महान विजेता महाराणा संग्राम सिंह
मेवाड़ के जिन परम प्रतापी महाराणाओं का इतिहास में विशेष और सम्मान पूर्ण स्थान है, उनमें महाराणा संग्राम सिंह का नाम अग्रगण्य है। इनके भीतर देशभक्ति का भाव कूट-कूट कर भरा था। इनका पराक्रम ,शौर्य और साहस समस्त देशवासियों के लिए गर्व और गौरव का विषय है।
मेवाड़ के इस महान महाराणा का जन्म 12 अप्रैल 1484 को हुआ था। ये महाराणा रायमल के सबसे छोटे पुत्र थे। अपनी वीरता, देशभक्ति और प्रजावत्स्लता के कारण इन्होंने इतिहास में अपना गौरवपूर्ण स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की। महाराणा संग्राम सिंह अपने पिता की मृत्यु के उपरांत 1509 ई0 में जब मेवाड़ के शासक बने तो उस समय उनकी अवस्था 27 वर्ष की थी। संग्राम सिंह ने महाराणा वंश के कुल गौरव को बढ़ाने का हर संभव प्रयास किया। अभी तक इस वंश के भीतर यदि कहीं कोई उदा जैसा शासक भी हो गया था तो उसकी अनैतिकता या कमी की भी महाराणा संग्राम सिंह ने अपने वंदनीय कार्यों से भरपाई कर दी थी।
अनोखे व्यक्तित्व का , महाराणा था नूर।
चमक उठा आकाश में, अंधियारा किया दूर।।
महाराणा संग्राम सिंह की रानी का नाम कर्णावती था। रानी कर्णावती का भी इतिहास में विशेष स्थान है। जिस समय महाराणा रायमल संसार से गए थे तो उस समय अपने भाइयों से सत्ता के लिए हुए संघर्ष में उनके भाई पृथ्वीराज द्वारा मारी गई हूल से महाराणा संग्राम सिंह की एक आंख चली गई थी। महाराणा संग्राम सिंह ने जिन विषम परिस्थितियों में भारत की चेतना, भारत के पराक्रम और भारत के शौर्य का नेतृत्व किया वह इतिहास के उस कालखंड में बनी परिस्थितियां थीं जिस समय भारत की हिंदू शक्ति को विदेशी शक्तियों से बहुत बड़ी चुनौती मिल रही थी।
इतिहास के समकालीन कालखंड को अपने नाम कर लेना यह बहुत बड़े शूरमा का काम होता है। सचमुच महाराणा संग्राम सिंह अपने कालखंड को अपने नाम करने में सफल हुए। वह उस समय भारत की एकता और अखंडता को बनाकर हिंदुओं का सार्वभौम साम्राज्य स्थापित करने का सपना संजो रहे थे, जब विदेशी शक्तियां इसे तार – तार करने में लगी हुई थीं। महाराणा संग्राम सिंह की इस प्रकार की योजना को षड्यंत्रकारी इतिहास लेखकों ने दबाकर रखा है ,जबकि किसी भी विदेशी आक्रमणकारी के इस प्रकार के शुभ संकल्प को भी महिमामंडित करके दिखाया गया है।
व्यक्तित्व को समझना होगा गहराई से
महाराणा संग्राम सिंह के जीवन पर गहन शोध करने की आवश्यकता है। उनके संदर्भ में हमें ध्यान रखना चाहिए कि यदि बनते - बनते खेल बिगड़ जाए तो इसमें किसी योद्धा का दोष नहीं होता। दोष परिस्थितियों का भी हो सकता है ,दोष अवस्था का भी हो सकता है, दोष मित्रों का भी हो सकता है, दोष राजनीति का भी हो सकता है। इन सारे दोषों को किसी एक व्यक्ति पर मढ देना उसके साथ अन्याय करना है, उसके व्यक्तित्व की उपेक्षा करना है और उसके कृतित्व को अनावश्यक ही कलंकित कर देना है। कहने का अभिप्राय है कि महाराणा संग्राम सिंह के बारे में कुछ लिखने, पढ़ने ,समझने और बोलने से पहले उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को गहनता से समझने की आवश्यकता है।
महाराणा संग्राम सिंह भारत की दिव्यता के दिव्य दिवाकर हैं, वह भारत की भव्यता के भास्कर हैं और भारत के शौर्य के सूर्य हैं। उनके व्यक्तित्व की ऊंचाई को नापना हर किसी के वश की बात नहीं है। उनके व्यक्तित्व की चमक आज तक भी देश भक्ति के मार्ग से भटके हुए लोगों को प्रकाश – पथ दिखाने में सक्षम है। महाराणा संग्राम सिंह इतिहास का वह महान व्यक्तित्व है जिसने परंपरागत अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग करते हुए बारूद और तोप का पर्याय बने बाबर की सेना और स्वयं बाबर को भी रणक्षेत्र में भयभीत कर दिया था। महाराणा के आत्मबल और शौर्य को देखकर शत्रु भी दंग रह गया था।
महाराणा के तेज से शत्रु था भयभीत।
जंग के मैदान में लिया शत्रु को जीत।।
जो लोग यह मानते हैं कि बाबर के समय में हिंदू शक्ति का पराभव हो गया था और उसके भीतर निराशा उत्पन्न हो गई थी, वह भारी चूक करते हैं और भारत के वीरों का अपमान करते हैं। जब – जब किसी के मन- मस्तिष्क में इस प्रकार के निराशा भरे भाव भारत के भव्य इतिहास के विषय में उठें, तब – तब उन्हें महाराणा संग्राम सिंह जैसे व्यक्तित्व का नाम स्मरण अवश्य कर लेना चाहिए। क्योंकि इस महामानव के नाम स्मरण मात्र से प्रत्येक प्रकार की निराशा, प्रत्येक प्रकार की हताशा और प्रत्येक प्रकार की कायरता छूमंतर हो जाती है।
महाराणा संग्राम सिंह के बारे में एस0आर0 शर्मा का यह कथन सर्वथा अनुचित ही प्रतीत होता है ,:- “एक ओर निराशा जनित साहस और वैज्ञानिक युद्ध प्रणाली के कुछ साधन थे तो दूसरी ओर मध्यकालीन ढंग से सैनिकों की भीड़ थी जो भाले और धनुष बाणों से सुसज्जित थी और मूर्खतापूर्ण तथा अव्यवस्थित ढंग से जमा हो गई थी।”
भारत की महानता
वास्तव में इस प्रकार के निराशाजनक इतिहास लेखन ने हमारे महान पूर्वजों की विरासत को मटियामेट करने में बहुत अधिक सहयोग प्रदान किया है। अपने बारे में ही ऐसे हीनता के भाव प्रकट करना किसी भी इतिहासकार के द्वारा अपनी ही लेखनी को स्वयं ही अपमानित करना होता है। हमें यह विचार करना चाहिए कि जिस देश ने महाभारत जैसे युद्ध के समय परमाणु अस्त्रों का प्रयोग किया हो या रामायण काल में भी एक से बढ़कर एक कारगर हथियार का प्रयोग किया हो और जो एक से बढ़कर एक मारक अस्त्र शस्त्र को खोजने और बनाने का हुनर प्राचीन काल से जानने के लिए प्रसिद्ध रहा हो , उस देश के वीर और युद्ध प्रिय लोगों पर ऐसे आरोप लगाना अपनी विरासत को ही अपमानित करना होता है। इसके साथ-साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि युद्ध कभी भी अस्त्र शस्त्रों से नहीं लड़े जाते हैं ,युद्ध लड़ने के लिए मनोबल की आवश्यकता होती है। इस संदर्भ में यदि भारत के बारे में सोचा जाए या लिखा जाए तो भारत से बढ़कर कोई भी ऐसा देश नहीं है जिसके सैनिकों में भारत के सैनिकों से अधिक मनोबल हो।
संग्राम सिंह ने अपने जीवन में अनेक बार अपने अदम्य शौर्य और साहस को प्रदर्शित किया था। संपूर्ण भारतवर्ष में हिंदू शक्ति का परचम लहराने के लिए उन्होंने लोदी वंश के शासकों से भी लोहा लिया था । इसी प्रकार जब विदेशी आक्रमणकारी बाबर यहां पर आकर धमका तो उसके साथ भी उन्होंने अपने अदम्य शौर्य और साहस के साथ संघर्ष किया था। अपने अदम्य साहस और शौर्य के कारण वह राष्ट्र पटल पर एक महान योद्धा के रूप में स्थापित हो चुके थे।
लूट नीति का सामना करना है वीरता
इतिहास को सही दृष्टिकोण और सही संदर्भ के साथ पढ़ने और लिखने की आवश्यकता होती है। इस बात को बहुत ही उत्साह के साथ लिखा, पढ़ा, सुना और गाया गया है कि बाबर मिट्टी में से खोजकर साम्राज्य खड़ा कर रहा था पर इस बात को कतई उपेक्षित कर दिया गया है या उस पर ध्यान ही नहीं दिया गया है कि बाबर जिन सपनों को भारत की मिट्टी पर उतारना चाह रहा था उन सपनों को महाराणा संग्राम सिंह मिट्टी में ही मिला देना चाहते थे। बड़ा वह नहीं होता है जो दूसरों को लूटता है ,बड़ा वह होता है जो दूसरों की लूट नीति के सामने अपनी छाती को अड़ा देता है। 1483 ई0 में फरगना नामक स्थान पर जन्मा बाबर जब 1526 ई0 में भारत आया तो वह यहां आते ही समझ गया था कि भारत में उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती महाराणा संग्राम सिंह हैं।
अपने देश में पिटा बाबर भारत में अपना भविष्य खोज रहा था, इस बात को तो बहुत अधिक महिमामंडित करके लिखा गया है पर इस बात को उपेक्षित कर दिया गया है कि महाराणा संग्राम सिंह उसी समय भारत के वर्तमान को सुरक्षित रख भविष्य को उज्ज्वल बनाने का ताना-बाना बुन रहे थे। इतिहास लेखन निष्पक्ष होना चाहिए और न्याय की तुला उस ओर झुकनी चाहिए जिस पक्ष में खड़ा व्यक्ति मानवता की रखवाली के लिए अपना जीवन होम कर रहा हो। इतिहास लेखन का उद्देश्य मानवीय मूल्यों की रक्षा करना होता है ,इसलिए प्रत्येक परिस्थिति में मानवीय मूल्यों के लिए लड़ने वाले जुझारू योद्धाओं के संकल्प को प्रोत्साहित करना इतिहासकार की लेखनी का धर्म होना चाहिए। लेखनी धर्म का पालन न करना अधर्म को प्रोत्साहित करना होता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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