वेदों में नारी का सम्मान
वेद ने नारी को अप्रतिम और अतुलित सम्मान दिया है। इसका कारण यही है कि नारी जगन्नियंता ईश्वर की विधाता और सर्जनायुक्त शक्ति का नाम है।
ऋग्वेद (1/113/12) में कहा गया है-
यावयद्द्वेषा ऋतपा ऋतेजा: सुम्नावरी सूनृता ईरयंती।
सुमंगलीर्विभूति देवती तिमिहाद्योष: श्रेष्ठतया व्युच्छ।।
अर्थात-”हे श्रेष्ठतम ऊषा! तू अपनी छटा को विकीर्ण कर तमोजाल का उद्भेदन कर उदित होकर मनुष्य के मानस से द्वेष को दूर कर, ऋत का पालन कर, ऋत में रम, सुख का सर्जन कर, प्रिय सत्यवाणी को प्रेरित कर, हमारे लिए सुमंगली बन और देवत्व को अवलंब दे।”
इस मंत्र की व्याख्या करते हुए रामनाथ वेदालंकार ने लिखा है कि हे राष्ट्र की श्रेष्ठतम नारी तुम भी ऊषा के समान अपने विद्या प्रकाश को सर्वत्र उद्भासित करो। अविद्या, राग, द्वेष आदि के मोहजाल का अपनोदन करो, निज मानस और जनमानस से द्वेष वृत्तियों एवं द्वेषपूर्ण चरित्रों का अपसारण करो, तुम भी ऋतमयी बनो, ऋत का संरक्षण करो, संसार में दिव्य आनंद को उत्पन्न करो, प्रिय सत्य वाणी रूप सुनृता का प्रयोग करो, सुमंगल का सर्जन करो, विद्वज्जनों से अनुमोदित नीति का अवलंबन करो।
श्री वेदालंकार जी ऋग्वेद (1/123/13) के इस मंत्र को प्रस्तुत करते हैं :-
ऋततस्थरश्मि मनु यच्छ माना भद्रं भद्रं क्रतु मस्मासु धेहि।
उषो अद्य सुहवा व्युच्छास्मासु रायो मघवस्तु च स्यु।।
अर्थात ”हे उषा! सत्य की रश्मि को पकड़े हुए तू हमें भद्र ही भद्र संकल्पों, ज्ञानों एवं कर्मों में प्रेरित कर। हे सुहवा उषा! तू अपने समान हमारे अंत:करणों को भी उद्भाषित कर। हे उषा! तू राष्ट्र के धनिकों को ही नहीं-किंतु हम सभी को ऐश्वर्यों से भरपूर कर।”
वेदालंकार जी इस मंत्र की व्याख्या करते हुए स्पष्ट करते हैं कि राष्ट्र नारी तुम भी सत्य की रश्मि को पकडक़र अपनी संतान को भद्र-भद्र ज्ञानों, भद्र -भद्र संकल्पों और भद्र -भद्र कर्मों में प्रेरित करो। हे नारी सब राष्ट्रवासी तुम्हारा सुमधुर आहवान कर रहे हैं। तुम स्वयं भी दीप्ति से उदभासित होओ और हमें भी उदभासित करो। ऐसा प्रयत्न करो कि हम राष्ट्र के धनिक वर्ग सब भौतिक एवं दिव्य संपदाओं के स्वामी बनें।
हे नारी! राष्ट्र की उज्ज्वलता तुम पर निर्भर है। तुम ही राष्ट्रोत्थान की शुभ्र पताका हो, तुम ही राष्ट्र का गौरव हो। हे नारी तुम प्रकाश को ही दिव्य रेखा हो। तुम मोहमय कृष्ण मेघों में दमकने वाली प्रांजल दामिनी हो, तुम अज्ञान एवं दुख दारिद्रय की निविड निशा को चीरने वाली उषा की किरण हो। हे नारी! तुम यशोमयी हो, गरिमामयी हो, सत्यमयी हो, सौंदर्यमयी हो। तुम प्रकाशवती हो। तुम्हारा शत शत अभिनंदन! तुम्हें शत-शत वंदन।
वैदिक संस्कृति ने नारी को इतना महिमामंडित किया है। इसके विपरीत मुसलमानों के द्वारा उसे केवल ‘पांव की जूती’ या विषय भोग की वस्तु मानकर संतानोत्पत्ति के लिए ‘खेती’ की संज्ञा दी गयी है। दोनों संस्कृतियों में और उनके चिंतन में आकाश-पाताल का अंतर है। इसलिए एक वैदिक हिंदू धर्मी नारी के दिव्य स्वरूप का पुजारी मिलेगा और एक विपरीत धर्मी व्यक्ति उसे केवल आशिकी नजरों से देखेगा।
औरंगजेब और बेगम गुलनार
दुर्गादास राठौड़ और मेवाड़ाधिपति महाराणा राजसिंह दुर्गादास राठौड़ ने वेद के इस चिंतन को अपने जीवन के कृतित्व से सत्य सिद्घ करके दिखाया। वह उदयपुर में बालक महाराजा अजीतसिंह को छिपाये हुए थे। जब औरंगजेब को यह पता चला कि दुर्गादास और बालक महाराजा अजीतसिंह उदयपुर में है तो उसने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के समय औरंगजेब की प्राणप्रिय बेगम गुलनार भी साथ में थी। गुलनार सौंदर्य की प्रतिमा थी और अपने शहंशाह की अत्यंत प्रिय थी, इसीलिए वह औरंगजेब के साथ मेवाड़ आयी थी। वह देखना चाहती थी कि औरंगजेब कैसे महाराजा अजीतसिंह और दुर्गादास राठौड़ का अंत करता है? उसे अपने शौहर पर पूर्ण विश्वास था कि वह मेवाड़ की ईंट से ईंट बजा देगा और जब युद्घोपरांत विजयोत्सव मनाया जाएगा तो उसमें दोनों हिंदू योद्घाओं को उसी प्रकार समाप्त किया जाएगा जिस प्रकार दारा को समाप्त किया गया था, या ऐसे अन्य अनेकों दाराओं को समाप्त किया जा चुका था। बेगम के लिए वे क्षण अत्यंत रोमांचकारी हो सकते थे। क्योंकि उन क्षणों में ही उसे अपने पति की वीरता की जय-जयकार होती दिखती। वह जय-जयकार उसके भीतर अवश्य ही रोमांच उत्पन्न करती।
बेगम साहिबा अपने सपनों में खोयी हुई थी। उसे ज्ञात हुआ कि युद्घ प्रारंभ हो गया है और अनेकों मुगल योद्घा युद्घ में काम आ चुके हैं। बेगम का माथा ठनकने लगा। उसे मिलने वाले अप्रिय समाचार उसे निरंतर दुखी करते जा रहे थे। कोई भी समाचार ऐसा नहीं मिल रहा था, जिससे वह उत्साहित हो और अपने पति की वीरता का साक्षात दर्शन कर सके।….और अंत में उसके लिए हृदयाघात करने वाला समाचार आया कि युद्घ में मुगल सेना परास्त हो गयी है, चारों ओर भगदड़ मच चुकी है। बादशाह को इतना भी होश नहीं रहा कि वह अपनी बेगम को तो साथ ले ले वह बेतहाशा भागा जा रहा था। वह कहीं था और बेगम गुलनार कहीं थी।
इतने में ही कुछ राजपूत सैनिक बेगम के निकट आ गये। वह उन्हें देखकर भयभीत हो गये, वह चिल्लाई बचाओ! बचाओ!! पर बचाने वाले तो भाग रहे थे।
उस समय यदि किसी ने बेगम की चिल्लाने की आवाज सुनी भी तो वह उसे अनसुना करके भाग लिया। बेगम समझ गयी कि काफिरों का कत्ल होते देखने का उसका सपना तो अब पूर्ण नहीं होने वाला, पर अब वह काफिरों के पल्ले पड़ गयी है तो उसके साथ कुछ भी होना संभव है। उसने अपने आपको राजपूत सैनिकों को चुपचाप सौंप दिया और भय से कांपती हुई महाराणा राजसिंह के शिविर की ओर उन सैनिकों के साथ चल दी। उसने अब तक मुगल सैनिकों द्वारा ‘लूट के माल’ के रूप में लायी गयी हिंदू महिलाओं के साथ बादशाह के अत्याचारों को देखा था, इसलिए उन अत्याचारों की स्मृति उसे ऐसा बोध कराती थी कि जैसे आज उसे हिंदू प्रतिशोध का सामना करना पड़ेगा। जब वह ऐसा सोचती तो मारे भय के कांप उठती।
बेगम गुलनार और राणा राजसिंह का बंदीगृह
कुछ ही क्षणों में बेगम गुलनार महाराणा राजसिंह के शिविर में पहुंच गयी। सैनिकों ने उसे बंदीगृह में डाल दिया। गुलनार के पास अपने भाग्य को कोसने के अतिरिक्त अब और कुछ सोचने को शेष नहीं था।
शीघ्र ही महाराणा को सूचना दे दी गयी कि युद्घ क्षेत्र से बादशाह औरंगजेब की बेगम गुलनार को भी प्राप्त करके यहां लाया गया है, जो कि इस समय आपके शिविर के बंदीगृह में है। यह सुनकर महाराणा का सिर लज्जा से झुक गया, उसने ऐसी घटनाएं अब से पूर्व मुगल सैनिकों के विषय में देखीं और सुनी थीं। नारी के सम्मान और स्वतंत्रता की लड़ाई को लड़ते-लड़ते महाराणा की पीढिय़ां व्यतीत हो गयी थीं। उनकी दृष्टि में नारी नारी थी, उसका धर्म नारीत्व था और उसका सम्मान करना महाराणा का धर्म था। अत: महाराणा को लगा कि यदि गुलनार को अपने बंदीगृह में और अधिक देर तक रखा गया तो उसके पूर्वजों के द्वारा किये गये आज तक के संघर्ष पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाएगा, और उनके सारे पुन्य क्षीण हो जाएंगे। अत: महाराणा ने तुरंत निर्णय लिया और बेगम गुलनार को बंदीगृह से मुक्त करने के लिए दुर्गादास राठौर को भेजा।
दुर्गादास राठौर और बेगम गुलनार
दुर्गादास भी अपने आप में बहुत सुंदर कद काठी के व्यक्ति थे। बेगम ने बंदीगृह से मुक्त करते हुए दुर्गादास को बड़े ध्यान से देखा और वह उसे देखती ही रह गयी। दुर्गादास जैसा सुगठित शरीर, गर्वीला मस्तक, ऊंचा ललाट और शौर्य मिश्रित सौंदर्य बेगम गुलनार ने संभवत: अपने जीवन में पहली बार देखा था।
गुलनार महाराणा के बंदीगृह से मुक्त होने से पूर्व दुर्गादास के प्रेम रूपी बंदीगृह में स्वेच्छा से कैद हो गयी। जबकि दुर्गादास ने उसको देखा तक भी नहीं। बेगम को बादशाह औरंगजेब के पास ससम्मान भेज दिया गया। परास्त बादशाह औरंगजेब को अपनी बेगम को सकुशल अपने साथ पाकर असीम प्रसन्नता हुई। वह सोच रहा था कि तेरी बेगम अपने सतीत्व की रक्षा करने में सफल रही, पर हिंदुओं ने भी उसके साथ प्रतिशोधी दृष्टिकोण न अपनाकर मानवतावाद का जिस प्रकार उच्चादर्श स्थापित किया था-उस पर भी बादशाह जब सोचता तो उसे प्रसन्नता होती और वह मन ही मन हिंदू धर्म को अच्छा मानता, पर कहता कुछ नहीं था।
बादशाह को ज्ञात नहीं था कि उसकी बेगम दिखने में तो अपने सतीत्व की रक्षा कर आयी है-पर इस रक्षा के करने-कराने में वह दिल की बाजी हार भी चुकी है और अब वह चाहे तेरे साथ चल रही है पर उसका मन कहीं और है। वह तेरी होकर भी तेरी नहीं रही है।
समय व्यतीत होता गया पर वह समय भी शीघ्र ही आ गया, जब गुलनार को पता चला कि औरंगजेब बादशाह दक्षिण में शाहजादा अकबर के विद्रोह को कुचलने के लिए प्रस्थान कर रहा है और अकबर का साथ दुर्गादास दे रहा है। तब गुलनार ने दुर्गादास से मिलने या उसके दर्शन पाने की इच्छा अपने मन में धारण कर बादशाह के साथ चलने की इच्छा व्यक्त की। बादशाह ने गुलनार की बात मान ली।
जब दुर्गादास राठौर बना बादशाह का बंदी
अकबर दुर्गादास और औरंगजेब की सेनाओं में जमकर संघर्ष हुआ। पर युद्घ का परिणाम इस बार दुर्गादास के पक्ष में न जाकर मुगलों के पक्ष में गया। गुलनार भी यही चाहती थी कि दुर्गादास औरंगजेब बंदी बनकर आये तो जेल में ही उससे दर्शन किये जाएं।
