धर्म और सनातन धर्म: एक विश्लेषण
Dr D K Garg।
भाग 1
यदि किसी शब्द की परिभाषा में सबसे ज्यादा तुक्केबाजी हुई है तो वह है धर्म,कोई भी अल्प ज्ञानी धर्म क्या है अपने हिसाब से बताना सुरु कर देता है। इस कार्य में हजारों कथा वाचक, साधु महात्मा,पढ़े लिखे प्रतिष्ठित लोग,और स्वयं को धर्म गुरु सद गुरु,, श्री श्री 1008,गुरु मां,जगत गुरु आदि जैसे अलंकारों की माला पहने लोग भी शामिल हैं जिनका स्वाध्याय से , ऋषि कृत ग्रंथो से कोई लेना देना नहीं।मेरा एक मित्र जज साब का बेटा है, उसको हिन्दी नही आती इसलिए धर्म ग्रंथ का स्वाध्याय नहीं किया लेकिन जब देखो टूटी फूटी अंग्रेजी में धर्म की व्याख्या करने लगता है,किसी की नही सुनता।यानी धर्म की गलत व्याख्या के लिए अहंकार,पैसा और पद भी कही आड़े आता है।
आइए इस पर विचार करते हैं।
धर्म विश्लेषण—
मनुष्य जीवन के 4 पुरुषार्थ माने गए हैं। जिनका नाम है धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। लेकिन इन चारों का उद्देश्य क्या है?
इनमे धर्म का उद्देश्य मोक्ष है, अर्थ नहीं। धर्म के अनुकूल आचरण करो तो किसके लिए? मोक्ष के लिए। धर्म को धारण करो, अर्थ अर्जित करो, अर्थ के द्वारा अपनी कामनाएं पूर्ण करो और फिर योग साधना करते हुए परमात्मा को प्राप्त करो। तभी मानव जीवन का लक्ष्य पूरा हो सकता है। इसलिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही मानव जीवन के आधार हैं।
धर्म किसे कहते हैं? इसका सीधा सा उत्तर है जो अधर्म के विपरीत हो वह धर्म कहलायेगा। धर्म क्या हैं?
१. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। “धार्यते इति धर्म:” अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यहभी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं।
२. जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण हैं लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं।
३. वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं। जैसे जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं और प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं.
४. महाभारत में भी लिखा हैं
धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा: अर्थात
जो धारण किया जाये और जिससे प्रजाएँ धारण की हुई हैं वह धर्म हैं।
५. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महा मुनि कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया हैं
यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:
अर्थात जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म हैं।
६स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म की परिभाषा –
“जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार हैं उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।‘’-सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास
धर्म की परिभाषाः– जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्ष पात रहित न्याय सर्वहित करना है, जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए मानने योग्य है, उसे धर्म कहते हैं।इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।- सत्यार्थ प्रकाश
इस विषय को विस्तार देते हुए मनु ने मार्गदर्शन किया है और ये स्पष्ट भी किया है जो धर्म के १० दस सूत्र बताये है इनमे किसी एक सूत्र को भी छोड़ने की गुंजाइश नहीं है , अन्यथा अधर्म की दोषी हो जाएंगे।सभी सूत्रों का समग्रता से पालन करना ही धर्म होगा।
मनु के बताये हुए धर्म के दस-दस सूत्रः– धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।(मनुस्मृति ६.९२)
धर्म के दस सूत्र विस्तार से निम्न हैं –
• पहला लक्षणः- सदा धैर्य रखना,
• दूसरा:- (क्षमा) जो कि निदा, स्तुति, मान, अपमान, हानि, लाभ आदि दुःखों में भी सहनशील रहना
• तीसराः- (धर्म) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे ,
• चौथा : – चोरीत्याग अर्थात् बिना आज्ञा वा छल कपट विश्वास घात व किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से पदार्थ का ग्रहण करना चोरी और इसको छोड देना साहुकारी कहलाती हैं।
• पाचवॉ:- राग, द्वेष, पक्षपात छोड़ के भीतर और जल मृत्तिका मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी,
• छठा:- अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म ही में सदा चलाना,
• सातवां:- मादक द्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ दुष्टों का संग आलस्य प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन सत्पुरूषों का संग योगाभ्यास से बुद्धि बढाना,
• आठवांः- (विद्या) पृथ्वी से लेके परमेश्वर प्रयत्न यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना सत्य जैसा आत्मा में, वैसा मन में, जैसा वाणी में, वैसा कर्म में, वर्तना इससे विपरीत अविद्या हैं।
• नौवा : – (सत्य) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना, वैसा ही करना भी तथा
• दशवां:-(अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना धर्म का लक्षण हैं।
दूसरे स्थान पर कहा हैं आचार:परमो धर्म १/१०८ अर्थात सदाचार परम धर्म हैं प्रश्न: धर्म का भी कोई वर्गीकरण हो सकता है ? यानि धर्म कितने प्रकार का होता है ?
इसका सीधा उत्तर ये है की जैसे सत्य के टुकड़े नहीं हो सकते वैसे धर्म का भी कोई विभाजन नहीं हो सकता। परन्तु ,क्योकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इसका जन्म कर्म करने के लिए हुआ है इसलिए व्यावहारिक रूप से देखा जाये तो धर्म कई प्रकार के होते है :- १, वैयक्तिक धर्म २, पारिवारिक धर्म ३, सामाजिक धर्म ४ , राष्ट्रीय धर्म ।
१ वैयक्तिक धर्म— जिसका हर प्राणी के साथ सम्बन्ध हो या जिसके पालन करने से मनुष्य की हर तरफ उन्नति हो सके, जिसको अपनाने से मनुष्य सभी दुखों से छूट कर – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकें
मनु महाराज द्वारा धर्म के दश लक्षण :- धृति, क्षमा, दम: , अस्तेयम्, शौचम्, इन्द्रियनिग्रह: ,धी और सत्यम
उपरोक्त सभी वैयक्तिक धर्म के अन्तर्गत आते हैं ।