Dr.D.K.GARG
लेख बड़ा है इसलिए दो भाग है. –
बयान– संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक हैं. उनमें कोई जाति, वर्ण नहीं है., लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई, वो गलत था.
विशलेषण-
इस विषय में मोहन भागवत जी का कथन बिलकुल ठीक है कि ईश्वर ने ऐसी कोई जाति व्यवस्था नहीं बनाई जैसी की वर्तमान में दिखाई पड़ती हैं। परन्तु मोहन भागवत का बयान शास्त्रों के अनुसार नही है क्योंकि जाति ईश्वर ने बनाई है जो जन्म से मृत्यु तक एक ही रहती है और वर्तमान में प्रचलित जाति प्रथा मुर्ख पंडितो ने बनाई है क्योंकि विद्वान पंडित तो धर्म ग्रंथ में पारंगत होता है और समाज के विभाजन का काम नही करता बल्कि अपने ज्ञान से समाज में एकता और समरसता का कार्य करता है।शायद इसीलिए विद्वान पंडित नाराज है ।
हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थ रामायण महाभारत या अन्य ग्रंथों में भी इस तरह से प्रथम नाम -मध्य नाम- कुलनाम लगाने का कोई चलन नहीं पाया जाता है। और न ही आर्य शब्द किसी प्रकार की वंशावली को दर्शाता है।
.जाति क्या है?
जाति का अर्थ जो आज प्रचलन में है ये गलत है। जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण | न्यायदर्शन में जाति की परिभाषा
न्यायदर्शनकार गौतम मुनि जी लिखते हैं, ‘‘आकृतिरितिलिाख्या’’ (न्याय.२.२६८) इस पर वात्स्यायन मुनि भाष्य में कहते हैं।
‘यथा जाति जाति लिन्गानि च प्रत्याख्यायन्ते तामाकृतिं विद्यात्’
जिससे जाति और जाति के चिह्न बताये जाते हैं उसे आकृति कहते हैं। अब स्वभाविक रुप से प्रश्न उठता है कि जाति किसे कहते हैं? तो उत्तर में कहा गया है- समानप्रसवात्मिका जातिः(न्या. २/२/१९) इस पर भी वात्स्यायन मुनि भाष्य में कहते हैं- या समानां बुद्धिम प्रसूते भिन्नेष्वधिकरणेषु,यया बहूनीतरेतरतो न व्यावर्तन्ते, योऽर्थोऽनेकत्र प्रत्ययानुवृत्तिनिमित्तं तत् सामान्यम्। यच्च केषाघिद भेदं कुतश्चिद्भेदं करोति तत् सामान्य विशषा जातिरिति।
अर्थात् भिन्न-भिन्न वस्तुओं में समानता उत्पन्न करने वाली जाति है। इस जाति के आधार पर अनेक वस्तुएँ आपस में पृथक् पृथक’ नहीं होतीं अर्थात्-एक ही नाम से बोली जाती हैं। जैसे गौएँ पृथक् कितनी भी हो तो भी सबको गौ कहते हैं। यह एकता जाति के कारण ही उत्पन्न हुई जाति भी दो प्रकार की होती है-एक सामान्य दूसरी सामान्य-विशेष जो अनेक वस्तुओं में एक आकार की प्रतीत होती है वह सामान्य जाति है, जैसे पशु जाति सामान्य है।
हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है | एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियां आपस में संतान उत्त्पन्न कर सकती हैं | अतः जाति ईश्वर निर्मित है। जाति का अर्थ होता है। जो दो लोग मिलके एक संतान को जन्म दे सकते है। वो समान जाति के होते है। जाति का सीधा सीधा रिश्ता जन्म से जुड़ा है। उदाहरण: जैसे एक लोमड़ी और एक शेर मिल के एक बच्चा नहीं पैदा कर सकते। तो वो दोनों अलग अलग जाति के होते है। लोमड़ी की जाति अलग है और शेर की जाति अलग है। उसी प्रकार एक आदमी और एक औरत एक जाति के माने गए है। और जो लोग ब्रह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, आदि को जाति समझता है। वो गलत है।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती है। क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट (इन्द्रियादी) का भेद है। और न ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है।
जाति (caste) की अवधारणा का तनिक अंश भी वैदिक संस्कृति में नहीं मिलता। आजकल जो जाति प्रमाण पत्र जैसे दलित , उच्च जाति ,निम्न जाति आदि दिए जाते है। ये राजनेताओ की और गलत सविंधान की त्रुटि है। हमारे धर्म शाश्त्रो में दलित शब्द कही नहीं है। और इस तरह की राजनीती देश को तोड़ने की, सनातन धर्म की छवि ख़राब करने की साजिश ही है।
जाति की उपजाति नर और मादा है. ये भी दो है.
वर्ण व्यवस्था क्या है?
वर्ण एक संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है। गुण, रंग और प्रवत्ति होता है। मनुष्यों को उनके कार्य के अनुसार इन्हे चार भागों में बाटा गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
जिसमे जो लोग पूजा-पाठ व अध्ययन-अध्यापन आदि करते थे। उन्हें ब्राह्मण माना गया और शासन-व्यवस्था तथा युद्ध कार्यों में संलग्न थे। उन्हें क्षत्रिय माना गया और जो लोग व्यापार करते थे वो वैश्य की श्रेणी में आये और अंत में श्रमकार्य व अन्य कार्य करने वाले लोग शूद्र की श्रेणी में आये.
वर्ण को इसलिए बनाया गया जिसके द्वारा लोगों को उनके गुण, कर्म और स्वाभाव के आधार पर अधिकार दिया जा सके। वर्ण को मनुष्य के वंश के अनुसार नहीं कर्म के अनुसार बनाया गया है। जिसका मतलब ये था कि जब कोई व्यक्ति शूद्र के घर में जन्म लेके भी वो कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य है। तो वो शूद्र नहीं बल्कि कर्म द्वारा बना वर्ग माना जायेगा।
ब्राह्मण कौन : वर्णों को जन्म आधारित बताने के लिए हमारे शाश्त्रो के साथ बहुत बड़ा छल हुआ है। शाश्त्रो की गलत व्याख्या करके झूट लिखा गया की ब्राह्मण का जन्म ईश्वर के मुख से हुआ क्षत्रिय ईश्वर की भुजाओं से जन्में, वैश्य जंघा से तथा शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुए यह सिद्ध करने के लिए पुरुष सूक्त के मंत्र प्रस्तुत किये जाते है। इस से बड़ा छल नहीं हो सकता क्योंकि
(a) वेद ईश्वर को निराकार और अपरिवर्तनीय वर्णित करते है। जब परमात्मा निराकार है। तो इतने महाकाय व्यक्ति का आकार कैसे ले सकता है। की अपने मुख से ,पैरो से ,जंघा से मनुष्य पैदा कर दे। (देखें यजुर्वेद ४०.८)
(b) वेदों के कर्म सिद्धांत को बताया गया है। की मनुष्य अपने कर्म से ही महान बनता है। और कर्मो का फल इस जन्म में भी और अगले जन्म में भी मिल सकता है। जिसके अनुसार शूद्र परिवार का व्यक्ति भी अपने कर्मों से अगला जन्म किसी राजपरिवार में पा सकता है। परन्तु यदि शूद्रों को पैरों से जन्मा माना जाए तो वही शूद्र पुनः ईश्वर के हाथों से कैसे उत्त्पन्न होगा
(c) आत्मा अजन्मा है। और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता | यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर मिलता है। तो क्या वर्ण ईश्वर के शरीर के किसी हिस्से से आता है। आत्मा कभी ईश्वर के शरीर से जन्म तो लेता नहीं तो क्या ऐसा कहा जा सकता है। कि आत्मा का शरीर ईश्वर के शरीर के हिस्सों से बनाया गया। यदि परमात्मा शरीर मान ही लें तो भी यह असंभव है। किसी भी व्यक्ति के लिए की वह परमात्मा के शरीर से जन्म ले।
(d) जिस पुरुष सूक्त का हवाला दिया जाता है। वह यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय में है साथ ही कुछ भेद से ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी उपस्थित है। यजुर्वेद में यह ३१ वें अध्याय का ११ वां मंत्र है। इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए इससे पहले मंत्र ३१.१० पर गौर करना जरूरी है। वहां सवाल पूछा गया है। मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है। ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर है।
यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से “जन्म लेता” है। … मंत्र यह कह रहा है। की ब्राह्मण ही मुख है। क्योंकि अगर मंत्र में “जन्म लेता” यह भाव अभिप्रेत होता तो “मुख कौन है?” इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी |
( e) वैदिक संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः शूद्र ही माना जाता है | उसके द्वारा प्राप्त शिक्षा के आधार पर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण निर्धारित किया जाता है। शिक्षा पूर्ण करके योग्य बनने को दूसरा जन्म माना जाता है | ये तीनों वर्ण ‘द्विज’ कहलाते है। क्योंकि इनका दूसरा जन्म (विद्या जन्म) होता है। किसी भी कारणवश अशिक्षित रहे मनुष्य शूद्र ही रहते हुए अन्य वर्णों के सहयोगात्मक कार्यों को अपनाकर समाज का हिस्सा बने रहते हैं |
