासों के बराबर वजन की है। मीडिया में क्राइम और पॉलिटिकल रिपोर्टिंग के नाम पर सालों-साल केवल हादसों, वारदातों, जलसों, बाइट और बयानों को बटोरने वाले आत्ममुग्ध पत्रकारों को यह किताब बताएगी कि कूड़े से बिजली कैसे बनाई जाती है। यह बीती सदी के सबसे बड़े मर्डर केस पर एक ध्यान देने योग्य दस्तावेज है। यह एक ऐसा हाईप्रोफाइल पॉलिटिकल केस है, जिसने भारत के भविष्य को गहरे तक प्रभावित किया। इस किताब में सच्चे इतिहास की चीरफाड़ है। एक सच्चे पत्रकार से और क्या आशा की जाती है?

प्रखर ने 20 साल इंडिया टीवी, जी न्यूज, एनडीटीवी, टीवी टुडे, सहारा समय जैसे नामी चैनलों में बिताए। हमें याद नहीं कि वे कभी सत्ता प्रतिष्ठानों के आसपास पॉलीटिकल बीट के सितारा संवाददाताओं या प्राइम टाइम एंकर की तरह स्क्रीन पर बहुत दिखाई दिए हों। उनका अधिकांश काम कैमरे के पीछे का ही रहा होगा। मेरा ध्यान पिछले कुछ सालों में उनके एक खास शो ‘खरी बात’ पर जरूर गया। एक ऐसा शो जो बेबाकी से अाधुनिक भारत के इतिहास की दबी-छिपी परतें सामने टेबल पर रखकर तथ्यों और सबूतों के साथ खोलता है। 15 साल के अध्ययन और शोध से निकली और जनसभा प्रकाशन से छपकर आई ‘हे राम’ प्रखर का अपना अर्जित किया हुआ ‘प्राइम टाइम’ है, जो किसी मीडिया ब्रांड या स्क्रीन का मोहताज नहीं है।

  • विजय मनोहर तिवारी

Comment: