प्रस्तुती: Dr D K Garg
भाग 2
इस लेख मे कुल पांच भाग है,आपका कोई प्रश्न है तो भेज सकते है।
भाग एक में बताया कि धर्म की परिभाषा क्या है और ऋषि मनु के अनुसार धर्म के 10 लक्षण है,जिनमे कोई कटौती संभव नहीं है। हर व्यक्ति को ये दस नियम का पालन अनिवार्य है। इसको व्यक्ति धर्म कह सकते हैं।इसके अतिरिक्त धर्म का एक अन्य वर्गीकरण व्यक्ति की सामाजिक ,परिवारिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारी के आधार पर भी है ,ये भी अनिवार्य है।इस पर विचार करते है .पहले कुछ प्रश्न लेते हैं।
एक प्रश्न : यदि अच्छा व्यवहार और अच्छा आचरण करना धर्म है तो फिर पूजा पाठ किसलिए ?
यहाँ पर प्रश्न उत्पन्न होता है कि हम परमात्मा की भक्ति क्यों करें? ईश्वर की भक्ति से हमें क्या लाभ हो सकता है?
उत्तर:.शास्त्र कहते हैं, कि जो जिसकी भक्ति करता है, वह तद्रूप हो जाता है। जो जिसका चिन्तन करता है वह उसी के रंग में रंगा जाता है, जो जिसका अधिक ध्यान करता है वह उसी का स्वभाव ग्रहण करता जाता है। जैसे लोहे का गोला अधिक काल तक अग्नि में रखे रहने से पहले गर्म और फिर गर्म से लाल और फिर लाल से तद् रूप अर्थात् अग्नि का रूप ग्रहण करता जाता है, इसी प्रकार जो मनुष्य जिस चीज या वस्तु का अधिक ध्यान करता है वह उसी के रंग में रंगा जाता है।
यदि हम मनुष्यों की भक्ति करते हैं तो इसमें सन्देह नहीं कि हममें उन उपास्य देवताओं के गुण आवेंगे। क्योंकि मनुष्य सारे के सारे ही अल्पज्ञानी होते हैं उनमें कमजोरियाँ होती हैं इसलिए यह स्वाभाविक है कि मनुष्यों की पूजा और भक्ति करने से जहाँ हम उनके गुणों को ग्रहण करते हैं वहाँ अवगुण भी हममें आ जाते हैं। जड़ पदार्थों की पूजा करने से मनुष्य के अन्तरीय सूक्ष्म विचारों का नाश हो जाता है, और वह जड़ की न्याईं जड़ बन जाता है।
इसलिए वेद कहता है
“अन्धंतमः प्रविशन्ति ये ऽविद्यामुपासते” (यजु० 40.9)
कई मनुष्य जो जड़ पदार्थों की पूजा करते हैं उनका हृदय जड़ पदार्थों के समान प्रकाश शून्य हो जाता है, और वे अन्धकार में ठोकरें खाते फिरते हैं। इसलिए पूजा का परिणाम यही है कि मनुष्य जिसकी पूजा करता है वह उसके रंग में रंगा जाता है। यदि जड़ पदार्थों की पूजा करने से मनुष्य को शांति मिल सकती तो इस संसार में जो सबसे ज्यादा जड़ पदार्थों की पूजा करते हैं अर्थात् जो सबसे अधिक धनी हैं, जो सबसे अधिक यश रखते हैं, वह कदापि दुःखी न देखे जाते।
परमात्मा शुक्र अर्थात् आनन्द है, वह क्लेशों से रहित है, दु:ख का नाशक है, सुख का दाता है, वह निराकार है।
यह एक साधारण नियम है कि एक महाशक्तिमान् की पूजा मनुष्य को स्वाभाविक शक्तिमान् बनाती है।
“यस्य च्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः” ।
अर्थात् परमात्मा को अपने आत्मा में अनुभव करना और उसी को हर्ता-कर्ता अनुभव करते हुए रात-दिन उसी की शरण में और उसी की भक्ति में अपने आपको लीन रखना ही आत्मा का जीवन है, और उससे दूर हो जाना अर्थात् उसकी भक्ति से शून्य हो जाना, उसके प्रेम से खाली हो जाना मानो आत्मा से आत्मा का खाली हो जाना है। इस आत्मिक मृत्यु से मनुष्य उसी अवस्था में बच सकता है जबकि वह अमर परमात्मा को प्राप्त हो। जड़ पदार्थ जो कि स्वयं शून्य हैं, उनकी पूजा करने से भी आत्मा आत्मिक मृत्यु से नहीं बच सकता। आत्मा का जीवन परमात्मा है। उसकी भक्ति करने से, उसी की शरण लेने से, उसी के प्रेम में मग्न होने से, उसकी शरण लेने से आत्मा जीवन पा सकता है, मुक्त हो सकता है।
उपनिषद् कहती है:-
एतदालम्बनःश्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।(कठो० 2.17)
परमात्मा ही एक आत्मा का आधार है और परमात्मा ही आत्मा के लिए सबसे श्रेष्ठ और परम पवित्र आधार है, परमात्मा ही आत्मा के लिए शरण है, वही इसके लिए मृत्यु के विरुद्ध एक सुरक्षित ढाल है जो इस आधार को अपना आधार बनाता है।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।
अर्थात समस्त प्राणीयों का हित करने और हित करने के विषय में चिन्तनशील रहने से संसार में महापुण्य होता है और इसके विपरीत प्राणियों को अकारण मन-वचन व कर्म से पीड़ा पहुँचा कर उनका अहित करना महापाप है । यही पुण्य पाप क्रमशः धर्म व अधर्म कहलाता है।
एक साधारण बात है कि जितना हम अल्प वस्तुओं की भक्ति करेंगे उतना ही हमारा विचार, हमारा जीवन, हमारा तेज, हमारा बल भी अल्प होगा परन्तु जहाँ तक एक महान् और प्रभावशाली जीवन के आधार, आत्मा के आधार, सर्वशक्तिमान् तेजोमय परमात्मा की पूजा करेंगे उतने ही हम महान् होते जावेंगे।
तेजो असि तेजो मयि धेहि।
वीर्यमसि वीर्यं मयि देहि।
बलमसि बलं मयि धेहि।
ओजोऽस्योजो मयि धेहि।
सहोऽसि सहो मयि धेहि॥* (यजु० 12.9)
अर्थात्-हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूं, क्योंकि तू तेज है, तेरी भक्ति द्वारा तेरे तेज को प्राप्त कर सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ कि तू शक्ति है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा इस शक्ति को प्राप्त कर सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ क्योंकि तू बलपुंज है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा इस बल को प्राप्त कर सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ क्योंकि तू जीवनाधार है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा इस आधार को प्राप्त कर सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ क्योंकि तू सहनशील है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा सहनशील बन सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ क्योंकि तू सबको यथावत् फल देने वाला है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा इस न्यायशीलता को ग्रहण कर सकें, इत्यादि।
2.पारिवारिक धर्म — माता-पिता, पत्नी-पत्नी, भाई – बहन, पत्नी -पुत्र तथा परिवार के दुसरे लोगों के साथ जिन धर्मों का सम्बन्ध हो उन्हें पारिवारिक धर्म कहते हैं । जहाँ परिवार के सब लोग बड़ो का सम्मान करते और उनकी आज्ञा का पालन करते हो, एक दुसरे के साथ प्रेम और खुश रहने का यत्न करते हो, एक दुसरे की सहायता करते और कष्ट दूर करने की कोशिश करते हो, इसे ही पारिवारिक धर्म कहते हैं और ऐसा परिवार सुखी भी रहता है ।
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