रात्रि का गहरा सन्नाटा पसर चुका था। कहीं से यदि पत्ता भी हिलता था तो उसकी भी आवाज होती थी। दुर्गादास औरंगजेब की जेल में बैठे कुछ गंभीर चिंतन कर रहे थे। आगे पीछे की योजनाएं मन में उठ रही थीं और उठकर कहीं अनंत में यूं ही विलीन होती जा रही थीं। विचारों का प्रवाह था जो बह रहा था।
अकेले में जब व्यक्ति होता है तो अपने आप ही अपने आपसे बात करता है। अपना मित्र अपने आप बन जाता है, और उसका समय भी कट जाता है। उसे अकेलापन खाता नहीं है, अपितु अकेलापन उसका मित्र बन जाता है। दुर्गादास की भी यही स्थिति थी। वह अपने अकेलेपन का आनंद ले रहा था, कभी उससे लड़ता था तो कभी उसे प्यार से दुलारने लगता था।
रात्रि में गुलनार पहुंची जेल के द्वार
तभी अचानक उसे एक पदचाप सुनाई दी। वह सावधान हो उठा। रात्रि के अंधकार को चीरते पदचापों ने उस हिंदू वीर को सहसा सावधान कर दिया कोई षडय़ंत्र ना हो? दुर्गादास अपने आप से ही बोल उठा-कुछ भी संभव है। तब तक वह पदचाप करने वाले व्यक्ति की काली परछाईं और भी निकट आ गयी थी।
कौन हो तुम ? भारत के उस वीर योद्घा ने उस काली परछाईं से बड़े गर्वीले शब्दों में पूछ लिया। गुलनार के हृदय में तो प्रेम की आग लग रही थी, उसे दुर्गादास से मिलना था और किसी भी प्रकार यदि उसका स्पर्श हो जाए तो यह तो उसके लिए परम सौभाग्य की बात होती। इसलिए दुर्गादास के तीन शब्द ‘कौन हो तुम’ उसके दिल की आग को शांत से करते चले गये। उसे बड़ा आनंद आया। इन तीन शब्दों ने उसके आने के प्रयोजन को मानो पूर्ण कर दिया था।
गुलनार ने अपने आपको संभाला और संभालते हुए बड़े सधे हुए शब्दों में कहने लगी-‘मैं गुलनार हूं, भारत की मल्लिका। आपको ज्ञात होगा कि एक बार मैं आपकी बंदी थी और आज समय ने आपको मेरा बंदी बना दिया है। लगता है कालचक्र पूर्ण हो गया है। पर यह…. इससे पूर्व कि मल्लिका अपने मन की बात को कह पाती दुर्गादास ने ही अपनी ओर से कुछ दिया ‘……तो क्या आप इस समय मुझे दण्ड देने आयी हंै? दुर्गादास के लिए यह समझना कठिन हो रहा था कि इतनी देर रात गये मल्लिका के यहां आने का अंतत: क्या प्रयोजन हो सकता है? एक महिला और वह भी मल्लिका….इतनी देर रात…. और वह भी अपने बंदी से मिलने आ गयी…अंतत: इसके पीछे इसका उद्देश्य क्या हो सकता है? ऐसे कितने ही प्रश्न दुर्गादास के मन में बड़ी शीघ्रता से उठते जा रहे थे। पर उसे कोई समाधानपरक उत्तर नहीं मिल पा रहा था।
तब मल्लिका ने ही अपने प्रश्न का स्वयं उत्तर दिया। ‘दुर्गादास! मैं तुमसे प्रतिशोध लेने या तुम्हें दंडित करने नही आयी हूं, अपितु तुम्हें बादशाह की जेल से मुक्त करने आयी हूं।’
तब दुर्गादास को रानी की बात ने आश्चर्य में डाल दिया। वह कहने लगा-”क्यों क्या उस घटना के लिए आप मुझे बंदी जीवन से मुक्त करने आयी हैं जब मैंने तुम्हें अपने महाराजा के बंदी जीवन से मुक्त किया था।”
मल्लिका ने कहा-‘नही।’
दुर्गादास और भी अधिक विस्मय में डूब गया। उसने मल्लिका की ओर देखे बिना-पीठ फेरकर कहा-‘तो क्या आप बादशाह की आज्ञा से यहां आयी हैं?’
गुलनार को इस प्रश्न से और भी अच्छा लगा। क्योंकि वह दुर्गादास को यही बताना और समझाना चाहती थी कि वह यहां अपनी इच्छा से आयी है। इसमें बादशाह की आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि यह मेरा नितांत निजी विषय है, जिसमें आज वह दुर्गादास को सहभागी बना लेना चाहती थी। इसलिए उसने बड़े सहज किंतु गंभीर शब्दों में अहंकार पूर्वक कहा-‘गुलनार ने केवल आज्ञा देना ही सीखा है, किसी भी आज्ञा का पालन करना नही सीखा है।’ अब भी दुर्गादास उस मल्लिका के आने के प्रयोजन को समझ नहीं पाया था। इसलिए उसने पुन: एक प्रश्न मल्लिका से कर दिया-
”तब मल्लिका साहिबा मुझसे किसी प्रकार की पहेली बुझाने की बातें छोडिय़े और स्पष्ट बताइये कि आपको यहां आने का प्रयोजन क्या है?” दुर्गादास की सरलता और हृदय की निष्कपटता मल्लिका को उसके और भी निकट लाती जा रही थी। विषम परिस्थितियों और उसके साथ लगा मल्लिका का खिताब आज्ञा नहीं दे रहे थे, अन्यथा दुर्गादास उसके प्रति जितनी सादगी और निष्कपटता का प्रदर्शन कर रहा था-उसके चलते तो मल्लिका के हृदय में उसके प्रति इतना प्रेम उमड़ आया था कि वह साधारण क्षणों में तो कब की अपने इस भोले प्रेमी से लिपट गयी होती। अब उसे दुर्गादास का स्वाभाविक भोलापन और भी अधिक प्रिय और आकर्षक लगने लगा था।
तब गुलनार ने समझा कि अपने ‘मन की बात’ अब सीधे शब्दों में ही कह देना उचित होगा। इसलिए दुर्गादास के सामने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि-‘मैं तुम्हें इस बंदी जीवन से इसलिए मुक्त करने आयी हूं कि मैं तुमसे अत्यधिक प्रेम करती हूं और जब तुमने मुझे अपने बंदीगृह से मुक्त किया था तभी से मैं अपने आपको तुम्हें सौंप चुकी हूं।’
दुर्गादास ने निभाया वैदिक धर्म
मल्लिका के मुंह से ऐसे वचन सुनकर उस हिंदू वीर के पैरों तले की धरती ही खिसक गयी। उसने मल्लिका से ऐसे शब्दों की अपेक्षा नही की थी उसके लिए तो परदारा माता के समान थी और नारी का सम्मान उसका अपना धर्म था। पर वह इसके विपरीत जो कुछ भी सुन या देख रहा था उसने उसे सन्न कर दिया।
दुर्गादास की आंखों में अपने धर्म की मर्यादा, हिंदुत्व की नैतिक व्यवस्थाएं और नारी के प्रति वैदिक आदर्श तनिक सी देर में घूमने लगे। अब उसके लिए एक नई परीक्षा नई चुनौती के रूप में खड़ी थी। ऐसी परीक्षा-जिसमें वह आज से पूर्व कभी भी नहीं पड़ा था। उसे यह पता नहीं था कि कभी कोई नारी उससे ऐसा प्रस्ताव भी रख सकती है। क्योंकि उसने ऐसे किसी प्रस्ताव की कभी अपेक्षा भी नहीं की थी। उसे स्मरण हो आया कि हमारे धर्म में ‘महाजनो ये न गत: स पंथा’ कहा जाता है। जिसका अभिप्राय है कि विषम परिस्थितियों में महापुरूष जिस मार्ग का अनुगमन और अनुकरण करें-वही सन्मार्ग होता है और साधारण लोगों को वैसी परिस्थितियों में उसी मार्ग का अनुकरण भी करना चाहिए। अत: उसे पलक झपकते ही सूर्पणखां और राम व लक्ष्मण का प्रसंग स्मरण हो आया-जब सूर्पणखां ने उनके समझ अपने विवाह का प्रस्ताव रखा था। अत: दुर्गादास ने मल्लिका से कह दिया कि-” मल्लिका आपको स्मरण होना चाहिए कि मैं वैदिक धर्मी हिंदू हूं, राजपूत हूं। मेरे यहां धर्म के और नैतिकता के कुछ नियम हैं और मैं उन नैतिकता के नियमों से बंधा हूं। इसलिए मैं किसी भी स्थिति में उनसे बाहर नहीं जा सकता।”
