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पूजनीय प्रभो हमारे……

पूजनीय प्रभो हमारे……भाग-74

हाथ जोड़ झुकाये मस्तक वन्दना हम कर रहे

गतांक से आगे….
अत: एक प्रकार से नमस्ते दो विभिन्न आभामंडलों का प्रारंभिक मनोवैज्ञानिक परिचय है, जिसमें दो भिन्न-भिन्न आभामंडल कुछ निकट आते हैं, और परस्पर मित्रता का हाथ बढ़ाने का प्रयास करते से जान पड़ते हैं। इसीलिए कहा गया है :-
अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्घोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वद्र्घन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।
अर्थात अभिवादन करने का जिसका स्वभाव और विद्या वा आयु में वृद्घ पुरूषों का जो नित्य सेवन करता है, उसकी अवस्था, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों की नित्य उन्नति हुआ करती है। इसलिए ब्रह्मचारी को चाहिए कि आचार्य, माता, पिता, अतिथि, महात्मा आदि अपने बड़ों को नित्य नमस्कार और सेवन किया करें।
हमारे यहां कुछ लोग शूद्रों को उपेक्षित करके देखने वाले रहे हैं। उधर जो लोग वर्ण-व्यवस्था को जाति व्यवस्था का आधार मानते हैं, वे वर्णव्यवस्था को कोसते रहते हैं कि यह बड़ी निर्दयी है। क्योंकि इस व्यवस्था में शिर को ब्राह्मण, भुजाओं को क्षत्रिय और उदर को वैश्य की संज्ञा देकर जहां इनका महिमामंडन किया गया है, वहीं शूद्रों अर्थात पैरों की उपेक्षा की गयी है। परंतु भारत की संस्कृति के सकारात्मक पक्षों को स्पष्ट न करके उसकी परम्पराओं के नकारात्मक और विध्वंसात्मक अर्थ निकाले गये हैं। हमने जहां यह सोचा है या प्रचारित -प्रसारित किया है कि वैदिक संस्कृति में शूद्रों की दयनीय स्थिति है, वहीं यह नहीं सोचा और ना ही प्रचारित- प्रसारित किया कि केवल वैदिक संस्कृति ही है जो अभिवादन के समय अपने ब्राह्मण अर्थात सिर को, अपने क्षत्रिय अर्थात भुजाओं को और अपने वैश्य अर्थात छाती से लेकर उदर तक के क्षेत्र को एक साथ शूद्र अर्थात पैरों के सामने झुका देती है। मानो पैरों की सेवा भावना की बार-बार क ृतज्ञता ज्ञापित करते हुए आरती उतार रही है कि यदि आप ना होते तो हमारा अस्तित्व भी नगण्य ही रहता।
कृतज्ञता ज्ञापन का इससे उत्तम ढंग कहीं किसी और देश में नहीं है। इसीलिए ‘मेरा भारत महान है।’ इसकी महानता की वास्तविकता को उन लोगों को समझाने की आवश्यकता है जिन्होंने इसकी सदपरम्पराओं का गुड़-गोबर करते हुए अर्थ का अनर्थ किया है। क्या आप सोच सकते हैं कि यदि सिर से सिर भिड़ जाए तो क्या होगा? और यदि सिर पैरों से भिड़ जाए अर्थात उन पर झुक जाए तो क्या होगा? निश्चय ही इन दोनों स्थितियों के अर्थ समझने योग्य हैं।
महात्मा आनंद स्वामी जी के वक्तृत्व की अद्भुत शैली थी। कथा कहानियों के माध्यम से वह बड़ी से बड़ी बात को भी बड़ी सरलता से कहने के अभ्यासी थे। वे लिखते हैं-”महाभारत में अर्जुन की कथा आती है कि वे यज्ञ कराना चाहते थे। पता लगा कि एक बहुत विद्वान ब्राह्मण एक जंगल में पत्तों की कुटिया बनाकर रहते हैं। उनके पास अपने कर्मचारी भेजे। उन कर्मचारियों ने ब्राह्मण से कहा-”महाराज! अर्जुन एक बड़ा यज्ञ कराना चाहते हैं। आप चलिये आपका सम्मान होगा, बहुत बड़ी दक्षिणा मिलेगी।”
ब्राह्मण ने सुना तो उत्तर नहीं दिया-आंखें नीची कर लीं। उन लोगों ने कहा-‘महाराज अर्जुन ने आपके लिए रथ भेजा है, इसमें बैठिये और साथ चलिये।’ ब्राह्मण का सिर और नीचा हो गया। वे लोग बोले-”आप तो उत्तर ही नहीं देते। अर्जुन आपको मुंह मांगी दक्षिणा देंगे। जो आप मांगेंगे वही मिलेगा।”
और ब्राह्मण की आंखों में आंसू बहने लगे। वह फूट-फूटकर रोने लगा। अर्जुन के कर्मचारी चकित थे कि अब क्या करें? वापस आये। अर्जुन को सारी बात सुनाई तो अर्जुन भी रो पड़े।
कर्मचारियों ने पूछा-”महाराज! आप रो क्यों रहे हैं?” अर्जुन ने उत्तर नहीं दिया। उन कर्मचारियों ने सोचा -यह बात क्या है? क्या हमारी वाणी में बिच्छू बैठा है कि जो उसे सुनता है वही रो पड़ता है, चलो भगवान कृष्ण के पास, वे इस समस्या का समाधान देंगे।
बस वे पहुंचे श्रीकृष्ण के पास। उन्हें उस ब्राह्मण की बात सुनाई, अर्जुन की भी और उनके रोने की भी। भगवान कृष्ण पहले मुस्कराये, फिर वे भी रो पड़े। कर्मचारी चकित थे कि यह विचित्र तमाशा है। बोले-”महाराज! हम आपसे इस समस्या को समझने आये हैं और आप भी रो रहे हैं?” भगवान कृष्ण बोले-‘देखो! वह ब्राह्मण इसलिए रोया कि आपने उससे दक्षिणा की बात कह दी। उसने समझा कि आप उसे लालची समझते हैं। अर्जुन इसलिए रोया कि शायद मेरे अन्न में पाप है। इसलिए वह विद्वान ब्राह्मण उसे स्वीकार करना नहीं चाहता और मैं….मैं इसलिए मुस्कराया कि आज जबकि कलियुग आरंभ हो चुका है, आज भी ऐसे ब्राह्मण और क्षत्रिय विद्यमान हैं और रोया इसलिए कि आगे चलकर यह अवस्था रहेगी नहीं। ब्राह्मण बिगड़ जाएंगे, क्षत्रिय भी बिगड़ जाएंगे।
सबके मन में लोभ जाग उठेगा। तप और त्याग की भावना रहेगी नहीं। लोग अपनी संस्कृति को भूल जाएंगे। अपनी जाति को भूल जाएंगे, देश को और मानवता को भूल जाएंगे। तप के महत्व को भूल जाएंगे। ….और आज क्या हो गया है? आज इसके ठीक विपरीत हवा बह रही है, जो कृष्ण जी ने कहा था वही हो रहा है।
क्रमश:

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