सुरेश उपाध्याय
आधुनिकता की दौड़ में जब योजनाओं को कुछ ज्यादा व्यवस्थित होना चाहिए था, तब सब कुछ राम भरोसे छोड़ दिया गया। मलमूत्र, औद्योगिक कचरे और तमाम तरह के अवशिष्टों ने खान नदी को तबाह कर डाला है। नदी जलसंग्रहण क्षेत्र में पेड़ों की कटाई की गई और जहां भी लोगों ने चाहा, मनमाने कब्जे किए। आज नदी अपने वजूद के लिए तरस रही है। नदी सिमटी तो भूजल स्तर भी नीचे चला गया। हालत यह है कि गरमी के दिनों में नलकूपों की सांसें भी फूलने लगती हैं।
माना जाता है कि सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारों पर ही हुआ है। लेकिन हम जिस दौर में जी रहे हैं और विकास की जिस अंधाधुंध दौड़ में शामिल हो गए हैं, उसने सबसे पहला हमला हमारी नदियों पर ही किया है। एक ओर नदियों को प्रदूषित किया जा रहा है तो दूसरी ओर कई नदियां विलुप्ति के कगार पर हैं या विलुप्त हो चुकी हैं। नदियों के शुद्धीकरण और पुनर्जीवन को लेकर बहस-मुबाहिसे तो बहुत होते हैं, मगर करोड़ों रुपए स्वाहा होने के बावजूद वांछित नतीजे नहीं मिल रहे हैं। तमाम दावों के बाद भी गंगा और यमुना का शुद्धीकरण नहीं हो पा रहा है। यही स्थिति तमाम अन्य छोटी-बड़ी नदियों की भी है। हालांकि, किसी नदी को जीवित व्यक्ति का दर्जा देने की शुरुआत वैसे तो न्यूजीलैंड से हुई। लेकिन बाद में भारत के राज्य उत्तराखंड में नैनीताल उच्च न्यायालय ने भी इसी तरह का आदेश दिया, जिसमें गंगा-यमुना को मानवाधिकार का दर्जा दिया गया। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी है, लेकिन कहने की जरूरत नहीं कि इन आदेशों से नदी संरक्षण अभियान को एक नई ऊर्जा तो मिली ही है। आज देश की कई नदियों को लेकर चर्चा चल रही है। मध्यप्रदेश के सबसे बडेÞ शहर इंदौर में बहने वाली खान नदी गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है। यह नदी औद्योगिक अवशिष्ट और शहर के मलमूत्र की वाहक बन गई है। नदी पर सरकारी और व्यक्तिगत अतिक्रमण की वजह से बाजार, बहुमंजिला भवन और निजी मकानों का जाल बिछ गया है। कहीं-कहीं तो नदी इतनी संकरी हो गई है कि नाले की शक्ल में आ गई है। संकीर्ण स्वार्थों की राजनीति ने नदी क्षेत्र को पट्टे में वितरित करके झुग्गी बस्ती में नारकीय जीवन के मार्ग प्रशस्त किए तो अफसरशाही और भ्रष्टाचार ने अतिक्रमण करके नदी का दम ही घोंट दिया। नागरिक समाज ने भी कोई जिम्मेदारी नहीं दिखाई और इसे कूड़ेदान समझ लिया। नतीजा यह हुआ कि कूड़े, कचरे और मलबे नदी को पाटने में इस्तेमाल होने लगे।
रालामंडल की पहाडिय़ों से निकलने वाली खान नदी की दो सहायक नदियों- चंद्रभागा और सरस्वती तथा कस्तूरबाग्राम, बिलावली और पिप्लियापाला तालाब के अतिरिक्त पानी के प्रवाह से यह नदी आप्लावित रहती थी। कहा जाता है कि कभी इसके घाटों पर स्नान-ध्यान किया जाता था और हाथिपाला पर हाथियों को नहलाया जाता था। होल्कर शासकों ने कई जल संरचनाओं का निर्माण कर इसका प्रवाह कायम रखा था। नगर नियोजक पैट्रिक गिडिस की सलाह से नदी प्रणाली को अक्षुण्ण रखते हुए इसे सुंदर स्वरूप दिया गया था। नदी के किनारे बने घाट, छोटे-छोटे बांध और छतरियां इसके प्रमाण हैं।लेकिन आधुनिकता की दौड़ में जब योजनाओं को कुछ ज्यादा व्यवस्थित होना चाहिए था, तब सब कुछ राम भरोसे छोड़ दिया गया। मलमूत्र, औद्योगिक कचरे और तमाम तरह के अवशिष्टों ने खान नदी को तबाह कर डाला है। नदी जलसंग्रहण क्षेत्र में पेड़ों की कटाई की गई और जहां भी लोगों ने चाहा, मनमाने कब्जे किए। आज नदी अपने वजूद के लिए तरस रही है। नदी सिमटी तो भूजल स्तर भी नीचे चला गया। हालत यह है कि गरमी के दिनों में नलकूपों की सांसें भी फूलने लगती हैं। नदी को पुनर्जीवित करने के बजाय कुछ वर्ष पूर्व इसे कृत्रिम झील का स्वरूप देने की योजना बनी। इसके लिए करोड़ों रुपए मंजूर हुए और पानी की तरह रुपए बहाए भी गए, मगर स्थिति जस की तस है। इसके बाद नदी गलियारा विकसित करने की योजना बनाने पर बात चली। इसमें कल्पना यह की गई थी कि नदी के दोनों किनारों के समांतर सडक़ें बनाई जाएंगी। लेकिन इसे