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आज का चिंतन

ईश्वर विषय में शंका समाधान

🌷ईश्वर विषय में शंका समाधान🌷
🌻प्रश्न―कुछ लोग कहते हैं कि-ब्रह्मा, शिव देहधारी भी ईश्वर ही थे क्योंकि ब्रह्मा, शिव का कोई भी माता पिता न था। यदि वे ईश्वर न होते तो उनका भी कोई माता पिता अवश्य होता?
उत्तर:-ऋषि ब्रह्मा,शिव का माता पिता भी ईश्वर ही था जैसे कि ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, भृगु, वशिष्ठ, गौतम, भारद्वाज, जमदग्नि आदि ऋषियों का माता पिता था।क्योंकि ऋषि ब्रह्मा, शिव भी अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, भृगु, वशिष्ठ, गौतम, भारद्वाज, जमदग्नि की ही भांति आदि अमैथुनी ईश्वरीय सृष्टि में उत्पन्न हुए थे। जिन जीवों के कर्म आदि अमैथुनी ईश्वरीयसृष्टि में उत्पन्न होने के होते हैं उन सबका जन्म ईश्वर आदि अमैथुनी सृष्टि में देता है। अतः वे सभी आदि अमैथुनी ईश्वरीय सृष्टि में उत्पन्न होने से उन सबका माता पिता ईश्वर ही होता है।
इस प्रकार आदि अमैथुनी ईश्वरीय सृष्टि में ईश्वर ने अनेक अर्थात् हजारों पुरुष स्त्रियाँ उत्पन्न की।
“मनुष्या ऋषयश्च ये। ततो मनुष्या अजायन्त ।”
(यह यजुर्वेद और उसके ब्राह्मण में लिखा है)
अर्थात् उस ईश्वर से आदि अमैथुनी ईश्वरीय सृष्टि में अनेक मनुष्य,ऋषि उत्पन्न हुए।
जगत में जो भी देहधारी हुआ वह केवल जीव ही था। अब भी जो देहधारी है और आगे भी जो देहधारी होगा,वह जीव ही होगा,ईश्वर नहीं। केवल जीव ही देहधारण करता है। केवल जीव ही शरीर वाला होता है।ईश्वर नहीं।
ईश्वर तीनों कालों में निराकार,निर्विकार,कूटस्थ(न बदलने वाला) ,एकरस रहता है।ईश्वर साकार शरीरधारण होने में इतनी जटिल समस्याएं,बाधाएं,दोष हैं कि जिनके कारण ईश्वर कभी भी साकार शरीरधारी नहीं हो सकता।
🌻प्रश्न―कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर को अद्भुत भी कहते हैं,ईश्वर अद्भुत तभी हो सकता है जबकि वह निराकार से साकार -शरीरधारी हो नहीं तो ईश्वर अद्भुत कैसे?
उत्तर:- ईश्वर के अनेक नाम हैं इसलिए उन अनेक नामों में ईश्वर का एक नाम अद्भुत भी है।
जैसे-
देवो देवो नामसि मित्राद्भूतः ।(ऋग्वेद १/९४/१३)
अर्थात् हे भगवन् ! आप देवों के देव और अद्भुत मित्र हैं।
विशां राजानमद्भूतमध्यक्षम (ऋग्वेद ८-४३-२४)
अर्थात् जो प्रजाओं में अद्भुत राजा अध्यक्ष है।
ईश्वर का निराकार से साकार-शरीरधारी होना अद्भुत नहीं है अपितु ईश्वर अद्भुत इस प्रकार है:―
१.जो निराकार रहता हुआ ही साकार जगत बनाता है।
२.जो अचल रहता हुआ ही चन्द्र,भूमि,सूर्य आदि असंख्य भू-गोलों को अर्थात् लोक-लोकाचरों को गति देता,चलाता,भ्रमण कराता है।
३.जो असंख्य परमाणुओं और असंख्य जीवों में सदा एक ही रहता है।
४.जो अनित्य जड़ पदार्थों में नित्य,अमर,चेतन,सर्वज्ञ,आनन्द स्वरुप ही रहता है।
५.जो दण्ड़ और दण्डनीय जीवों में रहता हुआ भी दण्ड और दण्डनीय जीवों से पृथक रहकर दण्ड देता है।
अर्थात् जैसे कोई जीव कर्मों का फल रुप फोड़ा,घाव अथवा अन्य व्याधि रोग से पीड़ित है। ईश्वर उस जीव में,उसके शरीर में,फोडा घाव में अथवा उस व्याधि रोग में रहता हुआ भी उन सभी से पृथक होकर दण्ड देता है।अर्थात् जो जगत में नाना प्रकार के सभी पदार्थों में रहता हुआ भी उन सभी के अवगुण दोषों से पृथक ,रहित,निर्लेप,निराकार,निर्विकार,कूटस्थ एकरस ही रहता है।
इसलिए ईश्वर अद्भुत विचित्र है।
🌻प्रश्न―कुछ लोग कहते हैं कि-जब ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो अवतार-शरीरधारण भी कर सकता है नहीं तो सर्वशक्तिमान कहाँ हुआ?