मल्लिका को लगा कि उसने इस काफिर के समक्ष अपने मन की बात कहकर भूल कर दी है, इसलिए उसके आत्माभिमान को चोट सी लगी। परंतु इसके उपरांत भी मल्लिका ने स्वयं को संभालने का प्रयास करते हुए कहा-
”सरदार! जो तुम कह रहे हो, उसे मैं भली प्रकार जानती हूं। तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि प्रेम किसी प्रकार की साम्प्रदायिक मान्यताओं या मजहब की तंग दीवारों का गुलाम नहीं होता है, वह तो अबाधरूप से निरंतर बहते रहने वाली एक सरिता है, जो अपने गंतव्य तक बहती रहती है, और उसे तब तक शांति नहीं मिलती है जब तक कि वह अपने प्रेमी सागर की बाहों में न समा जाए।”
दुर्गादास ने पुन: अपनी बात पर अडिग रहते हुए मल्लिका से कहा-‘हो सकता है आपका यह कथन सत्य हो, पर मेरे धर्म में तो परनारी को माता के समान समझा गया है। इसलिए आप मेरे लिए माता के समान है। मेरे हिंदू धर्म की मेरे लिए यही शिक्षा है।’
बेगम गुलनार हो उठी आग बबूला
अब तो गुलनार का लंबे समय से संजोया गया सपना उसी के आगे शीशे की भांति चटकने लगा उसका हृदय अपमान और घृणा के भावों से भर गया, उसके भीतर मल्लिका होने का अहम भाव जागृत हो उठा और इसलिए उसे यह कतई अच्छा नहीं लगा कि एक छोटा सा सरदार उसके प्रणय प्रस्ताव को अस्वीकार कर दे। अत: उसने घायल नागिन की भांति दुर्गादास को चेतावनी देते हुए कह दिया कि दुर्गादास तुम्हेें मेरे प्रेम का तिरस्कार करने का मूल्य तो चुकाना ही होगा, और मल्लिका ने इतना कहकर अपना हाथ अपनी पीठ पर बंधी कटार को निकालने के लिए बढ़ाया।
दुर्गादास ने झुका दिया बेगम की कटार के सामने अपना मस्तक
दुर्गादास ने अपने जीवन की चिंता किये बिना अपना सिर मल्लिका की ओर कर दिया और नतमस्तक होकर मल्लिका से कह दिया कि बेगम साहिबा आप मेरे झुके हुए सिर पर नि:संकोच अपनी कटार चला सकती हैं। तभी एक और आवाज आती है-कोई कहे जा रहा था कि धन्य हो! धन्य हो!! राठौर सरदार तुम धन्य हो!!! तुम्हारा धर्म धन्य है और तुम्हारी नैतिकता धन्य है।
दुर्गादास ने देखा यह आवाज अन्य किसी की नहीं थी, अपितु मुगल सरदार दिलेर खां की थी जो अब बेगम साहिबा के साथ दुर्गादास के सामने खड़ा था। बेगम ने दिलेर खां को देखकर अपनी कटार पीछे हटा ली।
दिलेर खां कहे जा रहा था यह-तो मैं जानता था कि दुर्गादास एक महान विचारों का महान सेनानायक है, किंतु दुर्गादास की महानता इतने उत्कृष्ट स्तर की है-यह मुझे ज्ञात नहीं था। इस महान राठौर सेनापति के सामने आज मुगल सेनापति अपना सिर झुकाता है।
सचमुच हमारे हिंदू वीरों की वीरता तो प्रशंसनीय थी ही साथ ही उसके चारित्रिक गुण भी अत्यंत प्रशंसनीय रहे हैं, इतने प्रशंसनीय कि उनके समान विश्व इतिहास में भी कोई उदाहरण खोजना असंभव है।
क्रमश:
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-साहित्य संपादक)