कार्यरूप नहीं दिया जा सका। शहर के नागरिकों ने अभ्यास मंडल की पहल पर इसके पुनर्जीवन का विचार रखा। इसके समर्थन में घाटों की सफाई, दीपोत्सव, मानवशृंखला, महिला रैली, हस्ताक्षर अभियान, परिचर्चा जैसे उपक्रम किए गए लेकिन इनका भी कोई असर नहीं हुआ। खान नदी कुछ दूर आगे चलकर शिप्रा में, शिप्रा चंबल में तथा चंबल गंगा में जाकर मिलती हैं। क्षेत्रीय सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के प्रयासों से इसे गंगा शुद्धीकरण अभियान का हिस्सा तो बना लिया गया और इंदौर को ‘स्मार्ट सिटी’ की सूची में शामिल कर लिया गया मगर खान नदी का अस्तित्व अब भी संकट में है। थोड़ा-बहुत जो काम दिखाई पड़ रहा है, वह पुल पर रेलिंग लगाने, पुल चौड़ा करने और नालाबंदी तक सीमित है। नागरिकों को इस बात की भी जानकारी नहीं है कि यह कार्य स्मार्ट सिटी योजना के तहत चल रहा है या गंगा सफाई योजना के या फिर किसी अन्य अभिकरण द्वारा। कहीं कोई बोर्ड नहीं, काम का कोई इश्तहार नहीं। सामाजिक कार्यकर्ता किशोर कोडवानी लंबे समय से अदालतों और राष्ट्रीय हरित अधिकरण में नदी के पुनर्जीवन की लड़ाई चल रहे हैं। लेकिन इस दिशा में सरकारों और स्थानीय निकायों की उदासीनता के कारण कुछ खास प्रगति नहीं हो रही है। हरसिद्धि पुल, मच्छी बाजार पुल, गणगौर घाट, जयराम कालोनी पुल, कर्बला (धोबी घाट) पुल, लालबाग पुल, चंपा बावडी, चोइथराम पुल (अमितेष नगर), नहर भंडारा, बद्रीबाग आदि स्थल खुद अपनी कहानी बयान करते हैं। करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी नदी कहीं दिखाई नहीं देती। दिखता है तो बस अतिक्रमण, अवैध इमारतें, पशुबाड़े, गंदगी, मलबा, गाद और ड्रेनेजों के खुले पाइप। हरसिद्धि पुल पर पुश्ता दीवार के सहारे नगर निगम ने पूरा बाजार ही खड़ा कर दिया है। कृष्णपुरा पुल पर भी नगर निगम ने बड़ा बाजार नदी के किनारे अतिक्रमण कर बना दिया है।
थोड़ा-बहुत कामकाज कहीं दिखता भी है तो उसका मकसद नदी की स्थिति में सुधार करना नहीं है। बल्कि कृत्रिम झील, सुंदरीकरण वगैरह का पूरा जोर इसके व्यावसायिक उपयोग तक सीमित है। जितनी राशि अब तक खर्च की जा चुकी है, उतने में खान नदी की गरिमा बहाल हो सकती थी, लेकिन लालफीताशाही और सरकारी अदूरदर्शिता ने सब कुछ बिगाड़ दिया। नदी की ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ के बजाय पुनर्जीवन ही एकमात्र विकल्प है।
इसके लिए उद्गम स्थल से संधि स्थल तक वैज्ञानिक रूप से प्रयास जरूरी है। सबसे पहले औद्योगिक अवशिष्ट और गंदगी को नदी में जाने से रोकना और प्रदूषण फैलाने वालों को दंडित करना होगा। साथ ही, नदी के मध्य और किनारों के सारे अतिक्रमण हटाने होंगे। आखिर में गाद हटा कर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आगे से इस तरह कचरा एकत्र न होने पाए। अन्यथा पहली बारिश में ही सब निरर्थक हो जाएगा। पहाडिय़ों और तालाबों के अतिरिक्त जल को नदी तक पहुंचाने के अलावा जल शुद्धीकरण यंत्र लगाना भी जरूरी है। किनारों का प्राकृतिक स्वरूप बचाने के लिए कटाव रोकने वाले पेड़-पौधे रोपकर ही इसे वास्तविक नदी के रूप में लौटाया जा सकता है। विभिन्न विभागों के बीच जिस तरह तालमेल का अभाव देखा जा रहा है, उससे निपटने का एक ही तरीका है कि कोई स्वतंत्र और सर्वाधिकार संपन्न अभिकरण गठित हो, जिसकी देखरेख में नदी को पुनर्जीवित करने का कामकाज आगे बढ़े। नागरिक समाज को योजना के प्रावधान, बजट आदि की नियमित जानकारी भी दी जाए, ताकि पारदर्शिता बनी रही और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लग सके। अगर खान नदी बहाल हो जाए और तालाबों का संरक्षण हो जाए तो नलकूपों को भी जीवनदान मिल जाएगा। इस क्षेत्र में एक कहावत है कि ‘मालव माटी गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर’। आज पग-पग नीर वाला यह इलाका पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर रहा है। अगर खान नदी की पुकार सुन ली जाए और इसे इसका ‘मानवाधिकार’ वापस मिल जाए,तो कहने की जरूरत नहीं, यह कहावत एक बार फिर चरितार्थ हो सकेगी।