उत्तर:- उन्हीं लोगों के कथनानुसार जब ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो ईश्वर को अवतार-शरीरधारण करने की आवश्यकता ही क्या है?क्योंकि जिस कारण ईश्वर अवतार-शरीरधारी होता है तो क्या वे कार्य निराकार से साकार हुए बिना नहीं कर सकता तो फिर ईश्वर सर्वशक्तिमान कहाँ हुआ?
सर्वशक्तिमान तो ईश्वर तभी हो सकता है जबकि निराकार रहता हुआ ही अपने सब कार्य पूर्ण करे। शरीरधारी होने से ईश्वर ईश्वरत्व से अलग होता है।
ईश्वर सर्वाधार न होकर शरीरधारी,शरीर के आश्रित,अपूर्ण(कमी वाला),अल्पबल,अल्पशक्तिवाला,परतन्त्र होगा? ईश्वर शरीरधारी होने से जीव के ही समान अल्पबल शक्ति वाला अपूर्ण होगा? ईश्वर नहीं रहेगा।
दूसरे क्या सर्वशक्तिमान का अर्थ यह है कि ईश्वर असम्भव कार्य भी करे? यदि कहो हां तो क्या ईश्वर अपने ही समान दूसरा ईश्वर बना सकता है? क्या ईश्वर निष्पाप,महाधर्मात्मा योगी को अन्धा,कोढी,दुःखी कर सकता है? क्या ईश्वर महापापी को मुक्त कर सकता है? क्या ईश्वर अन्यायकारी,कुकर्मी,पापी,जड़ हो सकता है? यदि नहीं तो फिर ईश्वर निराकार से साकार कैसे हो सकता है?
अतः ईश्वर तीनों कालों में निराकार ही रहता है।
🌻प्रश्न―कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर अवतार -शरीरधारण करके भक्तों का उद्धार और पापियों का नाश करता है?
उत्तर:-क्या ईश्वर बिना शरीरधारण किये भक्तों का उद्धार और पापियों का नाश नहीं कर सकता? इस समय ईश्वर का कोई भी अवतार नहीं है तो भी पापी और महापापी मरते ही हैं। जो जन्मा है वह अवश्य ही मरता है।क्या अब जो ईश्वर भक्ति करते हैं उनका उद्धार नहीं होगा?
दूसरे-ईश्वर को शरीरधारण करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ईश्वर अनंत,सर्वव्यापक होने से पापियों के शरीरों में भी पूर्ण हो रहा है जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन करके नाश कर देवे।
अनेक रोग हैं जैसे हैजा,कैंसर,ज्वर,दस्त,गलघोटू आदि रोग,जल्दी मारने वाले और अधरंग आदि रोग दुर्दशा करके मारने वाले रोग। ईश्वर कैई रोग करके पापियों को मार देवे। ह्रदय गति बन्द करके जल्दी से जल्दी मार देवे।अब भी भूकम्प से हजारों मनुष्य मर जाते हैं।मेघविद्युत से वर्षा के समय मार देवे।ऐसी अनेक बातें हैं जिनके द्वारा ईश्वर पापियों को मार देवे फिर ईश्वर को अवतार शरीरधारण करने की आवश्यकता ही क्या है?
जब ईश्वर शरीरधारण किये बिना सृष्टि रचना,पालन,प्रलय करता है।असंख्य लोक-लोकान्तर,सूर्य,चन्द्र,भूमि आदि का निर्माण करके नियम में रखता है तो रावण,कंस आदि पापी ईश्वर के आगे एक मच्छर के समान भी नहीं।?क्या ऐसे शूद्र जीवों के लिए ईश्वर कै शरीरधारण करना पड़े?ईश्वर-अवतार-शरीरधारण करना जगत म़े इससे मिथ्या ,आश्चर्यजनक और मूर्खता की अन्य कोई भी बात नहीं?
ईश्वर के शरीरधारण मानने में अनेक समस्याएं, दोष आते हैं ये दोष हैं:-
ईश्वर शरीरधारी होने पर भोक्ता हो जायेगा ? ईश्वर अभोक्ता है।
प्रमाण-अनश्नन् (ऋग्वेद मं.१।सू.१६४।मं.२०)
कर्णवच्चेन्न भोगादिभ्यः (वेदान्त अ. २ ।पा. २ ।सू. ४०)
अर्थात् ईश्वर इन्द्रियों वाला होने से भोक्ता हो जायेगा। संसार के
सुख,दुःख,गर्मी,सर्दी,भूख,प्यास आदि से बच नहीं सकता।
देहवान सुखदुखानाम भोक्ता नैवाऽत्र संशयः ।(देवीभागवत १/५/४४)
अर्थात् देहवाला सुखदुखों का भोक्ता है इसमें संशय नहीं है।
क्लेशकर्म विषाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ।-१(योगदर्शन अ. १। सू. २४)
अर्थात्―क्लेश,कर्म,कर्मफल
और कर्मफलों की वासना से जो सर्वदा पृथक है,वह ईश्वर है।
उत्क्षेपणम वक्षेपणमाकुञ्चनम प्रसारणगमनमिति कर्माणि।-(वैशेषिक दर्शन १/१/७)
अर्थात् ऊंचा उठना,नीचा गिरना,सिकुड़ना,फैलना,जाना,आना आदि ये सब कर्म ,इन सबसे जो रहित है,वह ईश्वर है।
दूसरे-ईश्वर शरीरधारी होने से सृष्टि का कर्त्ता,धर्त्ता,हर्त्ता न रहेगा?क्योंकि― “सम्बन्धानुपपत्तेश्च” (वेदान्त दर्शन २/२/३८)
अर्थात् यदि ईश्वर शरीरधारी हो जाये तो एकदेशी होने से सम्पूर्ण जगत के साथ उसका सम्बन्ध नहीं रह सकता और सम्बन्ध न होने से जगत व्यवस्था बिगड़ जाये।
असंख्य तारे हैं (लोक-लोकान्तर) आज के वैज्ञानिक ,खगोल शास्त्री अनुमानित चालिस खरब तारे बतलाते हैं।अनेक तारे तो इस हमारे सूर्य से भी कई गुना बड़े हैं।हमारा सूर्य हमारी पृथ्वी से तेरह लाख गुना बड़ा बताते हैं।हमारी पृथ्वी का क्षेत्रफल ५१०१ करोड़ वर्ग किलोमीटर है।इस प्रकार के असंख्य तारे हैं।इतनी बड़ी है यह सृष्टि।
ईश्वर एकदेशी शरीरधारी होने से असंख्य तारों(लोक-लोकान्तरों) का निर्माण ,अपनी अपनी परिधि पर भ्रमण कराने वाला नहीं हो सकता।
अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया असम्भव है।
तीसरे -ईश्वर शरीरधारी होने से अनन्त सर्वव्यापक न रहेगा?क्योंकि एकदेशी शरीर वाला अनन्त सर्वव्यापक नहीं हो सकता।
एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ सर्वव्यापी(श्वेताश्वतर उपनि० ६/११)
अर्थात् एकदेव ईश्वर सब भूतों में छिपा ,सर्वव्यापक है।
सर्वव्यापी स भगवान् (श्वेताश्वतर उपनि० ३/११)
वह भगवान सर्वव्यापक है।
चोथे-ईश्वर अनन्त है अतः उसका बल शक्ति भी अनन्त ही है। ईश्वर शरीरधारी होने से उसका बल शक्ति अनंत न रहेगा।क्योंकि एकदेशी -शरीरधारी का बल शक्ति भी परिमित,अल्प ही होगा।
पांचवां-ईश्वर शरीरधारी होने से सर्वज्ञ,सर्वान्तर्यामी,सर्वद्रष्टा न रहेगा।क्योंकि एकदेशी शरीरधारी होने से सारी सृष्टि का ज्ञान,सब जीवों के शुभ अशुभ कर्मों को देखने,जानने हारा,सब जीवों को कर्मानुसार फल देने हारा नहीं हो सकता।
एकदेशी शरीरधारी सर्वज्ञ,सर्वान्तर्यामी तथा सर्वद्रष्टा भला कैसे हो सकता है?
ईश्वर सर्वव्यापक है अतः सर्वद्रष्टा भी है।
छठे-साकार वस्तु के लिए स्थान आधार-आश्रय चाहिये।साकार वस्तु बिना आधार-आश्रय के नहीं रह सकती।ईश्वर शरीरधारी होने से शरीर,पृथ्वी आदि के आधार-आश्रय वाला हो जायेगा।सर्वाधार नहीं रहेगा।पराधार हो जायेगा।
जबकि ईश्वर सर्वाधार है।
जब आधार-आश्रय वाला हो जायेगा तो विकारी हो जायेगा,जबकि ईश्वर निर्विकार है।
ईश्वर सर्वव्यापक अनन्त होने से सर्वाधार है।देखिये:-
स ओतः प्रोतश्च विभु प्रजासु(यजु० ३२/८)
वह ईश्वर सब प्रजाओं में व्यापक होकर सबको धारण कर रहा है।
स दाधार पृथ्वीं द्यामुतेमाम(यजु० १३/४)
वह ईश्वर पृथ्वी द्यौलोक को धारण कर रहा है।
सकम्भो दाधार द्यावा पृथिवी उमे इमे सकम्भौ दाधारोर्वन्तरिक्षम सकम्भो दाधार प्रदिशः—-सकम्भो इदमविश्वम भुवनमविवेश।-(अथर्ववेद १०/७/३५)
अर्थात् सबके आधार स्तम्भ ईश्वर ने इन दोंनो द्यौलोक और पृथ्वी को धारण किया है।सबसे बड़े अन्तरिक्ष को सर्वाधार धारण करता है।सब दिशाएं आदि को धारण किये वह सब लोकों के अन्दर व्यापक है।
यो देवानामधियो यस्मिंल्लोक अधिश्रिताः ।-(श्वेताश्वतर उपनि० ४/१३)
अर्थात् जो सब देवों का अधिपति है।जिसमें सब लोक स्थित हैं।जिसके सब लोक आश्रित हैं।
आठवें ईश्वर शरीरधारी होने से अचल न रहेगा।क्योंकि शरीरधारी बिना चले नहीं रह सकता।जब ईश्वर अचल है तो शरीरधारी होने पर कैसे आना जाना करेगा?यदि कहीं वेद में ईश्वर को चलने वाला कहा है,जैसे-
तदेजति तन्नैजति (यजु० ४०/५)
अर्थात् वह ईश्वर चलता है वह नहीं चलता आदि।
सो जहाँ पर ईश्वर को कहीं भी चलने वाला कहा है उसका अर्थ लोक
लोकान्तरों को गति देने,चलाने,घूमाने वाला होने से चलने वाला कहा है।ईश्वर स्वयं तो अचल है.
प्रमाण:-
अजम ध्रुवः(श्वेता०उप० २/१५)
ईश्वर अजन्मा अचल है।
अनाद्यनन्तम महत्तम परमध्रुवम (कठोप० ३/१५)
वह ईश्वर अनादि,अनन्त,महतत्त्व से भी परे अचल है।
कूटस्थमचलम ध्रुवम(गीता १२/३)
अर्थात् ईश्वर कूटस्थ(न बदलने वाला),अचल-एकरस है।

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