महर्षि दयानंद की 200 वीं जयन्ती के अवसर पर चौथी किस्त : ऋषि दयानंद, राजा जयकृष्ण दास और सत्यार्थ प्रकाश
ऋषि दयानंद, राजा जयकृष्ण दास और सत्यार्थ प्रकाश
सन 1874 में महर्षि दयानंद काशी में पुनः पधारे थे। उस समय मुरादाबाद निवासी श्री राजा जयकृष्ण दास सी.एस.आई. वहां के डिप्टी कलेक्टर थे ।उन्होंने महर्षि दयानंद सरस्वती से निवेदन किया कि आप के उपदेशों से जो लोग वंचित रह जाते हैं उन तक अपने विचार पहुंचाने के लिए आपको अपने विचार, मंतव्य, धर्म उपदेश आदि को ग्रंथ रूप में लिखवा देना चाहिए। इस अत्यंत उपयोगी सुझाव को महर्षि दयानंद ने तुरंत स्वीकार कर लिया ।इन विचारों, भाषणों को लिखाने और छपाने का सारा भार राजा जयकृष्ण दास ने अपने ऊपर ले लिया। तथा उसी समय अर्थात प्रथम आषाढ़ कृष्ण एकादशी संवत 1931 विक्रमी अर्थात 12 जून 1874 को इन विचारों का लेखन कार्य आरंभ कर दिया। लगभग साढ़े तीन मास में उपदेशों का यह संग्रह पूरा कर लिया गया। इसको 14 विभागों में बांट दिया गया ।जिसके कुल 2012 पृष्ठ थे।
इस पांडुलिपि के 700 पृष्ठ अर्थात 12 विभागों के अंत तक का भाग ग्रंथ रूप में राजा जय कृष्ण दास ने अपने पैसे से सन 1875 में काशी में मुद्रित करा दिया। 13 व 14 विभाग किसी कारण से नहीं छप पाए थे ।जो बाद में समुल्लास कहे गए।
महर्षि दयानंद के प्रमुख धर्म उपदेशों के आधार पर छपे प्रथम संस्करण सत्यार्थ प्रकाश के विषय में बहुत समय से सुनते आए थे ।उनको देखने और पढ़ने की बहुत प्रबल इच्छा हर किसी विद्वान की रहती थी। गुरुकुल झज्जर के आचार्य श्री स्वामी ओमानंद सरस्वती भी इसी प्रयास में रहते थे कि महर्षि दयानंद से संबंधित सभी प्रकार का साहित्य चाहे वह पक्ष विपक्ष किसी भी द्वारा लिखा गया हो, किसी मूल्य पर कहीं से भी मिल जाए, वह एकत्र करना चाहिए।
स्वामी ओमानंद ने श्री विरजानंद देवकरणी को भी इस विषयक निर्देश दिया हुआ था ।इसी खोज में 1981 में डॉक्टर सेवाराम आर्य ने श्री बृजानंद जी व पंडित बलदेव का स्टेशन रोड मुरादाबाद स्थित पुस्तकालय देखते हुए पुस्तक सूची में सत्यार्थ प्रकाश प्रथम संस्करण लिखा देखा। लेकिन पहले इस पुस्तक को धर्मोपदेश कहते थे।
राजा जय कृष्ण दास के प्रपोत्र कुंवर यतीश प्रसाद पाठक के पास मूल प्रति मिली जिसकी 5 फोटोस्टेट कॉपी कराई गई।
इसी मुद्रण प्रति या प्रेस कॉपी से धर्मउपदेशों के संग्रह रूप सत्यार्थप्रकाश का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पुरातत्व संग्रहालय में उक्त प्रति के प्रारंभिक 10 समुल्लास उपलब्ध है।
मूल प्रति के धर्मोपदेशों का मिलान मुद्रण प्रति के साथ-साथ 1875 में छपे प्रथम संस्करण में से किया गया।
जिस वजह से मैं यह सब लिख रहा हूं उस वजह पर अब आता हूं।
वास्तव में 1874 में लिखित इन धर्मोंपदेशों में प्रतिलिपि कार ने मृतक श्राद्ध और यज्ञ में पशु हिंसा विषयक प्रकरण प्रक्षिप्त कर दिए थे।
इस प्रकार प्रथम संस्करण अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश का प्रक्षिप्त प्रकाशित हुआ। जो दोनों बातें महर्षि दयानंद सरस्वती की मान्यता के प्रतिकूल छाप दी गई, लेकिन जब महर्षि दयानंद को इस प्रक्षेप की सूचना मिली तो उन्होंने ऋग्वेद आदि भाष्य भूमिका के 11वें और 12वें मासिक अंकों में विज्ञापन देकर तथा ठाकुर मुकुंद सिंह रईस छलेसर अलीगढ़ को पत्र लिखकर उक्त वैदिक विरूद्ध परंपराओं का प्रत्याख्यान कर दिया था कि तर्पण और श्राद्ध विषय में जो छापा गया है तो लिखने और शोधने वालों की भूल से छापा गया ।
अतः श्राद्ध के विषय में जो मृतक श्राद्ध और यज्ञ में मांस विधान का वर्णन है वह वेद विरुद्ध होने से त्याज्य है।
