यजन भजन के योग तै, भक्ति चढ़ै परवान
बिखरे मोती-भाग 201
यहां तक कि चोरी और डाका डालने में निष्णात भी हम और हमारा समाज बनाता है। फिर मंदिर में मायावी (नकली) पूजा करने का ढोंग भी उन्हें घुट्टी में हम ही पिलाते हैं। कैसी विडंबना है? एक तरफ तो विकृत मानसिकता के लोगों की भीड़ बढ़ रही है, जबकि दूसरी तरफ नकली धार्मिक होने वालों की मंदिर में कतार बढ़ रही है। अरे, जरा सोचो भाई! बच्चा तो स्वाभाविक रूप से ही धार्मिक था। उसे झूठा, बेईमान, कपटी (फरेबी) क्रूर, चोर, डकैत, जेबकतरा, अत्याचारी, बलात्कारी, दुराचारी, व्यग्रता और उग्रता के दुर्गुण किसने दिये? इसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं, हमारे समाज का विषाक्त परिवेश उत्तरदायी है। यदि हमें आगे आने वाली पीढ़ी को सुधारना है तो व्यक्ति के सामने अपने जीवन का उच्चादर्श प्रस्तुत करना होगा, क्योंकि :-
मेरे हृदय के कोने में,
छिपा मासूम सा बच्चा।
बड़ों की देखकर दुनिया,
बड़ा होने से डरता है।।
सारांश यह है कि बच्चों के सामने बड़ों को उच्चादर्श प्रस्तुत करने चाहिएं, क्योंकि प्रत्येक बच्चा अनुकरण से सीखता है। यदि आपने बच्चों के सामने उच्चादर्श प्रस्तुत नहीं किये तो बच्चा शनै: शनै: अपराध की दुनिया में चला जाएगा, जिससे जीवन पर्यन्त वह स्वयं भी परेशान रहेगा और आपको भी परेशान करेगा। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी संतान के प्रति सर्वदा सचेत रहे, सतर्क रहे क्योंकि मनुष्य की सबसे बड़ी दौलत उसकी औलाद होती है।
यजन भजन के योग तै,
भक्ति चढ़ै परवान।
मन अपने को साथ ले,
स्वत: मिलै भगवान ।। 1135 ।।
व्याख्या :-यजन से अभिप्राय ‘पूजा’ से है, अर्थात ऐसे कार्य करना जिनसे परमपिता परमात्मा प्रसन्न होते हैं। जैसे पुण्यार्जन करना यदि कोई व्यक्ति अपने दैनिक कार्य जीविकोपार्जन के लिए पवित्रता से करता है, ईमानदारी से करता है-तो वह कार्य भी पूजा कहलाता है। इसीलिए अंग्रेजी में कहावत है -ङ्खशह्म्द्म द्बह्य 2शह्म्ह्यद्धद्बश्च अर्थात ‘काम ही पूजा है।’
भजन से अभिप्राय प्रभु के जाप से है, अर्थात जिसके भाव में भी भगवान रचबस गये हैं। जो ऐसा मानता है कि मैं भगवान का हूं, भगवान मेरे हैं, जो कण-कण में परमात्मा का दर्शन करता है, इस अद्वैत भाव से ओत-प्रोत रहता है, प्राणियों के कल्याण के लिए सर्वदा तत्पर रहता है, यथाशक्ति उनकी सहायता करता है, जिसका मन भगवान के मन वाला हो अर्थात उसके गुणों वाला हो यानि कि उसके आचरण में परमात्मा के दिव्य गुण भासने लगें, तो समझ लीजिये कि पूजा (यजन) और प्रार्थना (भजन) का समन्वय हो गया है, भक्ति परवान चढ़ गयी है अर्थात उत्कर्ष पर पहुंच गयी है। जिस प्रकार औषधि और पथ्य (परहेज) के समन्वय से आरोग्य (स्वास्थ्य) मिलता है, ठीक इसी प्रकार यजन-भजन के योग से अर्थात भक्ति और भलाई के योग से परमपिता परमात्मा भक्त को स्वत: ही ऐसे प्राप्त हो जाते हैं जैसे अथाह जलराशि वाली नदियां स्वत: ही समुद्र को प्राप्त हो जाती हंै, उथले जल वाली नहीं। इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास कितना सुंदर कहते हैं-
दरिया दूषण दास में, नहीं राम में दोष।
जन चालै एक पावड़ो, हरि चलै सौ कोस।।
क्रमश: