ओ३म्
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हम प्रतिदिन मनुष्य व पशुओं आदि को जन्म लेते हुए देखते हैं। यदि हम इन प्राणियों के जन्मों पर विचार करें तो अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं जिनके उत्तर हमें साधारणतः नहीं मिलते। मनुष्य व उसके बच्चे का जो शरीर एवं उसमें चेतन जीवात्मा होता है, वह माता के शरीर में कैसे आता है व कैसे शरीर बनता है, इसका उत्तर अनेकमत-मतान्तरों के आचार्यों, अनुयायियों व वामपन्थियों में से किसी के पास नहीं है। नास्तिक तो यह एक प्राकृतिक घटना मानकर और यह कहकर कि मनुष्य के बच्चे के शरीर का कर्ता कोई नहीं है, यह अपने आप बनता और उत्पन्न होता है, अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। यह उत्तर उचित नहीं है। संसार में सभी रचनाओं का कर्ता अवश्य होता है। हम जितने भी भौतिक पदार्थ पेन, पेंसिल, कम्प्यूटर, घड़ी, भोजन, वस्त्र, भवन, वाहन आदि को देखते हैं, इनमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो स्वतः बना हो। सभी का कर्ता वा निमित्त कारण तथा उपादान कारण अवश्य कोई होता है। यदि किसी सामान या वस्तु किसी उद्योग में बनी है तो वहां भी उसे बनाने वाले मनुष्य होते हैं और यदि मशीन पर बना है तो उस मशीन को भी मनुष्य ही बनाते हैं। मनुष्य के शरीर को माता के गर्भ में जिस सत्ता ने बनाया वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सृष्टिकर्ता परमेश्वर है जो इस संसार सहित सभी अपौरुषेय रचनाओं को बनाती है। अवैदिक मत-मतान्तर एवं वामपंथी विचारधारा के लोग इस रहस्य को नहीं जान सकते क्योंकि उनके मत के ग्रन्थों में इस विषय का उचित व आवश्यक ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान वेद एवं ऋषियों द्वारा रचित वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है। श्रीमद्भागवत गीता भी पुनर्जन्म का समर्थन व पुष्टि करती है। वेद और वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि संसार में तीन अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी एवं अमर पदार्थ हैं जो ईश्वर, जीव व प्रकृति के नाम से जाने जाते हैं। ईश्वर इस सृष्टि व सभी अपौरूषेय रचनाओं का कर्ता व रचयिता है। वह सर्वातिसूक्ष्म व सर्वव्यापक है, चेतन है, ज्ञानवान है तथा सर्वशक्तिमान है। अनादि होने से वह न केवल इस सृष्टि में अपितु इससे पूर्व भी अनादिकाल से इस सृष्टि व जीवात्माओं के लिये मनुष्य आदि प्राणियों के शरीरों को रचता आ रहा है। उसके लिये सृष्टि रचना व मनुष्यादि प्राणियों के शरीर को बनाना स्वाभाविक कार्य है। संसार में ईश्वर के अतिरिक्त एक अन्य चेतन सत्ता है जिसे जीवात्मा या आत्मा कहते हैं। यह चेतन, एकदेशी, सूक्ष्म, अल्प ज्ञान वाली, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, कर्म करने वाली तथा जन्म व मृत्यु को प्राप्त होने वाली सत्ता है। इसी प्रकार तीसरी अनादि सत्ता सूक्ष्म प्रकृति है। प्रकृति अचेतन अर्थात् जड़ सत्ता होती है। इसे आत्मा की भांति किसी प्रकार का किंचित सुख व दुःख नहीं होता। यह सत्ता ईश्वर व जीवात्मा द्वारा नाना प्रकार से उपादान कारण के रूप में उपयोग में लाई जाती है। जब यह सृष्टि नहीं होती उस अवस्था को प्रलय अवस्था कहते हैं। उस अवस्था में ईश्वर प्रलय की अवधि पूर्ण होने पर सृष्टि को रचते हैं। जिस प्रकार मनुष्य अपनी आत्मा व शरीर के अंगों द्वारा रचना करते हैं इसी प्रकार से ईश्वर भी सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ एवं सृष्टिकर्ता होने से सभी अपौरूषेय पदार्थों की रचना जीवों के कल्याण के लिये करते हैं। जीवात्मा मनुष्य जीवन में सृष्टि के पदार्थों का उपयोग करते हुए इससे सामग्री लेकर अपने भवन, वस्त्र आदि अनेक आवश्यकता की वस्तुओं का निर्माण करते हैं। यह क्रम इस सृष्टि में चला आ रहा है।
जिस प्रकार इस जन्म में मनुष्य होकर हम शुभ व अशुभ कर्म करते हैं, इसी प्रकार पूर्वजन्म में भी हमारी आत्मा ने कर्म किये थे। उन कर्मों का शुभ व अशुभ फल हमें भोगना होता है। कुछ क्रियमाण कर्मों का फल हमें कर्म करने के साथ या कुछ समय बाद इसी जन्म में मिल जाता है। जिन कर्मों का फल जीवात्मा को पूर्वजन्म में नहीं मिल पाता उस कर्म-समुच्चय को प्रारब्ध कहते हैं। उन कर्मों का फल भोगने के लिये ही हमारा यह जन्म हुआ व होता है। इसी प्रकार मनुष्य की ही तरह परमात्मा कर्मानुसार जीवात्मा को मनुष्य सहित पशु, पक्षी आदि अनेकानेक योनियों में जन्म देते हैं जिससे उनमें विद्यमान जीवात्मायें अपने-अपने पूर्वकर्मों का फल भोग सकें। यह क्रम व सिलसिला अनादि काल से चला आ रहा, वर्तमान में भी विद्यमान है और भविष्य में भी इसी प्रकार से चलता रहेगा। हम प्रत्येक जन्म में अपने पूर्व किये हुए कर्मों का फल भोगने के लिये ईश्वर के द्वारा उपयुक्त योनि में जन्म लेते रहेंगे और अपने कर्मों का फल भोगते रहेंगे। इसी को कर्म-फल व्यवस्था कहा जाता है।
मनुष्यों को पूर्व जन्मों की स्मृति क्यों नहीं होती? इसका उत्तर यह है कि हमें तो इस जन्म के भी किये हुए अधिकांश कर्मों का ज्ञान व स्मृति नहीं होती है। हमने कल, परसो, उससे पूर्व के दिनों में क्या भोजन किया था, कौन-कौन से वस्त्र किस-किस दिन पहने थे, किन-किन व्यक्तियों से मिले थे, कहां-कहां गये थे, उन सब बातों को याद नहीं रख पाते। दो व्यक्ति आपस में बातें करते हैं या एक व्यक्ति उपदेश करता है, उसे यदि कहा जाये कि आपने आधा घण्टा जो उपदेश किया है जिसे हमने रिकार्ड किया है, उन्हीं शब्दों व वाक्यों को क्रम से पुनः दोहरा दीजिये तो वह ऐसा नहीं कर सकता। इसका कारण मनुष्य की स्मृति का समय के साथ साथ कुछ भाग को भूलना है। दो जन्मों के बीच एक मृत्यु आती है जिसमें हमारा पुराना शरीर नष्ट हो जाता है। नया शरीर मिलता है। हमारा भौतिक मन व अन्य इन्द्रिय आदि इस जन्म में नये प्राप्त होते हैं। किसी की मृत्यु होने पर यह आवश्यक नहीं कि मृतक मनुष्य का जन्म मनुष्य योनि में ही हो। हो सकता है कि हम पूर्वजन्म में मनुष्य रहे हों या हो सकता है कि हम किसी अन्य योनि में रहे हों। इस कारण से विस्मृति का होना सामान्य बात है। यदि हम एक बच्चे को देखें जो कुछ दिन पूर्व जन्मा है तो हम पाते हैं कि वह अपनी माता के दुग्ध का स्तनपान करना जानता है। यह ज्ञान व अनुभव उसे इस जन्म में तो होता नहीं, यह ज्ञान व अनुभव उसके अनेक पूर्वजन्मों के संस्कारों के कारण से होता है। बच्चा सोते हुए स्वप्न देखता है और उसमें कभी वह मुस्कराता है और कभी चिन्ता व दुःख के भाव उसके चेहरे पर देखने को मिलते हैं, इसका कारण भी उसकी पुरानी स्मृतियां ही होती हैं। एक परिवार में दो जुड़वा बच्चे उत्पन्न होते हैं उनमें से एक तीव्र बुद्धि वाला होता है तो दूसरा मन्द बुद्धि वाला। इसका कारण भी उनके पूर्वजन्म के संस्कार हैं। यदि पूर्वजन्म न होता तो दो सगे जुड़वा भाईयों में यह अन्तर न होता क्योंकि दोनों के माता-पिता, परिवेश व परवरिश एक समान है इसलिये अन्तर नहीं होना चाहिये। यह भी हम मनुष्यषें व इतर प्राणियों के पूर्वजन्म का पुनर्जन्म होने का प्रमाण है। मनुष्य का मन ऐसा है जिसे एक समय में एक ही ज्ञान होता है। हम हर समय वर्तमान की बातों के बारे में सोचते विचारते रहते हैं। इस कारण पुरानी स्मृतियां विस्मृत रहती हैं। यह भी पूर्वजन्म की स्मृतियों के न होने का कारण है।
विज्ञान का नियम है कि संसार में मनुष्य कोई नया पदार्थ नहीं बना सकता। दर्शन की भाषा में अभाव से भाव तथा भाव का अभाव नहीं होता। संसार में जो चीज बनी है व बनाई जाती है उसका कोई न कोई उपादान कारण अवश्य होता है। रोटी आटे से बनती हैं। बिना आटे के रोटी नहीं बनाई जा सकती। हम भोजन करते हैं। उसमें अनेक पदार्थ होते हैं। उन पदार्थों व बनाने वाले के बिना वह भोजन तैयार नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार माता के शरीर से सृष्टि के नियमों के अनुसार जो सन्तान जन्म लेती है, वह जीवात्मा व शरीर में प्रयुक्त पदार्थों के अभाव से उत्पन्न नहीं होती अपितु उस आत्मा व उसके शरीर के पदार्थों का पहले से अस्तित्व होता है। वह आत्मा पूर्वजन्म में कहीं मृत्यु को प्राप्त होती है, उसके बाद उसका पुनर्जन्म ही इस जन्म में होता है। आत्मा को न तो परमात्मा बनाता है और न यह स्वयं बन सकती है। संसार में जितने लोगों को भी हम जन्म लेते हुए देखते हैं वह सब पूर्वजन्म की जीवात्माओं की मृत्यु होने के बाद जन्म लेते हैं। यह मान्यता वैदिक साहित्य वेद, दर्शन आदि से पोषित, सत्य एवं प्रामाणिक है। जिन लोगों के मत-पन्थों में यह ज्ञान नहीं है वह अपने मतों के प्रति कृतज्ञ व समर्पित होने के कारण सत्य को स्वीकार नहीं करते। कोई सत्य को स्वीकार करे या न करे, सत्य तो सत्य ही रहता है। हमारे व किसी मनुष्य के स्वीकार करने व न करने से बदलता नहीं है। हां, सत्य को स्वीकार न करने से हम अपनी हानि अवश्य कर लेते हैं। यह हानि इस प्रकार से होती है कि हम मत-मतान्तरों के चक्र में फंस कर वेदाध्ययन का त्याग कर देते हैं और ईश्वर व आत्मा सहित संसार के सत्य ज्ञान, ईश्वरोपासना, यज्ञ, सत्संग एवं पंचमहायज्ञ आदि को छोड़कर पाप में प्रवृत्त रहते हैं। निर्दोष तथा संसार के लिये लाभकारी मूक पशुओं को मार व मरवाकर उनके मांस का भक्षण करते हैं जिससे हमें जन्म-जन्मान्तर में मनुष्य जन्म से वंचित होकर अनेक पशु योनियों में रहकर दुःख भोगने पड़ते हैं। जिन मताचार्यों के कारण हम सत्य से दूर रहते हैं उनको भी ईश्वर उनके कर्मानुसार ही फल देता है। वह भी परजन्म में श्रेष्ठ मनुष्य योनि से वंचित हो जाते हैं, ऐसा अनुमान किया जाता है।
पुनर्जन्म का उदाहरण हम पुराने वर्ष के अन्त व नये वर्ष के आरम्भ के आधार पर भी दे सकते हैं। एक वर्ष बारह महीनों का होता है। 31 दिसम्बर को वर्ष समाप्त होता है। उसके अगले ही दिन नया वर्ष आरम्भ होता है और तिथि 1 जनवरी कही जाती है। इसे हम पूर्व वर्ष का मरना वा अन्त होना तथा उसी का नये वर्ष के रूप में जन्म कह सकते हैं। इसी प्रकार से हम सप्ताह के सात दिनों व वारों रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार आदि का उदाहरण भी ले सकते हैं। शनिवार को सप्ताह समाप्त हो जाता है और वही सप्ताह पुनः रविवार से आरम्भ हो जाता है। यह भी तो एक प्रकार से पूर्वसप्ताह का पुनर्जन्म ही है। प्रलय काल तक यह व्यवस्था मृत्यु और जन्म का चक्र चलता रहेगा। मृतक जीवात्मा गर्भावस्था तथा जन्म लेकर शैशव, किशोर, युवा, प्रौढ़ तथा वृद्धावस्था को प्राप्त होती है और शरीर के दुर्बल व रोगी होने पर पुराने वस्त्रों की भांति ईश्वर की प्रेरणा से अपने शरीर को छोड़कर चली जाती है। इस जन्म लेने वाली जीवात्मा को ईश्वर उसके कर्मानुसार नया शरीर व जन्म देकर पुनः कर्म भोग व कर्म करने के लिये पास व दूरस्थ स्थान पर जन्म देते हैं। सिद्ध योगी अपने पूर्वजन्मों को देख व जान सकते हैं, ऐसा योगदर्शन का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है।
पुनर्जन्म के समर्थन में अनेक उदाहरण हैं। पुनर्जन्म पर शास्त्रीय सहित वैदिक विद्वानों के लेख एवं ग्रन्थ उपलब्ध हैं। वैदिक धर्म सत्य मान्यताओं पर आधारित धर्म है। मनुष्य का सर्वाधिक लाभ वैदिक धर्म को जानने व पालन करने में है। पौराणिक व सनातनी मत सत्य वैदिक धर्म के सर्वथा अनुकूल व अनुरूप नहीं है। वैदिक धर्म वह है जिसका प्रतिपादन ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश तथा आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थ लिखकर किया है। आप यदि पुनर्जन्म को मानते हैं तो अच्छी बात है अन्यथा इस पर विचार करें और वेदाध्ययन कर सद्कर्म करें जिससे यह जन्म व परजन्म सुखी व उन्नत अवस्था को प्राप्त हो सके। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य