यह प्रथम पांडुलिपि अब महर्षि दयानंद की स्थानापन्न और उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा अजमेर के संग्रह में सुरक्षित है।
आदिम सत्यार्थ प्रकाश के रूप में छपे इन धर्मोंपदेश को पढ़कर पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी ,स्वामी श्रद्धानंद जी ,पंडित लेख राम जी आर्य पथिक आदि अनेक पुराने नेता ऋषि के भक्त बने ,तथा अपना पूरा जीवन आर्य समाज की सेवा में अर्पित कर दिया ।ऐसे ग्रंथ रत्न को उसके मूल उपदेशों के रूप में प्रकाशित करके
आर्य जगत के अनेक विद्वानों की इच्छा पूर्ण कर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की गई है।
यह हम सभी जानते हैं कि महर्षि दयानंद मूल रूप से गुजरात के रहने वाले थे और उनकी मूल भाषा गुजराती थी।
ऋषि दयानंद संस्कृत और गुजराती भाषा भाषी होते हुए भी कितनी लग्न से आर्य भाषा हिंदी की ओर अग्रसर हुए तथा कितनी शीघ्रता से उसे अपना कर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने की योग्यता प्राप्त करवाने का सफल उद्योग कर गए हैं ।इस उन्नति का क्रम देखना हो तो इन धर्मोंपदेशों की भाषा के साथ साथ द्वितीय संस्करण सत्यार्थ प्रकाश की भाषा की तुलना करके अनुमान लगाया जा सकता है कि ऋषि जी जिस सत्य को ग्रहण कर लेते थे उसका पालन कितने शीघ्रता और योग्यता पूर्वक करते थे।
कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि महर्षि दयानंद के हृदय में देश उद्धार की कितनी सच्ची तड़प थी। हृदय से निकले शब्द हृदय को छूते हैं।
मैं यहां यह भी निवेदन करना चाहूंगा कि महर्षि दयानंद के जीवन काल में भी मूल ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में प्रक्षिप्तीकरण कर दिया गया था। तो ऐसे अनुचित कार्य की संभावना प्रतिपल उपस्थित रहती है।
हमें किसी भी प्रकार से विचलित नहीं होना चाहिए लोग गलत और भ्रामक प्रचार करते हैं क्योंकि महर्षि दयानंद ने मृतक श्राद्ध और यज्ञ में मांस का कहीं भी समर्थन नहीं किया ।
महर्षि दयानंद ने स्त्री व शूद्रों को विद्या अधिकार सर्वप्रथम प्रदान किया।
भाद्रपद शुक्ल पक्ष संवत 1939 तदनुसार सन 1882 में उदयपुर में रहते हुए सत्यार्थ प्रकाश का दूसरा संस्करण बहुत ही शुद्धि के साथ दोबारा छपवाया गया था ।पहले वाले संस्करण में जो गलतियां थी वह सब शुद्ध कर दी गई थी।
प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओंकार आदि नामों की व्याख्या ,द्वितीय समुल्लास में संतानों की शिक्षा ,तृतीय समुल्लास में ब्रह्मचर्य, पठन-पाठन व्यवस्था, सत्य_ असत्य ग्रंथों के नाम और पढ़ने पढ़ाने की रीति ,चतुर्थ समुल्लास में विवाह और ग्रह आश्रम का व्यवहार, पंचम समुल्लास में वानप्रस्थ आश्रम की और सन्यास आश्रम की विधि, छठे समुल्लास में राजधर्म, सप्तम समुल्लास में वेदेश्वर विषय, अष्टम समुल्लास में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय, नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बंध और मोक्ष की व्याख्या, दसम समुल्लास में अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य विषय, एकादश समुल्लास में आर्यावर्त मतमतांतर का खंडन -मंडन विषय, द्वादश समुल्लास में चारवाक , बौद्ध और जैन मत का विषय , त्रयोदश समुल्लास में ईसाई मत का विषय,चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मत का विषय,और अंत में आर्यों के सनातन वेदविहित मत की विशेषत: व्याख्या लिखी है।
प्रस्तुति एवं संग्रहकर्त्ता:
– देवेंद्रसिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत