इतिहास का पुनर्लेखन और योगी सरकार
भारत के ऐतिहासिक स्थल आगरा के ताजहमल के निर्माण को लेकर एक बार फिर विवाद उठा है। भाजपा के फायर ब्रांड विधायक संगीत सोम का कहना है कि ताजमहल हमारी गुलामी का प्रतीक है तो असदुद्दीन ओवैसी का कहना है कि यदि ताजमहल गुलामी का प्रतीक है तो यह लालकिला भी गुलामी का प्रतीक है, जिस पर प्रत्येक वर्ष भारत के प्रधानमंत्री 15 अगस्त को झण्डा फहराते हैं। यदि गुलामी के प्रतीकों को समाप्त ही करना है तो ओवैसी के अनुसार दिल्ली के लालकिले से भी 15 अगस्त को झण्डारोहण नहीं होना चाहिए। इस चर्चा पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि उत्तर प्रदेश सरकार की अपनी नीति है कि ताजमहल अपनी कला के लिए विश्वविख्यात है और इसका कोई मूल्य नहीं है कि इसे किसने बनवाया? यह एकऐतिहासिक धरोहर है और इसके निर्माण में देशवासियों का खून पसीना लगा है और सरकार इसके संरक्षण के लिए प्रतिबद्घ है। योगी आदित्यनाथ ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि संगीत सोम के विचारों को किसी भी स्तर पर समर्थन नहीं मिल सकता है।
उधर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एक कार्यक्रम में इस विवाद पर अपनी टिप्पणी देकर परोक्ष रूप से यह स्पष्ट किया है कि जो देश अपनी विरासत को पीछे छोड़ देता है उनकी पहचान खोना निश्चित है। पी.एम. के कथन का अभिप्राय है कि संगीत सोम को ताजमहल को गुलामी का प्रतीक मानकर उसे छोडऩे की बात नहीं करनी चाहिए। इस विवाद में कांग्रेस के सलमान खुर्शीद भी उतरे हैं और बोले हैं कि ताजमहल सभी सभ्यताओं, धर्मों और देशों के लिए हमेशा प्रेम का प्रतीक रहा है और हमेशा रहेगा। जबकि सपा के आजम खान ने चार कदम आगे जाते हुए कह दिया है कि ‘अकेला ताजमहल ही क्यों? संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, कुतुबमीनार, लालकिला, सब गुलामी के प्रतीक हैं। फिर तो सबको मिटा देना चाहिए।’
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी से हमारी विशेष प्रार्थना है कि आगरा के ताजमहल के विषय में संगीत सोम का भी सीमित ज्ञान है और वे इस ऐतिहासिक भवन को व्यर्थ में ही गुलामी का प्रतीक मान रहे हैं। यह गुलामी का प्रतीक न होकर भारत की भव्यता और दिव्यता का प्रतीक है। विद्वानों की दृष्टि में ऐसे अनेकों प्रमाण हैं जिनसे यह शाहजहां से पूर्व का बना हुआ सिद्घ होता है। योगी जी को चाहिए कि आगरा के निर्माण को लेकर और इसकी ऐतिहासिकता को प्रमाणित करने के लिए एक आयोग गठित किया जाए। जिससे इसके हिंदू स्थापत्य कला का नमूना होने न होने का पता चल सके। इसके विषय में पी.एन. ओक महोदय जैसे राष्ट्रवादी लेखकों के परिश्रम और पुरूषार्थ को आधार बनाया जाए और उनके तथ्यों के आलोक में यह पड़ताल की जाए कि क्या वास्तव में ही शाहजहां की आत्मकथा ‘शाहजहांनामा’ इस इमारत को एक हिंदू भवन सिद्घ करती है और क्या टेवर्नियर जैसे विदेशी पर्यटकों के संस्मरण इसे हिंदू भवन मानते हैं? यह भी कि क्या बाबर की मृत्यु के समय (शाहजहां से सवा सौ वर्ष पूर्व) बाबर की बेटी गुलबदन बेगम अपने अब्बाजान के शव को आगरा में यमुना के किनारे बनी जिस सफेद संगमरमर की भव्य इमारत में रखे होने की बात कहती है क्या वह इमारत ताजमहल है या कोई और? यदि कोई और तो उसके अवशेष आज क्यों नहीं मिलते? यह भी पड़ता का विषय होना चाहिए कि यह भवन सवाई राजा जयसिंह की पैत्रक सम्पति कभी रहा है, या नहीं। इतिहास के तथ्यों से पर्दा उठना चाहिए। वैसे भी योगी जी की सरकार इतिहास के गौरवपूर्ण पुनर्लेखन में विश्वास करती है तो उसके लिए तो यह और भी आवश्यक है कि वह ताजमहल के वास्तविक निर्माता का तथ्यात्मक आधार पर पता लगाये। पड़ताल में यदि शाहजहां ही इसका निर्माता सिद्घ होता है तो उस समय संगीत सोम के बेसुरे संगीत को बंद किया ही जाना चाहिए। तभी हम समझेंगे किताजमहल हमारी विरासत है और इसे भूलना ‘पाप’ है।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि कुतुबमीनार एक वेधशाला थी, जिसका उपयोग नक्षत्र विज्ञान के लिए किया जाता था। इसका निर्माण वराह मिहिर जैसे भारतीय वैज्ञानिक ने गुप्तकाल में कराया था। वराहमिहिर के नाम से ही इस वेधशाला के पास बसी हुई मिहिरावली थी जिसे आजकल महरौली कहते हैं। इस तथ्य की भी समीक्षा होनी चाहिए कि कुतुबमीनार वास्तव में एक वेधशाला है या किसी कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा व्यर्थ में ही जनता का पैसा खर्च करने के एक मूर्खतापूर्ण कृत्य का प्रतीक है?
जहां तक दिल्ली के लालकिले की बात है तो इसके विषय में भी अनेकों प्रमाण पी.एन. ओक महोदय देते हैं जिनसे यह हिन्दू स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना ही सिद्घ होता है। पी.एन. ओक की मान्यता है कि यह लालकिला तो पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल में भी था। उसके पश्चात महारानी संयोगिता का बलिदान भी इसी लालकिले में (लालकोट का अर्थ भी इसी लालकिले से लगाया जाए तो) हुआ था। ऐसे में लालकिले के विषय में भी इस समय तथ्यात्मक इतिहास को उजागर करने की आवश्यकता है।
उत्तर प्रदेश की जनता ने माननीय योगीजी को प्रदेश की कमान सौंपी है। उनके ओजस्वी नेतृत्व में जनता ने अपना विश्वास व्यक्त किया है। माना कि वह चुनावपूर्व प्रदेश के मुख्यमंत्री घोषित नहीं किये गये थे। परंतु फिर भी भाजपा के पास प्रदेशव्यापी छवि का और पहचान का कोई नेता उनके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं था। इसलिए उनके चयन को जनता ने अपनी सहमति दी थी। ऐसे मुख्यमंत्री से अपेक्षा है कि वह सत्य व तथ्य को कथ्य के आधार पर प्रकट करने की पहल करेंगे। माना जा सकता है कि नये-नये विवादों को जन्म देना ठीक नहीं है। पर सत्य को विवादों को जन्म देने की सम्भावना के कारण दबाये रखना भी तो उचित नहीं है। यही तो कांग्रेस करती आ रही थी। उसकी नीति रही थी कि जिससे एक वर्ग शोर मचाये और यह आरोप लगाये कि इससे उसकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं उस सत्य को हाथ न लगाया जाए और उस सत्य के स्थान पर यदि कोई झूठ चल रहा हो तो उसी झूठ को ही महिमामंडित किया जाता रहे।
हमने ‘उगता भारत’ के माध्यम से भारत के वास्तविक गौरवपूर्ण इतिहास को प्रकट करने के लिए अपनी इतिहास श्रंखला चला रखी है। जिसे सुबुद्घ पाठकगण नियमित पढ़ रहे हैं। भारत के वास्तविक इतिहास को जानने में यह श्रंखला बड़ी सहायक सिद्घ हुई है। पाठकों की राय है कि इसके माध्यम से उन्हें अपने अतीत को जानने व समझने का अवसर मिला है। इसके उपरान्त भी हमारा मानना है कि यह श्रंखला अपने आप में अपूर्ण है। क्योंकि इसमें संपूर्ण भारत के हर क्षेत्र की हर काल की और हर वंश की सारी जानकारी अभी भी नहीं आ सकी है। कहने का अभिप्राय है कि हम अपने सीमित साधनों से अत्यल्प जानकारी ही अपने पाठकों को दे सके हैं। यद्यपि इतनी जानकारी से भी लगभग ढाई हजार पृष्ठों की (छह खण्ड) सामग्री तैयार हो गयी है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भाजपा के इन नेताओं से अलग राह बनानी होगी जो सत्ता से बाहर रहकर तो हिंदूवादी और राष्ट्रवादी होते हैं पर सत्ता में जाते ही कांग्रेसवादी राष्ट्रवादी हो जाते हैं। किसी सम्भावित उपद्रव से डरकर सत्य का अनुसंधान रोका जाना सत्य की हत्या करने के समान होता है। उपद्रव सरकारों की निष्क्रियता और इच्छाशक्ति की कमी के प्रतीक होते हैं। सत्य को स्थापित करने के लिए इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है जो कि योगी जी के पास है। अत: हमें उनसे अपेक्षा करनी चाहिए कि वह अपने देश के अतीत को यदि पुस्तकों के माध्यम से इतिहास का पुनर्लेखन करके स्थापित कराना चाहते हैं तो फिर ऐतिहासिक स्थलों की भी पड़ताल ढंग से करा लें, जिससे कि इतिहास की नई पुस्तकों में वास्तविक तथ्यों को स्पष्ट किया जा सके। इस देश के अधिकांश मुस्लिम राष्ट्रवादी हंै और वे मजहब बदल जाने पर भी राम-कृष्ण को अपना पूर्वज मानते हैं। उनकी सोच का सम्मान होना चाहिए। शिया वक्फ बोर्ड ने इस दिशा में सकारात्मक संदेश भी दिया है। हमें ऐसे संकेतों को समझना चाहिए। मुट्ठी भर लोग किसी समुदाय की भावनाओं का प्रतीक नहीं होते हैं। हां, वे उसकी भावनाओं से खिलवाड़ अवश्य कर सकते हैं। हमें ऐसे मुट्ठी भर लोगों को किसी की भावनाओं से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं देनी है, भारत सबका हो सकता है पर इतिहास उसी का होता है जिसने उसे बनाया होता है। देखते हैं योगी जी इतिहास बनाने वालों को पहचानेंगे या नहीं।