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह चार वर्ण वास्तव में व्यक्ति को नहीं बल्कि गुणों को प्रदर्शित करते है। प्रत्येक मनुष्य में ये चारों गुण (बुद्धि, बल, प्रबंधन, और श्रम) सदा रहते है। ब्राह्मण का अर्थ है। ज्ञान संपन्न व्यक्ति और जो शिक्षा या प्रशिक्षण के अभाव में ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य बनाने की योग्यता न रखता हो – वह शूद्र है।
शूद्र भी अपने प्रयत्न से ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करके वर्ण बदल सकता है
ब्राह्मण वर्ण को भी प्राप्त कर सकता है। अतः यदि ब्राह्मण पुत्र भी अशिक्षित है। तो वह शूद्र है। और शूद्र भी अपने निश्चय से ज्ञान, विद्या और संस्कार प्राप्त करके ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य बन सकता है। इस में माता-पिता द्वारा प्राप्त जन्म का कोई संबंध नहीं है।
(f) वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित है। जैसे
(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए ।
वैदिक काल गुरुकुल ही शिक्षा का आधार होते थे और एक दुसरे को आर्य कहकर सम्बोधित किया जाता था।इसलिए हमारे देश का नाम भी आर्यावर्त था। समाज का वर्जीकरण कर्म आधारित था।
इस अलोक में ये स्पष्ट है कि जाति प्रथा वैदिक काल से नही है ।
आर्य शब्द किसी गोत्र या उपनाम से भी सरोकार नहीं रखता .
गोत्र का वर्गीकरण तो नजदीकी संबंधों में विवाह से बचने के लिए किया गया था। प्रचलित कुलनामों का शायद ही किसी गोत्र से सम्बन्ध भी हो।
वैश्य कौन – मनुस्मृति मे लिखा है
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।। मनु [1/10]||
पशु रक्षा , पशु वर्धन करना , दान , विद्या धर्म की वृद्धि के लिए व्यय करना, अग्नि होत्र यज्ञ करना , वेदादि शास्त्र पढ़ना , व्यापार करना, अधिक ब्याज और ज्यादा विक्रय लाभ नहीं लेना , खेती करना ये सभी वैश्य के गुण है।
शूद्र यानि सेवा कार्य करने वाला सेवक कौन :
वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है। कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है। और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है।
वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है। (तपसे शूद्रम-यजु .३०.५), और इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को सम्पूर्ण मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है |
मनुस्मृति मे लिखा है–
एकमेव हि शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।। मनु° [1/11]।।
शूद्र को योग्य है निंदा , ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़कर ब्राह्मण क्षत्रिय और वेश्यों की सेवा यथावत करना और इसमें अपना जीवन यापन करना यही एक शूद्र का कर्म गुण है।
वर्तमान परिवेश में शूद्र और वैश्य मे वर्गीकरण करना थोड़ा मुश्किल है की शूद्र कौन और वैश्य कौन ? क्योकि वैश्य का कार्य व्यावसाय या पेशा है। इसके द्वारा सेवा है और शूद्र का सेवा कार्य भी अब व्यवसाय या पेशा का रूप ले चूका है। इसको समझने के लिए ये एक मापदण्ड बनाया जा सकता है।–
“जो कार्य पूरी तरह से शारीरिक श्रम द्वारा यानी 75% से ज्यादा श्रम हो वह शुद्र के कार्य की श्रेणी मे आएगा.’’ जैसे कि –
• धोबी जो सिर्फ कपड़े धोने का काम कर्ता है तो शूद्र यानि सेवा कार्य करने वाला सेवक, धोबी जिसका ड्राई क्लीनिंग का काम है, वह तकनीकी है ,व्यवसाय है इसलिए धोबी यहाँ पर वैश्य है
• मिस्त्री जो भवन बनाने वाला है ,बारीकी से भवन निर्माण करता है वह वैश्य है क्योकि शरीर के साथ मष्तिष्क भी उसका उसका सहायक जो सिर्फ गारा , सामान इत्यादि देने का कार्य करता है ,वह सेवक है यानि शूद्र ।
• मोची यानी चर्मकार (चमार) – सिर्फ बूट पोलिश और सिलाई करता है, जिसके लिए अल्प बुद्धि की जरुरत होती है वो सेवक है और यदि वह बूट का निर्माण भी कर्ता है. तो ये वैश्य की श्रेणी में आएगा।
क्रमशः –